अब नहीं मिलते हुनर वाले हलवाई

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अब नहीं मिलते हुनर वाले हलवाई

अंबरीश कुमार 

देश में रसोइयों की परम्परा खत्म हो रही है .अच्छे कारीगर अब नहीं मिलते है .वजह उन्हें कोई प्रशिक्षण देने वाला नहीं है .मिठाई की पुरानी दुकानों को छोड़ दें जो अपने कारीगरों की दूसरी तीसरी पीढ़ी को भी प्रशिक्षित करती जाती हैं .बंगाल से लेकर गुजरात तक ऐसी दूकाने मिल जाएंगी पर शादी ब्याह से लेकर अन्य मौकों पर घर में मिठाई ,खाना ,नाश्ता बनाने वाले जो सत्तर अस्सी के दशक तक आसानी से मिल जाते थे वे अब नहीं मिलते हैं .जिसका नतीजा स्वाद पर पड़ा है .एक उदाहरण देता हूं .कुछ समय पहले हम लोग कोंकण के दापोली समुद्र तट पर गए थे .आपसदारियां कार्यक्रम में .इस कार्यक्रम में स्थानीय स्वाद लेने के लिए किसी ग्रामीण के घर ही खाने के इंतजाम किया जाता है .ऐसा यहां पर भी था .कोंकण व्यंजनों का अद्भुत स्वाद मिला .बाद में जिस रिसार्ट में ठहरे वहां बांगडा यानी मेक्रेल भी एक कोंकणी रसोइये ने बनाया तो स्वाद लाजबाब था .पर दूसरे दिन कोंकण में लोकप्रिय पूरन पोली और साबूदाने की खिचड़ी नाश्ते में थी .साबूदाने की खिचड़ी बहुत स्वादिष्ट होती है .इसमें कुटी हुई मूंगफली ,करी पत्ता और पोहा वाली कई सामग्री पड़ती है . 

तामड़ा रसा

महाराष्ट्र से गोवा की तरफ बढ़ें तो खानपान बदलता नजर आएगा .रत्नागिरी /कोंकण में समुद्री उत्पाद पर ज्यादा जोर मिलेगा तो तो कोल्हापुर में यह बहुत कम मिलेगा .यह तामड़ा रसा और पांढरा रसा जैसी नान वेज डिश के लिए मशहूर है पर कोंबडी वडा, पितला-भाकर, जुनका भाकर वड़ा पाव, मिसल पाव, थाली पीठ, साबूदाना खिचड़ीजैसे शाकाहरी विकल्प भी हैं.दरअसल कोल्हापुरी व्यंजन अलग मसालों और मिर्च के लिए भी मशहूर है .इनके मसालों में तेजपत्ता, खसखस , दालचीनी, काजू ,तिल , लौंग, छोटी और बड़ी इलायची ,कुटी हुई काली मिर्च के साथ नारियल का भी इस्तेमाल होता है .तामड़ा रसा अपनी तरफ के कोरमा /रोगन जोश से मिलता है पर यह बहुत ज्यादा प्रचलित है .मछली ,झींगा की जगह मटन का इस्तेमाल इस अंचल में ज्यादा होता है .तामड़ा रसा का रंग सुर्ख होता है जो मिर्च और मसालों की वजह से आता है जबकि पांढरा रसा कुछ हद तक सफ़ेद ग्रेवी वाला होता है जिसमें काजू का रंग निखर कर आता है .पर तामड़ा रसा उत्तर भारत के सामिष लोगों को पसंद आएगा जैसे नागपुर में सावजी चिकन .इसमें भी मिर्च मसाला काफी इस्तेमाल होता है .

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