गांव में भूख बहुत लगती है

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

गांव में भूख बहुत लगती है

चंचल  
गांव में भूख बहुत लगती है . कई इंद्रियां  भूख बयान करने लगती हैं . आंख थाली निहारती है ,हसरत से . थाली में परोसे गए व्यंजन को . उसका रंग , आकार , घनत्व , और सब मिला कर कम्पोजीशन . थाली देखते ही व्यंजनपरखी भूख रसोइए के मन मिजाज को भांप लेता है . इसी तरह सुगंध . वाह ! और घर कुछ गलत हुआ तो . उफ्फ !, की बऊ दी ! मूड भालो  ना कि ? फिर स्वाद . खाने का बखान करनेवाले अब नही रहे . कवि त्रिलोचन , सुपर स्टार राजेश खन्ना , जन नेता कर्पूरी ठाकुर , तबलाबादक गुदई महराज , कथा लेखक गुलशेरखां शानी , यायावर मरहूम अक्षय उपाध्याय , भोजन पर ये लोग  ऐसे बैठते थे जैसे इबादत पर हों .  भोजन है भी इबादत . एकाध इंद्रियों को  कुछ देर के लिए किनारे  दीजिए तो बाद बाकी सारी इंद्रियों को जगा कर , आह्वाहन करके भोजन ग्रहण करना  चाहिए . यह बात गांव कहता है जो अन्न उपजाता  है . पत्रकार अंबरीश कुमार का एक कार्यक्रम है '  भोजन के बाद , भोजन पर बात . दिलचस्प होता है . सच्ची बताऊं !  लंबे अंतराल के गांव आने पर वही सुख मिला जिसे  छोड़ कर शहर गया था . कुछ  परिवर्तन हुआ है , तमाम जिनिस के साथ भोजन भी रंग बदले दिखता है  . टी बी का फ़िल्म का और भोंडी  नकल के चलते गांव के बाजारों में शी सा करते , मुह फैलाये, जीभ निकाले लाखैरे दोना चाटते मिल जांयगे . चाओ मीन , नूडल , मोमो , आदि आदि के बीच पकौड़ी , समोसा , जलेबी भी जिंदा दिखाई पड़ जाती है पर गांव के घर मे अभी भी  ' जो जिससे बना है ' , उसी असली नाम से महकता मिल जाएगा .   
    गांव का खाना , कलेवा से शुरू होता है दिया लेसाने 
तक चलता है . गांव में मौसम बहुत मतलब  रखता है . हर मौसम का अपना अन्न है अपना फल है . यहां ' आफ सीजन ' वर्जित ' है .ठीक उसी तरह जैसे हर मौसम के अपने गीत हैं कजरी फागुन में नही चलेगी , न ही  जाड़े में फगुआ . गांव में ठंड का मौसम  खाने में विबिधता देता है . आज  आलू मटर . धनिये की चटनी . इस चटनी से जो आवाज निकलती है , बहुत नाकिस आवाज . धोखेबाज . आलू मुह में डाला , चटनी जीभ पर रखा , तब तक फोन की घण्टी बजी - हलो के पहले चटनी बोल गयी . 
     -   बत्तमीज ! इडियट , किसी महिला से बात करने का यह तरीका है ?  
           -  उओह , सुनिए तो सही  
          -  लोफर कहीं के , तमीज से रहा करो . शटअप  
      मोटू की आंख का कोना बता रहा है उधर क्या हुआ ? अब इनकी बारी - नौटंकी , दुष्ट , नशेड़ी . और लो चटनी का मजा .  
    फागुन सुनो हो  फागुन 
 

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