अंबरीश कुमार
हम घंटाघर के सामने थे .घंटाघर के पीछे से डूबता सूरज भी बहुत ज्यादा रौशनी बिखेर रहा था .यहां पहुंचे तो शाम के साढ़े चार बज चुके थे .रविवार को भोजन के बाद भोजन पर बात शो के बीच से उठना पड़ा क्योंकि हिमांशु बाजपेयी का फोन आ गया .झांसी की रानी पर होने वाली दास्तानगोई का कार्यक्रम था .सविता भी जाना चाहती थी क्योंकि झांसी में किले के नीचे ही उनका घर भी रहा है .झांसी की रानी जिस तरह अंग्रेजों से लड़ी वह इतिहास में अमर हो चुका है .पर किस्सा सुनने का लोभ हमें भी था .हिमांशु अपने सहयोगी रहे हैं जनसत्ता में इसलिए वे जब बुलाते हैं जाता भी हूं .मजाज पर उनकी दास्तान मुझे बहुत अच्छी लगी थी .वे इतिहास को सुनते हैं किस्से कहानियों के साथ .काकोरी कांड की की पहली दास्तान उन्होंने मंच से पहले मेरे घर पर ही सुनाई थी .बहरहाल घंटाघर की पृष्ठभूमि में कुडिया घाट परिसर में यह कार्यक्रम हुआ . लखनऊ का घंटाघर भारत का सबसे ऊंचा घंटाघर है. यह घंटाघर १८८२ ई में बनवाया गया था. इसे ब्रिटिश वास्तुकला के सबसे बेहतरीन नमूनों में माना जाता है. २२१ फीट ऊंचे इस घंटाघर की डिज़ाइन रोस्कल पायने ने बनाई थी जो विक्टोरियन और गोथिक शैली की संरचनात्मक डिजाइन को दर्शाता है. घड़ी के निर्माण के लिए गनमेटल का प्रयोग किया गया है. इसका पेंडुलम 14 फीट का हैं .इस घड़ी के डायल पर फूलों की डिजाइन के नंबर बने हुए हैं.
खैर यह और मशहूर हुआ पिछले साल सीएए आंदोलन के चलते .लखनऊ में वैसे भी इतिहास हर दस कदम पर बिखरा हुआ है .
पर अवध के इस हिस्से में भी कम लड़ाईयां नहीं हुई है .अमृत लाल नागर ने कितना लिखा और बताया है .एक बार रिक्शे से उने साथ चौक से लाल बाग़ का सफ़र किया तो कैसर बाग के बारे में बताने लगे .चौक तो असली लखनऊ रहा है .नया लखनऊ इसके बाद का है .हुसैनाबाद के घंटाघर के सामने जब शो शुरू हुआ तो सूरज डूब रहा था .
झांसी की रानी की यह दास्तान हिमांशु बाजपेयी और प्रज्ञा शर्मा ने सुनाई .हिमांशु को तो सुना ही था प्रज्ञा शर्मा की आवाज भी दास्तानगोई के लिहाज से अच्छी है .वैसे भी पूरा कार्यक्रम अदभुत था .छोटे छोटे ब्योरे भी शोध कर जुटाए गए थे .उन्हें रोचक ढंग से संवाद में बदला गया था जो दर्शकों को सम्मोहित करने वाला था .इसे सुनकर कई लोग भावनाओं में बहते नजर आये .मुख्य अतिथि जो बहुत वरिष्ठ पुलिस अफसर थी उनके आंख में भी आंसू आ गए और उन्होंने यह बताया भी .किस्सा सुनाया जाए तो ऐसे कि दृश्य सामने दिखने लगे .आजादी की लड़ाई के कई काल खंड है .पर सभी को जानना समझना चाहिए .यह पहल अच्छी लगी .इतिहास से दूर जा रही पीढ़ी को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा .लखनऊ के इतिहास पर भी ऐसे कुछ कार्यक्रम हों तो लोग अपना इतिहास तो जानेगे ही .जो जरुरी भी है .वे बेगम हजरत महल को भी जाने ,वाजिद अली शाह को भी जाने और झलकारी बाई को भी जाने .
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