बस्तर के डाक बंगले में

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बस्तर के डाक बंगले में

 

अंबरीश कुमार 
शाम होते ही बस्तर से जगदलपुर पहुंच चुके थे क्योंकि रुकना ही डाक बंगले में था. जगदलपुर बस्तर का जिला मुख्यालय है जिसकी एक सीमा आन्ध्र प्रदेश से जुड़ी है तो दूसरी उड़ीसा से. यही वजह है कि यहाँ इडली-डोसा भी मिलता है तो उड़ीसा की आदिवासी महिलाएँ महुआ और सूखी मछलियाँ बेचती नजर आती हैं. जगदलपुर में एक नहीं कई डाक बंगले हैं. इनमें वन विभाग के डाक बंगले के सामने ही आदिवासी महिलाएँ मछली, मुर्गे और कई तरह की सब्जियों का ढेर लगाए नजर आती हैं. बारिश होते ही उन्हें पास के बने शेड में शरण लेना पड़ता है. हम आगे बढ़े और जगदलपुर जेल के पास सर्किट हाउस पहँुचे. इस सर्किट हाउस में सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं आन्ध्र और उड़ीसा के नौकरशाहों और मंत्रियों का आना लगा रहता है. कमरे के ठीक सामने खूबसूरत बगीचा है और बगल में एक बोर्ड लगा है जिसमें विशाखापट्नम से लेकर हैदराबाद की दूरी दर्शायी गई है. जगदलपुर अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक शासकवर्ग के लिए मौज-मस्ती की भी पसन्दीदा जगह रही है. मासूम आदिवासियों का लम्बे समय तक यहाँ के हुक्मरानों ने शोषण किया है इसी के चलते दूरदराज के डाक बंगलों के अनगिनत किस्से प्रचलित हैं. इन बंगलों के खानसामा भी काफी हुनरमंद हैं. पहले तो शिकार होता था पर अब जंगलों से लाए गए देसी बड़े मुर्गो को बाहर से आने वाले ज्यादा पसन्द करते हैं. यह झाबुआ के मशहूर कडक़नाथ मुर्गे के समकक्ष माने जाते हैं. 


इससे पहले जब कांकेर से आगे बढे तो तेजी से दिन में ही अंधेरा छा गया था. सामने थी केशकाल घाटी, इसके घने जंगलों में सडक़ आगे जाकर खो जाती है. साल, आम, महुआ और इमली के बड़े दरख्त के बीच सुर्ख पलाश के हरे पेड़ हवा से लहराते नजर आते थे. जब तेज बारिश की वजह से पहाड़ी रास्तों पर चलना असम्भव हो गया तो ऊपर बने डाक बंगले में शरण लेनी पड़ी. कुछ समय पहले ही डाक बंगले का जीर्णोद्धार हुआ था. इस वजह से यह किसी तीन सितारा रिसॉर्ट जैसा लग रहा था. शाम से पहले बस्तर पहँुचना था. हम चाय पीकर बारिश कम होते ही पहाड़ से नीचे चल पड़े. बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में अब यह क्षेत्र भी शामिल हो चुका है. पीपुल्स वार (अब माओवादी) के कुछ दल इधर भी सक्रिय हैं. केशकाल से आगे बढऩे पर सडक़ के किनारे आम के घने पेड़ों की कतार दूर तक साथ चलती है तो बारिश में नहाए शाल के जंगल साथ-साथ चलते हैं, कभी दूर तो कभी करीब आ जाते हैं. जंगलों की अवैध कटाई के चलते अब ये उतने घने नहीं हैं जैसे कभी हुआ करते थे.जारी 

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