अंबरीश कुमार
बरसात में जंगल की यात्रा अपने को लुभाती है .फिर जंगल अगर बस्तर का हो तो लौटने की इच्छा नहीं होती .हम चित्रकोट जल प्रपात के रास्ते पर थे .डाक बंगला से करीब बीस मील की दूरी थी .जीप जैसा वाहन था ताकि जंगल और पहाड़ के उबड़ खाबड़ रास्ते पर दिक्कत न हो .धीमी धीमी बरसात अचानक तेज हो गई .जब चित्रकोट जल प्रपात के पास पहुंचे तो बरसात भी तेज थी और हवा भी .विजय शुक्ल साथ थे .छाता लेकर चल रहे थे पर छाता उस हवा में टिक ही नहीं रहा था .अब इतनी दूर से आये थे तो झरने तक जाना ही था .और यह कोई सामान्य झरना तो था नहीं .इसे भारत की मिनी नियाग्रा वाटरफाल भी कहा जता है. बरसात में जब इन्द्रावती नदी पूरे वेग में अर्ध चन्द्राकार पहाड़ी से करीब सौ फुट नीचे गिरती है तो उसका विहंगम दृश्य देखते ही बनता है. जब तेज बारिश हो तो चित्रकोट जलप्रपात का दृश्य कोई भूल नहीं सकता. बरसात में इन्द्रावती नदी का पानी पूरे शबाब पर होता है झरने की फुहार पास बने डाक बंगले के परिसर को भिगो देती है. बरसात में बस्तर को लेकर कवि जब्बार ने लिखा है- वर्ष के प्रथम आगमन पर, साल वनों के जंगल में, उग आते हैं अनगिनत द्वीप, जिसे जोडऩे वाला पुल नहीं पुलिया नहीं, द्वीप जिसे जाने नाव नहीं पतवार नहीं.और हम भी उस बरसात में भीग चुके थे .
बरसात में बस्तर कई द्वीपों मे बँट जता है, पर जोड़े रहता है अपनी संस्कृति, सभ्यता और जीवनशैली को. बस्तर में अफ्रीका जैसे घने जंगल हैं, दुलर्भ पहाड़ी मैना है तो मशहूर जंगली भैसा भी हैं. कांगेर घाटी की कोटमसर गुफा आज भी रहस्यमयी नजर आती है. करीब तीस फुट सँकरी सीढ़ी से उतरने के बाद हम उन अंधी मछलियों की टोह लेने पहुंचे जिन्होंने कभी रोशनी नहीं देखी थी. पर दिल्ली से साथ आई एक पत्रकार की साँस फूलने लगी और हमें फौरन ऊपर आना पड़ा बाद में पता चला उच्च रक्तचाप और दिल के मरीजों के अलावा साँस की समस्या जिन लोगों को हो उन्हें इस गुफा में नहीं जाना चाहिए क्योंकि गुफा में आक्सीजन की कमी है. गुफा से बाहर निकलते ही हम कांगेर घाटी के घने जंगलों में वापस लौट आए थे.
आज दूसरा दिन था .सुबह तक बरसात जारी थी. पर जैसे ही आसमान खुला तो प्रमुख जलप्रपातों की तरफ हम चल पड़े. तीरथगढ़ जलप्रपात महुए के पेड़ों से घिरा है. सामने ही पर्यावरण अनुकूल पर्यटन का बोर्ड भी लगा हुआ है. यहाँ पत्तल और दोने में भोजन परोसा जाता है तो पीने के लिए घड़े का ठंडा पानी है. जलप्रपात को देखने के लिए करीब सौ फिट नीचे उतरना पड़ा, पर सामने नजर जाते ही हम हैरान रह गए. पहाड़ से जैसे कोई नदी रुक कर उतर रही हो. यह नजारा कोई भूल नहीं सकता. कुछ समय पहले एक उत्साही अफसर ने इस जलप्रपात की मार्केटिंग के लिए मुम्बई की खूबसूरत मॉडलों की बिकनी में इस झरने के नीचे नहाने के दृश्यों की फिल्म बना दी. आदिवासी लड़कियों के वक्ष पर सिर्फ साड़ी लिपटी होती है जो उनकी परम्परागत पहचान है उन्हें देखकर किसी को झिझक नहीं हो सकती पर बिकनी की इन मॉडलों को देखकर कोई भी शरमा सकता है.
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दोपहर से बरसात शुरू हुई तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लिया. हमें जाना था दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी का मन्दिर देखने. छत्तीसगढ़ की एक और विशेषता है. यह देवियों की भूमि है. केरल को देवो का देश कहा जाता है तो छत्तीसगढ़ के लिए यह उपमा उपयुक्त है क्योंकि यहीं पर बमलेश्वरी देवी, दंतेश्वरी देवी और महामाया देवी के ऐतिहासिक मन्दिर हैं. उधर जंगल, पहाड़ और नदियाँ हैं तो यहाँ की जमीन के गर्भ में हीरा और यूरेनियम भी है.
दंतेवाड़ा जाने का कार्यक्रम बारिश की जह से रद्द करना पड़ा और हम बस्तर के राजमहल परिसर चले गए. बस्तर की महारानी एक घरेलू महिला की तरह अपना जीवन बिताती हैं. उनका पुत्र रायपुर में राजे-रजवाड़ों के परम्परागत स्कूल (राजकुमार कॉलेज) में पढ़ता है. बस्तर के आदिवासियों में इस राजघराने का बहुत महत्व है. ऐतिहासिक दशहरे में राजपरिवार ही समारोह का शुभारंभ करता है. इस राजघराने में संघर्ष का अलग इतिहास है जो आदिवासियों के लिए उसके पूर्व महाराज ने किया था. दंतेवाड़ा जाने का दूसरे दिन सुबह का कार्यक्रम तय किया गया. रात में एक पत्रकार मित्र ने पास के गाँव में बने एक डाक बंगले में भोजन पर बुलाया. हमारी उत्सुकता बस्तर के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करने की थी. साथ ही आदिवासियों से सीधे बातचीत कर उनके हालात का जायजा लेना था. यह जगह डाक बंगले के परिसर में कुछ अलग कटहल के पुराने पेड़ के नीचे थी.
आदिवासियों के भोजन बनाने का परम्परागत तरीका देखना चाहता था. इसी वजह से हमने सर्किट हाउस छोड़ गाँव में बने इस पुराने डाक बंगले में रात गुजरने का फैसला किया. अंग्रेजों के समय से ही डाक बंगले का बावर्चीखाना कुछ दूरी पर और काफी बड़ा बनाया जाता रहा है. लकड़ी से जलने वाले बड़े चूल्हे पर दो पतीलों में एक साथ भोजन तैयार होता है. हम साथ ही आदिवासियों की बनाई गई महुआ की मदिरा सल्फी के बारे में जनना चाहते थे. आदिवासी महुआ और चाल से तैयार मदिरा का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं. साथ बैठे एक पत्रकार ने बताया कि पहली धार की महुआ की मदिरा किसी महंगे स्कॉच से कम नहीं होती है. दो पत्तों के दोनों में सल्फी और महुआ की मदिरा पीते मैंने पहली बार देखा. गाँव का आदिवासी खानसामा पतीलों में दालचीनी, बड़ी इलायची, काली मिर्च, छोटी इलायची, तेजपात जैसे कई मसाले सीधे भून रहा था. मुझे हैरानी हुई कि यह बिना तेल-घी के कैसे खड़े मसाले भून रहा है तो उसका जवाब था कि यहाँ देसी मुर्गे बनाने के लिए पहले सारे मसाले भून कर तैयार किए जाते हैं फिर बाकी तैयारी होती है. बारिस बन्द हो चुकी थी, हम सब किचन से निकल कर बाहर पेड़ के नीचे बैठ गए. जगदलपुर के पत्रकार मित्रों ने आदिवासियों के रहन-सहन, शिकार और उनके विवाह के तौर तरीकों के बारे में रोचक जानकारियाँ दी. पहली बार बस्तर आए पत्रकार मित्र के लिए समूचा माहौल सम्मोहित करने वाला था. दूर तक फैले जंगल के बीच इस तरह की रात निराली थी.
शाम होते-होते हम केशकाल घाटी से आगे जा चुके थे. केशकाल की घाटी देखकर साथी पत्रकार को पौड़ी की पहाडिय़ाँ याद हो आईं. पर यहाँ न तो चीड़ था और न देवदार के जंगल. यहाँ तो साल के जंगलों के टापू थे. एक टापू जाता था तो दूसरा आ जाता था. बस्तर की पहली यात्रा काफी रोमांचक थी. ऐसे घने जंगल हमने पहले कभी नहीं देखे थे. आदिवासी हाट बाजरों में शोख चटख रंग में कपड़े पहने युवतियाँ और बुजुर्ग महिलाएँ सामान बेचती नजर आती थीं. पहली बार हम सिर्फ जानकारी के मकसद से बस्तर गए थे पर दूसरी बार पत्रकार के रूप में. इस बार जब दिनभर घूम कर खबर भेजने के लिए इंटरनेट ढँूढऩा शुरू किया तो आधा शहर खंगाल डाला पर कोई साइबर कैफे नहीं मिला. सहयोगी पत्रकार का रक्तचाप बढ़ रहा था और उन्हें लग रहा था कि खबर शायद जा ही न पाए और पिछले दो दिन की तरह आज भी कोई स्टोरी छप पाए. खैर, एक साइबर कैफे मिला भी तो इसमें उनका इमेल खुलने का नाम न ले. अन्त में मेरे याहू आईडी से बस्तर की खबर उन्होंने भेजी और हजार बार किस्मत को कोसा. खबर भेजने के बाद हम मानसिक दबाव से मुक्त हुए. इसके बाद हम जगदलपुर के हस्तशिल्प को देखने निकले. आदिवासियों के बारे में काफी जनकारी ली और पूरे दिन घूमने के बाद हम फिर दूसरे डाक बंगले में जाकर बैठे. कुछ पत्रकार भी आ गए थे और फिर देर रात तक हम जगदलपुर की सडक़ों पर टहलते रहे।
इस बार तीरथगढ़ जलप्रपात देखने गए तो जमीन पर महुए के गुलाबी फूल बिखरे हुए थे. इनकी मादक खुशबू से पूरा इलाका गमक रहा था. महुआ का फूल देखा और यह क्या होता है जानने का प्रयास किया. साथ गई आरती धर महुए के पत्ते के दोनों में बिकती मदिरा भी चखना चाहतीं थीं. पर वह हाइजीन का खयाल आते ही चखने का विचार छोड़ दिया. एक गाँव पहँुचे तो आदिवासियों के घोटूल के बारे में जानकारी ली. घोटूल अब बहुत कम होता है. विवाह सम्बन्ध बनाने के रीति-रिवाज भी अजीबोगरीब हैं. आदिवासी यु्वक को यदि युवती से प्यार हो जाए तो वह उसे कंघा भेंट करता है और यदि युवती उसे बालों में लगा ले तो फिर यह माना जता है कि युवती को युवक का प्रस्ताव मंजूर है. फिर उसका विवाह उसी से होना तय हो जता है. बस्तर का पूरा इलाका देखने के लिए कम से कम हफ्ते भर का समय चाहिए. पर समय की कमी की वजह से हमने टुकड़ों-टुकड़ों में इस आदिवासी अंचल को देखा पर पूरा नहीं देख पाया हूं. (यह लेख छत्तीसगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस की जिम्मेदारी सँभालने के बाद लिखा गया था ) फोटो साभार -बस्तर डाट जीओवी डाट इन
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