जब लाट साहब रोमेश भंडारी को दिल्ली भागना पड़ा

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जब लाट साहब रोमेश भंडारी को दिल्ली भागना पड़ा

के विक्रम राव 
राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को शिवसेना मुख्यमंत्री के आदेश पर मुंबई में शासकीय वायुयान से (12 फरवरी 2021) जबरन उतरवाना कोई अजूबा नहीं है. कई ऐसे हादसे पहले भी हो चुके हैं. त्रिपुरा की मार्क्सवादी सरकार ने तो राजभवन की बिजली और पानी की सप्लाई काट दी थी. नतीजन राज्यपाल रोमेश भंडारी को भागकर दिल्ली आना पड़ा. फिर उनका तबादला पणजी राजभवन (गोवा) कर दिया गया था.  
एकदा तमिलनाडु के राज्यपाल रहे डॉक्टर मर्री चन्ना रेड्डि पड़ोसी पुद्दुचेरी का भी कार्यभार संभाल रहे थे. अन्नाद्रमुक की मुख्यमंत्री जे. जयललिता से उनके रिश्ते बिगड़ चुके थे. चेन्नई से पुद्दुचेरी सड़क मार्ग से वे जा रहे थे, तभी अन्नाद्रमुक पार्टी कार्यकर्ताओं ने पत्थरबाजी की. पुलिस देखती रही. कार का कांच ध्वस्त हो गया. परिसहायक ही डॉ. रेड्डि की ढाल बना, वर्ना राज्यपाल को अस्पताल पहुंचाना पड़ता. इसी प्रदेश के अभी राज्यपाल हैं संपादक बनवारीलाल पुरोहित. एक महिला रिपोर्टर के सौष्ठव की श्लाधा कर दी. पत्रकारों ने नासमझी में हंगामा कर दिया. अखबारी कालम रंग गए. राज्यपाल ने ''बेटी'' कहा, तब अमन कायम हो सका . 

         आजकल बंगाल बड़ी चर्चा में है. उसके राज्यपाल स्व. धर्मवीर थे. अजय मुखर्जी (विद्रोही कांग्रेसी) मुख्यमंत्री और माकपा के ज्योतिबासु उपमुख्यमंत्री थे. माकपाईयों से तंग आकर राज्यपाल ने सरकार (1969) बर्खास्त कर दी. कोलकाता की सड़कों पर हुजूम निकला. सूत्र केवल एक ही उच्चरित हो रहा था : ''रक्तेर बदला, रक्त चाये, धर्मवीरे सर चाये.'' बस पलायन कर धर्मवीर जी दिल्ली आ गये. बाद में कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा आदि के राजभवन में रहे. प्रयागराज के वकील केशरीनाथ त्रिपाठी तो तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की पत्थरबाजी भुगत चुके हैं. उनके लिये कोलकाता राजभवन त्रासदभरा रहा. अब जगदीप धनखड़ रोज ममता बनर्जी द्वारा विशेषणयुक्त संबोधन सुन रहे हैं. 
 
           हाल ही में छत्तीसगढ़ की आदिवासी राज्यपाल अनुसुईया उईक द्वारा नामित रायपुर विश्वविद्यालय के कुलपति को कांग्रेस मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अधर में लटका दिया था. बाद में दोनों सत्ताकेन्द्रों में युद्धविराम हुआ. अंतत: त्रिशंकुजी कुलपति की कुर्सी पर विराज पाये. हालांकि अनुसुईया जी कांग्रेसी अर्जुन सिंह की भोपाल में काबीना में मंत्री रह चुकीं थीं. 

         दो और पहलू है जो राज्यपाल के इस प्रतिष्ठिा पद की असहायता और दुर्दशा दर्शाती है. इनसे राज्यपाल की मर्यादा में हास्र और प्रतिष्ठा में स्खलन हुआ है. पहला है पांच वर्ष के लिए नियुक्त किये जाने पर भी मुख्यमंत्रियों द्वारा राज्यपाल को पदच्युत करा देना अन्यथा हटवा देना. इसका सर्वप्रथम और स्पष्ट उदाहरण भी लखनऊ राजभवन का है. वाराहगिरी वेंकेटगिरी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल नियुक्त हुए. चेन्नई से चलने के पूर्व उन्होंने बयान अथवा पत्रकारों ने छाप दिया कि वी. वी. गिरी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के सुषुप्त साथी की भूमिका नहीं वरन सजग राज्यपाल का रोल अदा करेंगे. बस पहले कौर में ही मक्खी गिर गयी. मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द ने ऐसी हालत पैदा कर दी कि वी.वी. गिरी को अपना तबादला कराना पड़ा. आधी अवधि में ही उन्हें केरल के राजभवन में बसना पड़ा. पोस्टिंग के अलावा ट्रांसफर नियम भी राज्यपालों पर लागू हो गया. 

        विभिन्न राज्यों की इतिवृत्त प्रमाण है कि राज्यपालों का अमोघ अस्त्र संविधान की धारा 356 है. इसका बेतहाशा, बहुधा बेतरतीब, प्रयोग राजभवन से होता रहा है. मुहावरे की शैली में कहें तो बर्खास्तगी की यह तलवार मुख्यमंत्रियों के सर पर लटकी रहती है. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस धारा 356 को दंतहीन कहा था. पर उलटे यह नाखून और डंक से ज्यादा पैना हो गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने इस शस्त्र को एसआर बोम्मई वाली याचिका से सीमित कर दिया था. इसमें निर्दिष्ट है कि हर मुख्यमंत्री अपना बहुमत विधानसभा के भीतर, न कि राजभवन या राष्ट्रपति भवन के बगीचे अथवा प्रांगण में, प्रमाणित करेंगे. फिर भी ऐसी हरकत होती ही रहीं है।  
 

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