के विक्रम राव
अचरज तो इसलिये होता है कि उच्चतम न्यायालयों के एक प्रधान न्यायमूर्ति मदन मोहन पुंछी तथा न्यायमूर्ति राजेन्द्र सिंह सरकारिया ने केन्द्र और राज्य के संबंधों पर अपने अलग अलग आयोग की सिफारिशें पेश की थीं. सब अलमारी की आली में धरी ही रहे गयी.
सबसे दुखद और घृणित उपयोग इस धारा 356 को जवाहरलाल नेहरु ने इन्दिरा गांधी के दबाव में केरल की कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्ध किया था. तब (1958) मुख्यमंत्री के ईएमएस नंबूदिरिपाद. शिक्षा सुधार कानून के खिलाफ केरल की नायर सेवा समिति (मन्नथ पडानाभन) और ईसाई संस्थाओं ने एकजुट होकर आन्दोलन किया. सरकार के विधानसभा में अपार बहुमत होने के बावजूद भी नंबूदिरिपाद सरकार भंग कर दी गयी.
इसके कुछ ही वर्ष बाद ही उत्तर प्रदेश के राज्यपाल डा. बी. गोपाल रेड्डी ने चौधरी चरण सिंह की सरकार को साठ के दशक में बर्खास्त कर डाला. रोमेश भंडारी ने तो और अभूतपूर्व हरकत की. भाजपाई कल्याण सिंह की सरकार को हटा दिया. आधी रात को कांग्रेसी (अधुना भाजपाई सांसद) जगदंबिका पाल को शपथ दिलायी. अटल बिहारी वापजेयी विरोध में अनशन पर बैठ गये. फिर सर्वोच्च न्यायालय ने विधानसभा में उन्हें बहुमत सिद्ध का आदेश दिया. एक ही सदन में दो मुख्यमंत्री एक साथ थे, क्या नजारा था! इससे दुखद दृश्य टाइम्स आफ इंडिया का संवाददाता होने के नाते मैंने स्वयं अगस्त 1984 में आंध्र प्रदेश देखा था. तब हिमाचल से हैदराबाद पधारे ठाकुर राम लाल ने तेलुगु देशम के एनटी रामा राव को तीन चौथाई बहुमत के बावजूद हटा दिया था. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी. भला हो डा. शंकर दयाल शर्मा का जो राज्यपाल बनकर आये और कानून का राज पुरर्स्थापित किया.
मगर जयपुर तथा चण्डीगढ़ में राज्यपालों ने जो किया वह अक्षम्य ही नहीं, अशोभनीय भी था. संपूर्णानंद ने स्वतंत्र पार्टी की महारानी गायत्री देवी के बहुमत दर्शाने के बावजूद कांग्रेसी मोहनलाल सुखडिया को गुपचुप शपथ दिला दी. उधर चंण्डीगढ़ राजभवन में गनपत डी. तपासे ने जनता दल के चौधरी देवीलाल को वादा देकर भी सजातीय कांग्रेसी भजन लाल को हरियाणा का मुख्यमंत्री बना दिया. मतलब राज्यपाल के कौल की कोई कीमत नहीं थी.
इन सब घटनाओं से अधिक दयनीय तो राज्यपालों की बर्खास्तगी रही, वह भी थोक में. सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार (मोरारजी देसाई वाली) ने कांग्रेस मुख्यमंत्रियों तथा इन्दिरा गांधी द्वारा नामित राज्यपालों को हटा दिया था. वापस सत्ता पर लौटते ही फरवरी 1980 में इन्दिरा गांधी ने भी ऐसा किया. इनमें तमिलनाडु के सर्वोदयी राज्यपाल प्रभुदास बालूभाई पटवारी थे. गांधीवादी और मोरारजी देसाई के सहयोगी को सशरीर राजभवन से बाहर किया. पटवारीजी बड़ौदा डाइनामाइट केस में अभियुक्त नंबर चार पर थे. जार्ज फर्नाडिस प्रथम और द्वितीय पर मैं था आरोपियों की सूची में. राज्यपालों की दुर्दशा की पीड़ा से सर्वाधिक भुगतनेवाले पंडित विष्णुकांत शास्त्री थे. उन्हें 2 जुलाई 2004 को सोनिया—कांग्रेस सरकार ने रातो—रात बर्खास्त कर डाला था. इस ज्ञानी, धर्मनिष्ठ राज्यपाल से उस रात मैं लखनऊ राजभवन में मिलने गया था. राजनीतिक असहिष्णुता के शिकार शास्त्रीजी को दूसरे दिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव स्टेशन तक पहुंचाने गये. मैंने उस बर्खास्त राज्यपाल के चरणस्पर्श किये थे जो मैं केवल अपने पूज्य अध्यापकों का करता रहा हूं.
लेकिन पत्रकार साथी भगत सिंह कोश्यारी के साथ शिवसेना सरकार की बदसलूकी दिल पर घाव छोड़ गई. फिर याद आया कि पारिवारिक संस्कार सद् व्यवहार हेतु आवश्यक होते हैं. अब शिवसेना उनको महाराष्ट्र से हटाने की मांग कर रही है. वरिष्ठ राजनायिक शरदचन्द्र गोविंदराव पवार मौन हैं.
अंतत: हमारे यूपी की अस्सी वर्षीया राज्यपाल आनंदीबेन मफतलाल पटेल सर्वाधिक मुफीद पसंद हैं. वे केवल एयर इंडिया और वाणिज्यीय जहाज का ही इस्तेमाल करतीं हैं. अपनी सुरक्षादल की संख्या कम कर दी. राजभवन में कर्मचारियों के साथ तुलनात्मक रुप से ज्यादा समय बिताती हैं. राजभवन परिसर ज्यादा हरा हो गया है. मनभावन भी. आनंदीबेन के नाम की भांति.
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