फूली रोटी तो सदियों से नहीं खाई शायद...

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फूली रोटी तो सदियों से नहीं खाई शायद...

रति सक्सेना  
चलिए हम अपने समाज से जोड़ते हैं, अपने आप से जोड़ते अब जोड़ो तो, मेरी पीढ़ी से लेकर मेरी बेटियों की पीढ़ी तक अपने आप को जोड़ लेती हैं. मुझे बहुत सी बातों की शिकायत थी, कि ससुराल कानपुर में त्यौहार के दिन रच रच कर खाना बना करता , लेकिन जब हम सब आंगन में पीढ़े लगा कर खाने बैठते आंगन में, मेरे और अपने सामने सब्जी के भगौने पर ढंकी रस से सरोबार तश्तरी रख दी जाती, सासू के हाथ में परोसन होता, फिर दूसरों को गर्मागरम पूडिया परोसी जातीं, मेरी ओर उनकी तश्तरी पर रात की रोटियों से तले कुकड़े परांठे पटक दिये जाते. जब मर्दों की दाल पर घी का तड़का लगता, मेरी दाल में तेल का तो लगता कि किसके बाल खीच दूं. बात स्वाद की नहीं, अपमान की होती थी. रोटी फैंक कर ही दी जाती थी.  मुझे रोटी को दूर से पटकना ही ऐसा लगता था कि मानो मुझ से इंसानियत ही छीन ली गई.  
अब चलिये ससुराल वालों से हट कर अपने ही सगों पर आयें, तो मेरी सुबह सालों तक सबसे पहले होनी चाहिये थी, क्यों कि दोनों बेटियों का टिफिन , पति का टिफिन लगाना था, सास के लिए खाना केरोल में रखना होता था, जिसे वे खा सकें. अपने बारे में सोचना ही नहीं होता, एक बेटी को इडली चाहिये, तो दूसरी इडली के नाम से बिचकती, पति महोदय पूर्ण कानपुर वासी रोटी परांठा जीवी रहे.  
मजे की बात ये सब मुझ पर अत्याचार नहीं कर रहे थे, ये सब मुझ से प्यार भी करते थे. लेकिन उनका स्वाद अलग था, एक बैटी बैंगन खाती, दूसरे आलू, एक को उबला अन्डा , दूसरे को आमलेट.  शाम का नाश्ता भी अलग, प्रदीप जी का एक निर्धारित मैन्यू है, दुनिया कुछ पकाये खाये, उनकी थाली में वही होना चाहिये.  
हमारे यहां चिल्लम चिल्लम नहीं मचती. लेकिन मेरा दिल रो उठता था. जब मैं अपना टिफिन उठाती तो उसमें रोटी और सूखी सब्जी ही होती. सालों नाश्ता गरम नहीं खाया, रविवार को डौसा बनता तो सब गरम गरम खाते, मैं दो एक साथ सैंक कर अन्त में बैठ जाती. वह तो बड़ी बेटी ने कुछ बड़े होते ही समझ लिया तो वह कहती, मां अब आप बैठों मै देती हूं गरम दौसा.  
फूली रोटी तो सदियों से नहीं खाई शायद, साहिब जी को कद्दू पसन्द नही था, घर में नहीं आया, एक बार छोटी बेटी नें हंगामा किया, कि जो पापा को पसन्द है, हम खाते हैं तो जो मां को पसन्द है पापा को खरीद कर लाना ही होगा.  
बेटियों को सिर पर तो नहीं चढ़ाया, लेकिन मन में लगता था कि अभी मन का नहीं खायेंगी तो शादी के बाद कैसे. मुझे याद है कि छोटी बेटी ने करमकल्ले की सब्जी खाने के लिए बगावत की तो मैंने उसे डाइनिंग टैबिल से उठने ही नहीं दिया, कहां कि वह यहीं सोएगी, और वह जिद्द  में डाइनिंग टेबिल की कुर्सियां जोड कर सो भी गई, लेकिन दूसरे दिन बोली, मुझे आप केबेज की रोटी दे दो, केबेज की दाल दे दो, केबेज की खिचड़ी दे दो, मैं खा लूंगी, सच हम हंसे भी, लेकिन ग्लानि भी हुई, और उस ग्लानि ने उनके खाने पर ज्यादा ध्यान दिलवाना शुरु किया.  
मैं मां की बात तो भूल गई,  क्या मैंने उन्हें खाना खाते देखा? क्या सोचा कि वे क्या खाती हैं? जबकि पिता की थाली में कांसे का कटोरा भर दाल, छोटी कटोरी घी, तरकारी, रायता, मिर्च ,चटनी रोजाना होता था. बडी बहन ने बताया कि वे बासी तिरासी रोटी को कडक सेंक कर कढाई पौंछ कर खाती रहीं, सबसे आखिर में, तभी उनके अशक्त होने पर जब पूछा जाता कि क्या खाओगी, तो वे कहती, कभी मन का खाया हो तो पता चले कि क्या खाना है. 
जनरेशन गैप कुछ बदलाव नही लाता. बड़ी बेटी ससुराल पहुंची तो रोजाना नानवेज, और वह छूती भी नहीं थी, लेकिन वह ससुराल में थी, वीसा के इंतजार में. वह कहती है कि यदि आप कुछ न सिखाती तो बेहतर था,क्यों कि अब उसे जो सीखा था, वह भूलना था और बिहार का खाना सीखना था, क्यों कि सासू जी बिहार की थी. वह सालों कुछ चम्मच तरी के साथ रोटी गटकती रहीं, लेकिन सबको पका कर खिलाती रही, खुद मछली की गंध भी नहीं सह सकती थी, लेकिन ससुराल में सरसों का छोंक लगा कर मछली बनाना सीख गई, चाहे उस दिन वह पानी भी ना निगल पाये.  
इस लाकडाउन के वक्त हर महिला ग्रेट इंडियन किचन की सुगन्धों में भस्म सी हो गई, जो लड़कियां भारत में नहीं रहती, उन्हे तो धोना पखारना साफ करना भी खुद ही करना होता है. लाकडाउन के वक्त जिस तरह से पकवान फेसबुक पर परोसे जाते थे, मुझे कोफ्त होती थी. 
बरसों तक मैं सुबह चाय की चुस्की और अखबार से शुरु नहीं कर पाई, बरसों मैं अपनी अधूरी कविता कहानी को सीने में दफ्न कर के सोई, बरसों तक मैं खुद पकती रही ,,,, लेकिन यह किचन जुर्म तो करता नहीं, समाज क्या घर परिवार भी नहीं समझ पाता कि झूठन पर खाना, या बासा खाना, बचा खाना, और हमेशा पकाते रहना ऐसा अनबूझा अत्याचार है, जो बेहद तीखी मार करता है.  
और उसी अत्याचार की कहानी है, हम सब के सीनों में दफ्न.(कानपुर की रहने वाली रति सक्सेना मशहूर लेखिका है और केरल में रहती है .उन्होंने भारतीय समाज और खानपान पर विस्तार से लिखा है उसके कुछ संशोधित अंश हम दे रहे हैं .)

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