फकरेआलम की बिरयानी का भी एक दौर था

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फकरेआलम की बिरयानी का भी एक दौर था

अंबरीश कुमार  
लखनऊ के नजीराबाद में एक गली जो बाएं जाती है उसमें फकरेआलम की बिरयानी ऐसी मशहूर हुई कि वे आगे बढ़ते चले गए .वे मशहूर जुआरी भी थे .कट पत्ता ने उन्हें जमीन से आसमान तक पहुंचा दिया .औए एक समय  ऐसा आया कि उन्होंने अपने मालिक का ठीहा यानी ताज होटल ही खरीद लिया .पर यह होटल उन्हें फला नहीं और किस्मत ने उन्हें फिर नीचे धकेल दिया .जुआ में भी हारे और बिरयानी की साख भी ख़राब हो गई .नजीराबाद की इसी सड़क पर जो गली दाए जाती है उसमें आलमगीर की मशहूर दूकान है जिसका बंद गोश्त का जायका लेने लोग दूर दूर से आते रहे हैं .यह गली नाज की तरफ भी खुलती है .और सामने है मशहूर टुंडे की दूकान . 
टुंडे  की कहानी काफी रोचक और पुरानी है. 
साल 1905 का कोई दिन था जब पहली बार अकबरी गेट में एक छोटी सी दुकान खोली गई.टुंडे कबाब को बनाने वाले टुंडे के वंशज रईस अहमद जो अब पचहत्तर के चपेटे में होंगे  उनके पुरखे भोपाल के नवाब के यहां खानसामा हुआ करते थे .नवाब शौकीन तो बहुत थे पर उम्र ज्यादा हुई तो दांत भी साथ छोड़ने लगे .तभी ऐसे कबाब की जरुरत महसूस हुई तो मुंह में डालते ही घुल जाए .इसके लिए गोश्त को बारीक पीसकर और उसमें पपीते मिलाकर ऐसा कबाब बनाया गया जो मुंह में डालते ही घुल जाए.साथ ही हाजमा दुरुस्त रखने और स्वाद के लिए उसमें कई  मसाले मिलाए गए.यही हाजी परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया और अकबरी गेट के पास गली में छोटी सी दुकान शुरू की . 
इन कबाबों का नाम टुंडे पड़ने के पीछे भी दिलचस्प किस्सा है. रईस अहमद के वालिद हाजी मुराद अली पतंग उड़ाने के बहुत शौकीन थे। एक बार पतंग के चक्कर में उनका हाथ टूट गया। जिसे बाद में काटना पड़ा.पतंग का शौक गया तो मुराद अली पिता के साथ दुकान पर ही बैठने लगे.टुंडे होने की वजह से जो यहां कबाब खाने आते वो टुंडे के कबाब बोलने लगे और यहीं से नाम पड़ गया टुंडे कबाब. पर इन कबाब के स्वाद ने लोगों को दीवाना बना दिया .इसमें मसालों का बड़ा कमाल था .और इनका दावा है कि  आज भी उन्हीं मसालों का प्रयोग किया जाता है जो सौ साल पहले मिलाए जाते थे, आज तक उन्हें बदलने की जरूरत नहीं समझी. 
आज जनादेश पर अवध के खानपान पर चर्चा .लिंक से सुने  

 


 

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