डा शारिक़ अहमद ख़ान
कई बार फ़िराक़ साहब की बातों से लोगों में भारी कन्फ़्यूज़न पैदा हो जाता था,समझ में ही नहीं आता था कि फ़िराक़ आख़िर हैं किस धर्म के.फ़िराक़ साहब जब बुज़ुर्ग़ हो गए थे और बीमार चल रहे थे तो एक दिन फ़िराक़ ने अपने बंगले की बैठक में मौजूद लोगों से अचानक कहा कि 'देखो भाई मैं हिंदू हूँ,कहीं मरने के बाद मुझे मुसलमान समझ दफ़ना मत देना.बहरहाल,क्योंकि फ़िराक़ के नाम से सामाजिक संगठन 'फ़िराक़ 'बनाया और बहुत से लोग फ़िराक़ को पसंद नहीं करते हैं.
एक दिन मेरे एक रिश्तेदार मेरे आज़मगढ़ के आवास पर आए,वो अपने साथ एक बेवकूफ़ मौलाना भी लेते आए जिनकी खोपड़ी पर धर्म की अफ़ीम का नशा था।मौलाना ने कुछ एंटीक किस्म के सजावटी सामान सजे देखे,जो महज़ एंटीक सजावटी सामान थे.किसी देवी-देवता की मूर्ति कत्तई नहीं थे.अब मौलाना ने रिश्तेदार से बहुत दबी आवाज़ में कहा कि ये मूरत है,हिंदुओं की मूर्तियाँ,ऐसी मूरतें हमने दिल्ली में अकबर अहमद डंपी के यहाँ देखी हैं,मूरत रखना हराम है,डंपी बहुत ग़लत करते हैं .मूरत रख,हम तो वहाँ से उठ लिए,यहाँ भी मूरत है.ये बात हमने सुन ली।अब हमने मौलाना से इस्लाम की चर्चा छेड़ दी,उन्होंने एंटीक रखने पर सवाल खड़े किए,कहा फेंक दीजिए.अब कई सवाल हमने उनसे पूछे,फिर हम अपने रंग में आ गए,शब्दों से जवाब देना शुरू किया,मौलाना घबरा गए,चेहरा फक्क पड़ गया.मारा मौलाना के इल्म की धज्जी शब्दों के प्रहार से उड़ा डाली,हमसे उम्र में बड़े हमारे रिश्तेदार साहब को भी मेरी बातें अच्छी नहीं लग रहीं थीं।उन्होंने बहुत दर्दभरी आवाज़ में हमसे पूछा कि आपसे एक सवाल है,वो ये कि 'मरने के बाद आपको जलाना है या दफ़नाना है.ये सुन हमने कहा कि 'तिल भर नात और भैंसा बरोब्बर व्योहार में तिल भर नात भारी.मतलब कि तिल के बराबर रिश्तेदारी और भैंसे के बराबर व्यवहार,मतलब ज़रा सी रिश्तेदारी और बहुत ज़्यादा दोस्ती के बीच तिल भर नात ही भारी पड़ती है,लिहाज़ा मेरी मिट्टी तो आप लोगों के ही हवाले होगी,किसी दोस्त को तो मिलेगी नहीं,फिर आप रिश्तेदार लोग जैसा चाहिएगा कर लीजिएगा,चाहे तो दफ़ना दीजिएगा या चाहे तो जला दीजिएगा,मुर्दे के ऊपर कई मन लकड़ियों का बोझ हो या कब्र में बिना कोई बोझ डाले लिटा दिया जाए इससे मुर्दे के ऊपर कोई फ़र्क नहीं पड़ता.फिर मरने के बाद मेरी विल भी फ़ौरन खुलेगी,हो सकता है उसमें भी कुछ लिखा मिले.ये सुन रिश्तेदार साहब ख़ामोश हो गए।जब दोनों लोग चलने को हुए तो हमने रिश्तेदार साहब को किनारे ले जाकर उनसे कहा कि हमने सिर्फ़ आपको यहाँ आने की इजाज़त दी थी,हम सबसे नहीं मिलते,ना जल्दी किसी का फ़ोन रिसीव करते हैं,आपको रिश्तेदारी की वजह से छूट मिली है.
गाँव-जवार के किसी भी एैरे-गैरे गँवार मुल्ला-वुल्ला को मेरे ड्राइंगरूम में लाकर मत बैठा दिया कीजिए,इनको एंटीक की और दुनिया की समझ नहीं होती.ये अफ़ीम चाटे मेंढक हैं,इनको ठीक से इस्लाम के बारे में भी पता नहीं,बस क़ुरआन पढ़ लिया,मतलब नहीं समझा.फ़ालतू लोगों को मिलना हो तो मेरे अड्डे पर आएं,घर नहीं.तब से रिश्तेदार साहब अकेले ही मिलने आते हैं.बहरहाल,इसी तरह सम्राट अकबर को लेकर भी लोगों के मन में तरह-तरह की शंका थी.जब अकबर की मौत हुई तो दक्षिण भारत के एक मुसलमान शासक ने अकबर के यहाँ रहने वाले पादरी से अपने राज्य में आने पर पूछा कि क्या अकबर ईसाई था,मैंने सुना है कि वो ईसाई था और इस्लाम के ख़िलाफ़ था।ये सुन पादरी ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं था,लोगों ने उसकी बातों का ग़लत अर्थ निकाल लिया 'वो मुसलमान ही पैदा हुआ था और मुसलमान ही मरा.
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