साहित्य को तो अकेले वामपंथी ही हलाल करता रहा

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साहित्य को तो अकेले वामपंथी ही हलाल करता रहा

चंचल  
अभी परसों राजकमल प्रकाशन समूह ने हमारी संस्था समताघर द्वारा चलाये जा रहे पुस्तकालय को अच्छी तादात में पुस्तकें भेजी हैं .यह पहली बार नही हुआ है .गाहे ब गाहे जब कभी भी हमने राजकमल प्रकाशन समूह के सर्वेसर्वा  भाई अशोक माहेश्वरी से किताबों की मदद मांगी है , मुक्त हस्त मिला है .किताब ही क्यों नकदी भी तो  चलता रहता था .यह वाकया विस्तार में लिखा है , संस्मरण में .बहरहाल जो किताबे आयी हैं उसमें  'परती परिकथा' भी है ।यह हमारी प्रिय किताब है .फणीश्वर नाथ रेणु     सच्ची कहूं ? दुनिया का बेहतरीन किस्सागो है , इनसे बेहतर दृष्टि वाला और और उस दिखे को , उसकी भाषा मे , उसी को सजानेवाला दूसरा कोई प्रेक्षक नही मिलेगा .( प्रेक्षक - देखता है और सुनता भी है ) हम ये नही कहते कि रेणु की कल्पना सयान नही होती , होती है और इस कदर लजाधुर है कि नजर खुद झुक जाय .हिरामन के  'इश्स'  की झेंप की तरह  .बहरहाल यह साहित्यालोचक जाने और इस खूबी के साथ ज्ञान बघारें की गर वे न होते तो हिंदी साहित्य कब का फड़फड़ा कर उड़ गया होता .शुक्र करिये साहित्य में  
'कभी तो पकेगा , गिरेगा ' के मनोविज्ञान में जीने की आदत ने उसे गुस्सा की बीमारी से बाहर कर दिया है .वह गुस्सा होना नही जानता .वरना कोई तो होता  
जो साहित्य अकादमी या अन्य स्थापित संस्थाओं से पूछता कि जनाबेआली ! फणीश्वर नाथ रेणु का नाम  सुने हो  ? अतिशयोक्ति न समझें फणीश्वर नाथ रेणु की दो रपट  , बिहार की बाढ़ और सूखे पर जो बाद में किताब की शक्ल में राजकमल से प्रकाशित हुई  '  ऋण जल ,धनजल ' कवर हमने बनाया है .को ही कब का साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल गया होता .हम उनकी कालजयी रचना  ' परती परिकथा ,  जुलूस , मैला आँचल की बात ही नही कर रहा .एक छोटी सी घटना सुना दू . 
       हम दिल्ली के हो गए थे .एक शाम शानी जी ( गुल्शेरखां शानी )  ने कहा आज शाम मलिक  साब ( कन्हैया लाल मलिक , नेशनल बुक वाले )  की एक पार्टी है .अच्छा जमावड़ा रहा .डॉ नामवर सिंह , केदार जी , राजेन्द्र यादव ,  विष्णु खरे , मिर्मल वर्मा , मंगलेश डबराल वगैरह . हम डॉ नामवर जी के मुंहलगे रहे बिल्कुल  चुलबुले  लहुरा लड़िका माफिक .बेखौफ बोलता था .वहां बात बात में हमने बोल दिया - समाज  में  , सियासत में , व्यक्तिगत आचरण में कम्युनिस्ट और संघी  नास करने साथ साथ चलते हैं लेकिन साहित्य  चूंकि संघ के पहुंच से बहुत दूर है,  चुनांचे  साहित्य को अकेले ही वामपंथी हलाल करता रहा , जो बच गए वे अपने दम पर .और हमने जो नाम लिए उनमे आचार्य हजारी प्रसाद से लेकर , रघुवीर सहाय , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना , डॉ धर्मवीर भारती , विजयदेव नारायण साही और फणीश्वर नाथ रेणु .वगैरह अनगिनत नाम हैं . 
बहस के केंद्र में रेणु आ गए .बहरहाल यह सब दिल्ली कहती सुनती रहती है . 
    रेणु जी हम दो एक बार मिले हैं , लेकिन वह मिलना न मिलने के बराबर रहा .जून 74 को .जब छात्र आंदोलन अपने उरूज पर था . 
   आज 4 मार्च है , रेणु होते तो हम उनका सौवां जन्मदिन मना रहे होते , लेकिन उनके शब्द , उनके चरित्र , उनका परिवेश , जैसे अनेक अवयव तो हैं और रहेंगे . 
       नमन रेणु जी  
    क्या बोले लतिका जी के लिए -  
       'कितनो के बोल सहे '  
 ( यह चित्र भाई ओम थानवी के  सौजन्य से मिला है )

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