मोदी की मनमानी पर मीडिया की ख़ामोशी !

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मोदी की मनमानी पर मीडिया की ख़ामोशी !

संजय कुमार सिंह 

प्रधानमंत्री या सत्तारूढ़ दल अगर चुनाव आयोग के निर्देश न मानें तो चुनाव आयोग क्या करे? अगर कोई प्रधानमंत्री अपनी पर उतर आए तो आयोग क्या करे. जाहिर है देश-समाज और प्रबुद्ध नागरिकों को उसके समर्थन में आना होगा. इसमें मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है पर मीडिया तो छोड़िए आम नागरिकों का एक बड़ा वर्ग सरकार के समर्थन और विरोध में बंटा हुआ है. चुनाव की घोषणा के बाद से आदर्श आचार संहिता लागू हो गया पर निवर्तमान प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सत्तारूढ़ दल आदर्श आचार संहिता को मानने के लिए तैयार ही नहीं है. कायदे से इसपर मीडिया को लिखना चाहिए था और सरकार पर दबाव बनाना चाहिए था कि वह अनैतिक न हो. दूसरी ओर, मिशन शक्ति की घोषणा जैसे स्पष्ट मामले में भी चुनाव आयोग ने तकनीकी कारण से प्रधानमंत्री को आचार संहिता उल्लंघन का दोषी नहीं माना और कह दिया कि घोषणा निजी समाचार संस्था ने की इसलिए गलत नहीं है जबकि घोषणा ही गलत थी. 

इस तरह, एक निजी समाचार संस्था को सरकारी समर्थन या उपयोग जायज हो गया और सरकार को सहारा मिल गया. इसका दुरुपयोग फिल्म कलाकार द्वारा अराजनीतिक इंटरव्यू के रूप में सामने आया. इसे किसी ने गलत भी नहीं कहा. एक पूरा टेलीविजन चैनल बिना जानकारी या अनुमति के शुरू हो गया और चल रहा है. प्रचार के लिए फिल्में बनीं, किताबें लिखी गईं और न जाने क्या-क्या हुआ. संकल्प पत्र में ही अनुवाद और छपाई की गलती है. पर यह सब खबर नहीं है. लेकिन एक पूर्व मंत्री के पांच साल के कामकाज का लेखा-जोखा मतदाताओं के बीच बांटने के लिए पुस्तिका के रूप में छपा तो जब्त कर लिया गया क्योंकि बिना अनुमति छपवाया गया है और यह खबर भी है. 

ऐसी हालत में सरकार को मनमानी से रोकने के लिए उस पर दबाव बनाने की जरूरत है. यह आम मतदाताओं की जानकारी में हो. इस तरह सरकार अनैतिक करती दिखेगी तो वह मतदाताओं को नाराज न करने के दबाव में आएगी. पर हमारे यहां हालात यह हैं कि नौकरशाह सरकार की गलती बताएं तो नौकरशाहों का एक वर्ग समर्थन में आ जाता है. यही हाल फिल्म अभिनेताओं और कलाकारों का है. एक वर्ग ने सरकार के खिलाफ अपील की तो दूसरा बड़ा वर्ग सरकार के समर्थन में आ गया. भले ही यह सरकार की अनैतिकता का समर्थन है. 

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसा चलता रहा तो निष्पक्ष चुनाव मुश्किल हो जाएंगे और जिसकी लाठी उसकी भैंस की स्थिति हो जाएगी. सत्तारूढ़ दल अगर अपनी स्थिति का खुलेआम दुरुपयोग करने लगे तो उसे हराना निश्चित रूप से मुश्किल हो जाएगा. इस संदर्भ में कुछ पूर्व सैनिकों ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी और यह चिट्ठी उन्हें सेना का सर्वोच्च कमांडर होने के नाते भी संबोधित थी. इस चिट्ठी पर राष्ट्रपति को कुछ करना नहीं था पर यह सरकार और प्रधानमंत्री पर दबाव बनाने के लिए ही था. इस पत्र की खबर आम तौर पर अखबारों में नहीं छपी. एक अखबार में छपी खबर के मुताबिक इसकी सूचना आधी रात के बाद लीक हुई और उसने खबर छापी. अगले दिन जाहिर है जो चर्चा थी वह इसी संभवतः एक अखबार की खबर के कारण थी पर दिन में 12 बजे के आस-पास ही राष्ट्रपति भवन ने कह दिया कि उसे चिट्ठी नहीं मिली है. 

इसके बाद भाजपा को मौका मिल गया. सोशल मीडिया पर पत्र को फर्जी और कांग्रेस की चाल कहा गया और यह अपने मकसद से अलग तरह का एक बड़ा राजनीतिक मामला बन गया जो निश्चित रूप से बहुत गंभीर और शर्मनाक है. कम से कम आठ पूर्व सेना प्रमुख और कई पूर्व सैनिकों व दिग्गजों ने सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर राष्ट्रपति रामनाथ कोविद को पत्र लिखकर मांग की थी कि सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया जाए कि वे तत्काल सेना और सेना की किसी कार्रवाई का उपयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए न करें. इसपर पूर्व सैनिकों को बदनाम करने की कार्रवाई शुरू हो गई. यह अलग बात है कि सेना के दिग्गजों को बदनाम करने की कोशिश और इसमें जल्दबाजी का उल्टा असर हुआ. 

इस पत्र की चर्चा लगभग खत्म हो गई. कुछ दिन पहले टेलीग्राफ ने जानना चाहा कि चिट्ठी पहुंची क्यों नहीं तो बताया गया जो पत्र प्राप्त हुआ है (डाक से देर से) उसपर दस्तखत नहीं है. जब अखबारों में छप चुका है कि किसने दस्तखत किए हैं और जिनके बारे में छपा कि नहीं किए हैं उनके बारे में भी बताया गया कि उनसे सहमति ली गई गई थी तब यह कहना कि पत्र पर दस्तखत नहीं है - विचित्र है. यही नहीं कल यह खबर भी थी कि इस मामले में झूठी खबर चलाने के लिए पूर्व सैनिकों ने समाचार एजेंसी एएनआई की शिकायत उसकी मूल कंपनी थॉमसन रायटर्स से की है और इस बारे में पूछने पर एएनआई की संपादक ने कहा कि उन्हें कुछ नहीं कहना है.


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