लखनऊ से गोरखपुर तक मोदी ही मोदी !

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लखनऊ से गोरखपुर तक मोदी ही मोदी !

हरिशंकर व्यास 

फैजाबाद में खांटी राजनीतिक जानकार ने कहा- हां मोदी, मोदी हो रहा है मगर लखनऊ से गोरखपुर हाईवे पर . हाईवे किनारे के ठाकुर, बामन, बनिया मोदी, मोदी फेक रहे हैं.चिल्ला रहे हैं.लखनऊ से गोरखपुर हाईवे पर मिलेगा मोदी, मोदी लेकिन गांवों में नहीं.बामन जरूर मदक (अफीम के नशे से) हुए पड़े हैं! वाक्य मन को भा गया और मैं लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, गोरखपुर हाईवे के शहरों पर विचार करने लगा.सचमुच भाजपा उम्मीदवारों की गणित शहरों में बढ़त पर ही टिकी हुई है.शहरों में जीत लिए तो लोकसभा क्षेत्र की देहाती विधानसभा क्षेत्रों के दस तरह के किंतु, परंतु के बावजूद चुनाव जीत लेंगे.नरेंद्र मोदी अपने को कितना ही पिछड़ा, अति पिछड़ा बतलाएं उनका जादू ठाकुर, बामन, बनियों याकि फारवर्डों में ज्यादा है.समाज में अपने को जो अगड़ा बताते हैं, जो पढ़े-लिखे कहते हैं वे मोदी के विश्व नेता होने के किस्से लिए हुए हैं.अगड़े नौजवान हल्ला करते मिलेंगे कि देखिए पहले अमेरिका वीजा नहीं देता था अब मोदी को बुलाने के लिए मरता है.बराक ओबामा उनसे पूछता है और मोदी उसे तू कह कर बुलाता है.मतलब अगड़ों में, ठाकुर, बामन, बनियों में, हाईवे किनारे बैठे शहरी निठल्लों में नरेंद्र मोदी ने ज्ञान की जो गंगा बनवाई है वहीं मोदी, मोदी की पांच साला उपलब्धि है.जीतने का फार्मूला है.


शहर-कस्बों में मूड राजस्थान में जैसा है वैसा उत्तर प्रदेश में भी मिलेगा.फर्क यह है कि राजस्थान में वह कांग्रेस के मुकाबले है, जिसके उम्मीदवार पार्टी के वैसे जुनूनी आधार के बिना हैं, जैसे बसपा के दलित या सपा के यादवों का है.उत्तर प्रदेश में बसपा-सपा-रालोद एलायंस दलित-यादव-मुसलमान सहित मोदी-भाजपा विरोधी का ठोस वोट आधार लिए हुए है और वह मौन होते हुए भी वोट के मामले में दबंग है.


सो, लोकसभा का यह चुनाव मुखर मोदी भक्त बनाम मौन मोदी विरोधी वोटों के बीच है तो साथ में जात समीकरण पर भी है.राजस्थान और उत्तर प्रदेश दोनों में घूमते हुए इसकी फील समान है.हाल में राजस्थान की एक तहसील में घूमा.कस्बे में, दुकान पर बैठे लोगों में, जिनसे बात की उनका मूड अपने आप बता दे रहा था कि मोदी की हवा है.दुकानदार, ब्राह्मण-बनिया, कस्बाई नौजवान सभी के मन में एक सा भाव.फिर मैंने मुख्य रोड़ पर सड़क किनारे जूता पॉलिस, मरम्मत के लिए फुटपाथ पर बैठे मोची के मन टटोले तो उनका मूड वहीं निकला, जिसका अनुमान लगा मैंने बात की थी.मतलब कौन मोदी भक्त है और कौन मोदी को ले कर गांठ बांधे हुए है इसे चेहरों से बूझना मुश्किल नहीं है.


पत्रकार घूमते हुए हाईवे किनारे, शहर-कस्बे में जो फील लेते हैं वह गांव या कस्बे में यादव, दलित, आदिवासी, मुस्लिम टोले या बस्ती से अलग होती है.ऐसा फर्क पहले भी समझ आता था.मैंने चालीस साल की पत्रकारिता में वाजपेयी को यूपी के मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किए जाने वाले चुनाव से लेकर, शाईनिंग इंडिया, मोदी इंडिया के अनुभव में माना हुआ है कि हल्ला बनाने में भाजपा हमेशा अव्वल रही है.लेकिन भाजपा जीती तब है जब लोगों के बीच से हल्ला बना.प्रायोजित नहीं स्वयंस्फूर्त हल्ला.राम मंदिर के बाद वैसा बना था तो 2014 में मनमोहन सरकार से जनता में मोदी को ले कर स्वंयस्फूर्त हल्ला बना था.लेकिन सत्ता में रह कर या मीडिया के नैरेटिव, शोर से भाजपा कभी अपना हल्ला वैसा नहीं बना सकी, जो बाद में चुनाव नतीजों में भी खरा उतरा हो.सन् 2004 भी इसक प्रमाण है. 


सो, 2014 से 2019 के मोदी राज ने जैसा जो अनुभव कराया है उससे मोदी को चाहने वाले जितने लोग बने हैं तो उन्हें नापसंद करने वाली संख्या भी उसी अनुपात में बनी है.वह संख्या मौन है.इनके मौन चेहरों से मोदी विरोध को पढ़ा जा सकता है.झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान के भील, संथाल, मुंडा या मीणा इलाके में आप बात करें या दलित या मुस्लिम चेहरे के भाव पढ़ें तो लगेगा कि ये चेहरे भले बोलते हुए नहीं हैं लेकिन निश्चय किए हुए हैं.इनका निश्चय कई जगह एक और एक ग्यारह की केमिस्ट्री बनाता हुआ है.कई जगह ईसाई आदिवासी और हिंदू आदिवासी एक जैसा सोच रहे हैं तो शहरों में उन बूथ पर मतदान अधिक है, जहां सामाजिक समीकरण में या मुस्लिम-दलित-यादव आबादी घनी है.गांव में मतदान ज्यादा है तो शहरों में कम जबकि शहर में मोदी, मोदी हवा अधिक सुनाई देती है. 


सो, लोगों के पांच साल के अनुभव से पके हुए मन में यह वर्गीकरण मुश्किल नहीं है कि कौन मोदी भक्त है और कौन मोदी विरोधी और कौन एकदम उदासीन.कहने के लिए बात ठीक है कि पुलवामा और बालाकोट ने आतंकवाद का हल्ला बनवाया और मोदी, मोदी हुआ.लेकिन अपना मानना है कि इससे नरेंद्र मोदी और अमित शाह को प्रचार की थीम भर मिली.उनके प्रचार को धार मिली.आंतकवाद के घटनाक्रम की उपयोगिता यहीं है कि यदि वह नहीं होता तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह किस बात पर अपना नैरेटिव बनाते! 28 मार्च से लेकर अब तक नरेंद्र मोदी ने जो बोला और प्रचार किया है उसमें यदि आतंकवाद और मोदीजी की सेना की जुमलेबाजी नहीं होती तो मोदी-शाह के लिए बोलने को था ही क्या ?  लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इस इश्यू से नरेंद्र मोदी के भक्तों की बाढ़ बनी.पुलवामा, बालाकोट व आंतकवाद ने नए वोट नहीं बनाए, बल्कि जो पहले से मोदी को वोट देने वाले थे उनके लिए बोलने, हल्ला बनाने, माहौल बनाने का औचित्य बना.


मतलब पहले जितने मोदी भक्त थे उतने अभी भी है.पहले जो मोदी विरोधी थे वे अब भी हैं.दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर भारत और उत्तर भारत की जमीनी चुनावी लड़ाई में पुलवामा से पहले जो अनुमान था वहीं हकीकत चुनावी अखाड़े में भी दिखलाई दी है.ऐसे ही राजस्थान, मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव के वक्त की हकीकत जस की तस है.तब सुनाई दिया था कि प्रदेश में चेंज होना चाहिए लेकिन दिल्ली के लिए नरेंद्र मोदी को वोट देंगे.इसका अर्थ है कि भाजपा व मोदी के जो वोट पहले बने हुए थे वे अब भी हैं.


हां, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जनसभाओं में वहीं लोग मिलेंगे, जो भाजपा के पूर्व निर्धारित वोटर हैं.ऐसे ही कांग्रेस में भी राहुल गांधी या कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के लिए उम्मीदवार अपने लोगों, पार्टीजनों की भीड़ जुटाते हैं.लोगों को बसों में ढो कर लाया जाता है.जहां जिसकी सरकार है उस पार्टी की जनसभा में सरकारी कर्मचारियों या मनरेगा, आंगनवाड़ी जैसी योजनाओं में काम करने वालों को बुला कर भीड़ बनाई जाती है.


बावजूद इसके भीड़ से पार्टी विशेष के वोट का चरित्र मालूम होता है.जैसे बसपा-सपा की रैली या जनसभा है तो उससे अंदाज लगेगा कि दलित, यादव, मुसलमान कैसा उत्साह लिए हुए है? ऐसे ही नरेंद्र मोदी की सभा में भाजपा के पुराने वोट, नौजवान-नए वोट और मध्य वर्ग की भीड़ से समझ आएगा कि पुराने और नए वोटों का मिक्स कैसा है.प्रबंधन, व्यवस्था में उम्मीदवार कमजोर हैं या मजबूत.


कुल मिला कर मतदाता लगातार एक जैसे मूड में हैं.मूड के साथ मतदान के दिन पक्ष या विपक्ष के जोश और निश्चय का मामला जरूर ऐसा है जो भारी मतदान के आंकड़े में कंफ्यूजन बना देता है कि पलड़ा किसका भारी पड़ेगा.कम मतदान, ज्यादा मतदान और पश्चिम बंगाल जैसे 80 प्रतिशत से भी अधिक मतदान के आंकड़े सचमुच पहेली बना देते हैं कि पक्ष-विपक्ष में किसके वोट जुनून से गिरे.नया इंडिया से साभार

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