के विक्रम राव
हिन्दोस्तां के अधिकांश मुसलमान नरेंद्र मोदी की मुखालफत करते हैं. उनकी पार्टी को वोट नहीं देंगे. सोनिया गांधी के शब्दों में इस “मौत के सौदागर” के आज कई इस्लामी राष्ट्र आश्ना हो गये हैं. इस काफिरे हर्बी के मुरीद हैं. सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, काशी में इन अरबी बुतशिकनों ने शमशीरे इस्लाम की बदौलत सदियों पूर्व अपनी साम्राज्यी फौज की ताकत से निरीह रियाया की आस्था के मूलाधिकार को कुचला था. इन्हीं आक्रमणकारी इलाकों में नरेंद्र मोदी ने आज भारतीयता को सम्मानित कराया. अबू धाबी के युवराज मोहम्मद बिन जायेद की उपस्थिति में अल बाथवा राजमार्ग पर अल रहबा के निकट माहे रमजान (20 फरवरी 2018) में मोदी ने स्वामीनारायण न्यास के मन्दिर को बनवाया.
काबा वाले सऊदी अरब ने योग को मान्यता दे दी. सउदी बादशाह ने इस प्राचीन भारतीय पद्धति को स्वीकारा. मगर भारत के मदरसे योग को नहीं मानते. कारण, मोदी से नफरत . सउदी के बादशाह अब्दुल अजीज, अफगानिस्तान के अमीर और फिलिस्तीन के राष्ट्रपति ने मोदी को अपना उच्चतम राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा. हालांकि मोदी के गुजराती हमराह मोरारजी देसाई को इस्लामी पाकिस्तान के राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान ने निशाने पाकिस्तान से (19 मई 1990) पुरस्कृत किया था. आपसी शत्रु (शिया) ईरान और (सुन्नी) सऊदिया दोनों भारत के मददगार हैं. ईरान ने छाबहार बंदरगाह बनवाया तो रियाद ने एक हजार अरब अमरीकी डालर का भारत में निवेश किया है. उधर यहूदी इस्राइल तथा अरब फिलिस्तीन दोनों मोदी के प्रयासों के कारण भारत का सम्मान करते हैं. तात्पर्य यही कि मूल रूप से इस्लामी मतावलंबियों ने इस दारुल हर्ब के गुजराती प्रधानमन्त्री का आदर किया, पर मतान्तरित हुए भारतीय मुसलमान मोदी को काफ़िर ही माने तो त्रासदपूर्ण विडम्बना होगी.
इस आम चुनाव के परिवेश में इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि मोदी के आलोचकों में काफी बड़ी तादाद में प्रधानमन्त्री के सहधर्मी जन ही हैं. इस अवर्ण नायक के विरोधी कई सवर्ण हैं, किन्तु सिर्फ राजनीतिक तथा अन्य कारणों से, न कि उनकी आस्था की वजह से. इसीलिये जो भारतीय प्रधानमन्त्री का विरोध महज मजहब के आधार पर करेगा वह भारतीय अस्मिता पर आघात करता है. इस दौर में एक चुनावी सूत्र काफी प्रसारित और प्रचारित हो रहा है. मुस्लिम वोटरों को बताया जा रहा है कि “पहले भाई, फिर सपायी और अंत में जो मोदिया को हरायी.” यह सरासर राष्ट्रघातक नारा है. लोकतंत्र-नाशक और विभाजक है.
नीति, नियम, उसूल, रूचि आदि के अलावा किसी अवांछनीय कारण से कोई वोटर ऐसा प्रसार या प्रचार करता है तो वह संविधान के सेक्युलर रूप को विकृत करता है. दण्डनीय अपराध करना है. आश्चर्य तो इस पर होता है कि दानीश्वर, अकीदतमंद, इल्मी आदि लोग भी मजहब के आधार पर, किसी इमाम अथवा मुल्ले के कहने पर बटन दबायेंगे तो फिर हिन्दुओं का बहुमत जो केवल पंथनिरपेक्ष तरीके से मतदान कराता है, वह भी धर्म-प्रेरित तरीका अपनाये तो ? मसलन मायावती, मोहम्मद आजम खान, यादव बंधु आदि मुसलमानों से आग्रह कर चुके हैं कि उन्हें एकमुश्त वोट दो. इसी सिलसिले में जामा मस्जिद के इमाम का फतवा तो आ भी गया. गमनीय है कि हिन्दू किसी भी आस्था केंद्र के निर्देश को नहीं मानता. बहुलता का यह लाभ है.
अतः निर्वाचन कानून में सुधार कर मजहब को प्रचार तथा मतदान का आधार बनाने के विरुद्ध कठोर दण्ड का प्रावधान हो. जैसे, गत सप्ताह नेताओं पर प्रचार के लिए रोक लगायी गई थी.
परिपक्व लोकतंत्र में वोटरों को ऐसी विभाजक वृत्ति से लड़ना होगा. वर्ना याद कीजिये 1946 की वोटिंग जब नब्बे फीसद मुसलमानों ने पाकिस्तान-समर्थक मुस्लिम लीग को वोट दिया था. मगर महज पंद्रह प्रतिशत मुसलमान ही कराची गए थे. तो दुबारा ऐसा नहीं होना चाहिए. दूसरा पाकिस्तान रचने की कोशिश की मुखालफत होगी. भारतीयों को याद रखनी होगी वह गोली जो बापू को चीर गई थी. अब दूसरा जिन्ना नाकाबिले बर्दाश्त होगा.
Copyright @ 2019 All Right Reserved | Powred by eMag Technologies Pvt. Ltd.
Comments