अरुण महेश्वरी
कैमरे के सामने न बोलने वाले वोटर्स ही किसी चमत्कार के कारक बनेंगे. बंगाल में बीजेपी का आना एक अप्राकृतिक घटना है, बलात् प्रवेश है. लोग हतप्रभ हैं और इसे अंदर से अस्वीकार रहे हैं.
चूँकि मीडिया की दिलचस्पी सिर्फ़ तृणमूल और भाजपा के बीच टक्कर में रहती है, इसीलिए अस्वीकार की आवाज़ ने मौन को अपनाया है, मीडिया के सभी रूपों को ख़ारिज करने का निर्णय लिया है. इस मौन से यह निष्कर्ष निकालना कि बंगाली डर के मारे नहीं बोल रहे हैं, बंगाली मानसिकता के बारे में एक पूरी तरह भूल समझ को दर्शायेगा. इस चुनाव में बंगाल की मूल प्रकृति की वापसी, बीजेपी को खोद कर निकाल बाहर करने के ज़रिए होगी. इसीलिए आज तक बंगाल का चुनाव एक पहेली बना हुआ है.
तृणमूल की बढ़त का तर्क है, पर बीजेपी के दूसरे स्थान पर आने की बातों के पीछे यथार्थ से जुड़ा कोई तर्क नहीं है. 2019 के बाद अब तक हुए पाँच राज्यों के चुनाव में बीजेपी को लोकसभा की तुलना में औसतन 16 प्रतिशत कम मत मिले हैं. यही बताता है कि 2019 के चुनाव में बीजेपी की जीत, भारत के जनतंत्र की एक अस्वाभाविक घटना थी.
इसीलिए बंगाल में उसे 18 लोक सभा की सीटें मिलने को भी स्वाभाविक नहीं माना जा सकता है. इस बार के चुनाव से बंगाल यदि अपने स्वाभाविक लय में लौटता है तो तृणमूल के बाद, दूसरे स्थान पर वाम-कांग्रेस काफ़ी ताक़त के साथ आना होगा; अर्थात् प्रतिद्वंद्विता तृणमूल और बीजेपी के बीच नहीं, तृणमूल और वाम के बीच ही होगी.चूँकि अभी मीडिया इसे मानने को तैयार नहीं है, इसीलिए लोग उसके प्रति उदासीन है.
बंगाली अपने मत को ज़ाहिर करने में कहीं से कायर नहीं होता है. स्त्रियाँ भी नहीं!
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