लोकतंत्र का जरूरी पाठ है अठारह मार्च...

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लोकतंत्र का जरूरी पाठ है अठारह मार्च...

बिपेंद्र कुमार  
साल में 365 तारीखें आती हैं और गुजर जाती हैं.कोई भी हर तारीखों को याद नहीं रखता.लेकिन इनमें कुछ तारीखें  तवारीख बनाकर दर्ज हो जाती हैं.लोग इस तारीख को बार-बार याद करते हैं.यह अलग बात है की याद करने का कारण अपने-अपने विवेक के अनुसार अलग-अलग हो सकती है. 

18 मार्च भी एक ऐसी ही तारीख है.साल 1974  का 18 मार्च!  आप मन से करें या बेमन से, भले से करें या बुरे से, लेकिन इस तारीख को याद करने से बच नहीं सकते.बार-बार याद रखना होगा इसी तारीख को बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हुआ था. बाद में जिसे जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व मिला और बिहार आंदोलन के नाम से जाना गया.आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की लाठी खाने वाले, जेल में कांटों और बर्फ की सिल्ली पर. 
सुलाए गए, हजारीबाग जेल की चाहरदिवारी फांद जाने वाले  जयप्रकाश को 72 साल की उम्र में आजाद भारत और उसके बिहार राज्य की पुलिस की लाठी खानी पड़ी.लेकिन 72 साल का यह बूढ़ा माना नहीं.बदलाव के लिए ललकारता रहा , लोग साथ भी होते गए.24 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान से इस बूढ़े शेर ने दहाड़ा तो हड़बड़ाई इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 कीे भोर में पूरे देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया.उसदिन के पहले तक देश की बहुत बड़ी आबादी को आंतरिक आपातकाल  का मतलब भी नहीं मालूम था.कानून जानने वाले भी अनभिज्ञ थे कि संविधान में ऐसा भी कोई प्रावधान है.लेकिन संविधान में इसका प्रावधान था और इसे खोज निकाला था इंदिरा गांधी के कानून मंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने.बहरहाल आपातकाल लगा और अहले सुबह या मध्यरात्रि में ही जयप्रकाश समेत देश के तमाम बड़े विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया.इंदिरा को अपनी पार्टी के अंदर बगावत की बू आई और चंद्रशेखर  जैसे नेताओं के लिए भी जेल का बर्थ एलाॅट हो गया.फिर 1977 में चुनाव हुआ .पूरे हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस की बोहनी भी नहीं हुई.यहां तक कि खुद इंदिरा और उनका बेटा संजय भी चुनाव हार गया.दिल्ली की गद्दी पर पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बैठी.देश की राजनीति का बरगद औंधे मुंह गिर गया.बाद में बिहार समेत कई राज्यों की सरकार भी बदली. बिहार में सत्ता और विपक्ष की कूंजी आज  इसी आंदोलन से निकले . 
लोगों के हाथों में हैं.लेकिन बिहार आंदोलन जिन कारणों से हुआ था, उसका जो लक्ष्य था, उसे सबों ने मिलकर तिजोरी में बंद कर दिया है.उनका नाम लेने से सत्ता फिसलती नजर आने लगती है.निजाम बदल गए लेकिन मुद्दे बरकरार हैं.फिर भी अब उन मुद्दों को याद करने की जहमत भी कोई नहीं उठाना चाहता.ना तो आंदोलन से जुड़ी विभिन्न राजनीतिक पार्टियां इसे जरूरी समझती हैं और ना ही मीडिया इन राजनीतिज्ञों  या जनता को उन चीजों की याद दिलाने की कोई जरूरत महसूस करती है.यही कारण है कि आज 18 मार्च है, यह बिहार की नई पीढ़ी को पता भी नहीं है.... लेकिन जिन्हें  नहीं पता उन्हें अठारह मार्च का मतलब बार-बार याद दिलाते रहने की जरूरत है क्योंकि लोकतंत्र के सामने छाए अंधेरे के सामने  एक दीया है अठारह मार्च ; जनता को अपनी ताकत का एहसास कराने की तारीख है

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