रति सक्सेना
कुछ साल पहले जब महाराष्ट्र में गजब का सूखा पड़ा था तो एक कहानी उभर कर आई थी, महाराष्ट्र के डेंगामल गांव में भगत सिंह नामक एक 66 वर्षीय आदमी की कहानी दुनिया में फैल गई थी, जिसके दो पत्नियां पहले से थीं, बड़ी घर के बच्चे संभालती और छोटी मीलों चल कर पानी लाती.घर में एक ही कमरा, सबके बीच, एक ही छत.फिर छोटी बीमार पड़ गई, पानी नहीं ला सकती थी, बड़ी की उम्र हो गई थी, तो भगतराम ने तीसरी शादी की, जिससे एक पत्नी खाना बनाये, बच्चे देखे, बाकी दो घर भर के लिए पानी लायें.यह स्थिति उस गांव के हर परिवार की थी, जहां पर एक पत्नी रसोई देखती, दूसरी मीलों चल कर पानी ढ़ो कर लाती, उनके पानी लाने की यन्त्रणा सुबह पांच बजे से शुरु होती और शाम ढ़ले चलती रहती.
इस गांव पर न किसी पुलिस ने केस किया, ना छापा मारा, ना घर में लड़ाई झगड़े हुए, क्यों कि यह दोनो तीनों पत्नियों के लिए सुविधा जनक होता कि कोई हाथ बंटाने वाली आ गई.ये परिवार न रईस होते हैं, ना ही यहां पर किसानी का लाभ होता, अधकितर पुरुष कुछ सौ मील दूर मुंबई में मजदूरी करने चले जाते.
यह प्रथा अफ्रीका के की आदीवासियों में आज तक चली आ रही हैं, यहां एक खास बात यह भी है कि अफ्रीकी आदीवासियों की रसोई घर के बाहर होती है, वे रसोई को खास जगह भी नहीं देते.लेकिन भारत में रसोई की स्थिति बहुत काल से बेहतर रही है.मध्यम वर्ग में तो रसोई घर का सबसे पवित्र इलाका था, जिसमें घर की महिला भी नहा धोकर एक वस्त्रा प्रवेश करतीं थीं, चूल्हा रोजाना राख और गोबर , मिट्टी से लीपा जाता था.(बहुत पहले उत्तर भारतीय रसोई में सकरा (अछूत) निकरा (पवित्र ) की परभाषाएँ भी खूब थी, उन दिनों रसोई गोबर से लीपी जाती थी, और चूल्हे को मिट्टी से और चूल्हे को मिट्टी से लीपते थे.
रसोई में एक अलग से चौका होता था,जिसमें घर की कोई एक बहु नहा धोकर लगभग आधी गीली इकहरी सूती धोती पहने कर प्रवेश करती थी.वह पूरा खाना बनाये चौके से निकल नहीं सकती थी, और उन दिनों संयुक्त परिवारों में पूरा खाना बनने में कम से कम चार घण्टे लग जाया करते थे, तो यह काम उस बहु को दिया जाता था, जिसके बच्चे दूध पीते ना हो.
खाने में सबसे पहले निखरा खाना बनता था, जैसे कि पूरी पराँठा, और सब्जी तरकारी, जो घी से बने, यानी कि जिस जिसे बनाने में घी पहले पड़े, वह निखरा यानी कि पवित्र है.
घर के मालिक लोग को निखरा खाना परोसा जाता था, एक बार निखरा खाना बन गया तो वह रसोई के दूसरे हिस्से में स्थांतरित कर दिया जाता था, अब बारी आती थी संकरे खाने की जिसमें दाल, रोटी का नम्बर आता है.मजे की बात, कि रोटी- पराँठे पूरी को छू नहीं सकती थी, नहीं तो पराँठा- पूरी संकरा हो जायेगा फिर फिर त्याज्य हो जायेगा.यानि यह रोटी और पूरी के बीच छूताछुत की बात थी.
संध्या सकरा खाना बनना ही वर्जित था, इसलिए साधारण घरों में स्त्रियाँ बचत को ध्यान में रखते हुए सुबह ही रोटियों का ढेर तैयार कर लेती थी, जिन्हे सारी स्त्रियाँ और बच्चे रात को भी खा लेते थे़ , पुरुषों के लिए शाम को बस पूरी पराँठा ही बनता था.
चौके से निकली स्त्री फिर से संकरी हो जाती थी क्यों कि उसने रोटी बनाई , तो उसे स्नान करना पड़ता था. पनाले में हाथ धोते वक्त फिर यह नियम आन पड़ता , पहले बड़े से पितल के लोटे को कलाई से ढुलकाया जाता, फिर हाथ धोये जाते.फोटो साभार पहाड़ी रसोई .जारी
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