रसोइयों में बड़ी और छोटी बहू की जिम्मेदारी

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रसोइयों में बड़ी और छोटी बहू की जिम्मेदारी

रति सक्सेना  
बड़ी रसोइयों में श्रम का विभाजन सीनियरिटी के अनुसार होता है.जिन दिनों मैं राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रही थीं, हमारी एक सीनियर थीं, जो गोल्ड मैडलिस्ट थी, बड़ी खूबसूरत भी, और अधिकतर नाटकों में  शकुंतला ही बनती थीं,उनकी शादी हुई , जो खासा खाता पीता मारवाड़ी समाज था.उनके पति घर के सबसे छोटे बेटे थे, शादी के बाद वे कभी कभार लाइब्रेरी में दिख जाया करतीं, एक बार पूछने पर रोने लगी, कहने लगीं कि मैं जब मैके आती हूं तो भाग कर लाइब्रेरी आती हूं कि मुझे पीएचडी करने को मिल जाये, हालांकि ससुराल वाले सहन नहीं करेंगे.उनका कहना था कि इन मारवाड़ी समाजों में रसोई सबसे बड़ी बीन्दनी के हाथ में हुआ करता है, लेकिन सबसे छोटी को सिर्फ बासन रगड़ने होते हैं.वह भी राख मिट्टी से पनाले पर बैठे बैठे.कहने लगी कि सुबह चाय का प्याला मुंह में लगाने से पहले पनाले पर बैठ जाती हूँ, बासन रगडती धोती रहती हूँ, बड़ा परिवार है , चाय , नाश्ते से लेकर मर्दों के दूकान जाने तक बासन चलते रहते हैं.दिन में बड़े बर्तन निकलते हैं, उन्हें निपटा कर कमर भी सीधी नहीं कर पाती कि शाम की चाय शुरु हो जाती है. 
पीतल के बर्तनों का रिवाज था, तो चमकाना भी जरूरी थी.वे अपनी खुरदरी हथेली दिखा कर कहने लगीं कि मेरे दोनों हथेलियां फट गई,घाव से हो गये, लेकिन बासन तो घिसना ही है.बाद में पता चला कि उन्होंने विद्रोह किया तो घर से निकाल दिया गया.पति इंजीनियर थे, पत्नी का साथ दिया, लेकिन वे भी सड़क पर आ गये.घर से बेदखल कर दिये गये.उनकीं दो बेटियां हो गईं, सुना कि उनके पति किसी दूकान में मुनीम गिरी करने लगे.तो यह विद्रोह का अंजाम था, इसलिये अधिकतर बहुएं विद्रोह नहीं कर पाती थीं. 
यह समय नौकरी के लिए सूखा काल था, तो पता नहीं पति पत्नी को कितना झेलना पड़ा. 
सबसे छोटी बीन्दनी को बासन से दो मौकों पर छुट्टी मिलती थी, जब कि उसके मैंकें से झोला भर कर सोना आ जाये, या कुछ परिवारों में पढ़ने लिखने वाली को थोड़ी छूट मिल जाया करती थी. 
मैंने खाने के मामले में भी बड़ा मजेदार सीनियरिटी देखी, कानपुर में जब शादी करके आई तो देखा कि मर्दों के खाने के बाद जब खानदान की महिलाएं बौजन किया जाता था तो सीनियरिटी के अनुसार खाना खाया जाता था, जैसे कि घर भर की सबसे बड़ी जेठानी पहले कौरा  तोड़ेगी, फिर दूसरी, तीसरी आदि, यानी कि थाली परोसने के बाद भी नई बहू को इंतजार करना पड़ता था, दूसरा थाली बड़ी बहू ही परोस सकती थी, और वे ही खाने के बीच उठ सकती थी, बाकी बहुए अपनी सीनियरिटी के अनूरूप उठ सकती थीं, और आखिरी में सबसे छोटी बहू उठेगी, क्योंकि उसे ही थाली जूठन उठाना है. 
दरअसल बड़े कुटुम्बों के टूटने का कारण भी घर के काम का अतिशय भार रहा है, जो मैं अपने आस पास आज तक देख रही हूं.कुछ साल पहले की ही बात है, ससुराल की पहचान की एक बहन जी थी, जो माता जी के पास आया करती थी, दो या तीन बेटियां, और एक बेटा.बेटा कुछ मन्द बुद्धि सा था,पागल नहीं, लेकिन पढ़ लिख नहीं पाया, और कुछ असमान्यता तो थी हीं. वैसे बाजार से सौदा सुलुफ कर लेता था, लेकिन न पढ़ लिख पाया , न ही दीमागी काम, जैसे कि दूकान चला ले आदी. पिता ने बेटियों की शादी निपटा दी थी, तो पेंशन से घर चल जाता था. 
एक बार माताजी कानपुर से आई तो खुशी खुशी बोली लो जी, बहन जी के दिन फिर गये, उनके गोपाल की शादी हो गई, चलौ अब बहन जी को रसोई से छुट्टी मिलेगी.बहू अच्छी तरह रसोई संभाल लेती है. मेरी चीख निकलने को हो गई, उस मन्द बुद्धि बालक की? किससे?  
अच्छी सी लड़की है, ग्रेजुएट है, इन्होंने कहा कि हम एक जोड़े में लड़की ले लेंगे, तो बेटी वाले भी खुश,,,, मैं अचम्भित थी, क्या उस लड़की की कोई हसरते नहीं रही होंगी? क्या उसके दिल में रोमांस नहीं जगता होगा? 
मां के पल्लू से बंधा मन्दबुद्धि पुरुष के साथ वह कैसे जी पायेगी.ऐसा नहीं कि मैं अल्प बुद्धि बच्चों के विवाह के विरोध में हूं, लेकिन यह तभी होना चाहिये जब विवाह से पहले प्रेम उपजे, जबरदस्ती नहीं.माता जी बोल रही थी, लड़की होशियार है, खाना पकाना खूब जानती है, बहन जी को आराम मिला़ हां मिलना भी चाहिये, लेकिन क्या एक दूसरी औरत के बलिदान से? तब तक मैं जवाबदेना सीख गई थी, मैंने तिक्तता से कहा, जिस बात की आप खुशियां मना रहीं हैं, मुझे तो दुख हो रहा है. 
खैर अगली बार माताजी ने दबे स्वरों में कहां, लड़की वापिस घर चली गई है, कहती है कि शादी के बाद भी मर्द का सुख नहीं तो अपने पांव पर खडी हो जाऊं, शादी का नाम तो हो ही गया है.  
यानी कि बहुत लम्बे काल तक लड़के की शादी का एक उद्देश्य भी रहा कि सास को रसोई से छुट्टी मिले, कोई दूसरी रसोई चला ले, प्रेम, स्नेह का यहां कोई स्थान ही नहीं रहा.कभी भी मर्दों का काम करना घर की महिलाओं को भी पसन्द नहीं आता था. 
पहली गर्भावस्था के वक्त मेरी असावधानी से सासू जी के लिए चूल्हे पर गरम किया पानी, मेरे अपने पैर पर गिर गया, फफोले हो गये. शाम को मैं जब पांव की जलन के साथ लंगड़ाते हुए खाना लगाने लगी, तो प्रदीप जी ने आकर मदद करनी चाही, सासू जी फुफकार उठीं, मुन्ना , हम मर गये थे क्या जो बीबी के पीछे घूम रहा है, मुन्ना जी डर के दुबक गये.यानी कि पुरुष को मदद नहीं करना है, यह सिखाया जाता है नहीं तो वह बीबी का गुलाम हो गया़. 
स्वर्ग में बैठी सासू जी, आपके मुन्ना अब सारे काम में मेरी मदद करते हैं, कल तो पराँठे भी बढ़िया बनाये, लेकिन उनको सिखाने का क्रेडिट सिर्फ मेरा है, मैंने अपने शिष्य को सिखाने में कोताही नहीं की.यानी कि ग्रेट इन्डियन किचिन की कहानी गांव , शहर सभी जगह फैली है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम कुछ सहायिकाओं पर रसोई का बोझ डाल कर आराम से बैठ जायें, क्यों कि वह सहायिका उस रसोई में दफ्न हो जायेगी.सहायिका रखनी है तो रखिये, उसके साथ काम भी कीजिये, और हो सके तो उसे पढ़ाने की को 
कोशिश भी कीजिये,,,, उसे कुछ अच्छा सिखाइये भी, उसे मुस्कुराना, अंगड़ाई लेना भी सिखाइये, तभी आपका पढ़ना लिखना सफल होगा.साथ ही सब मिलकर घर के काम निपटाने का कल्चर डालिए. 
 

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