रस और रंग दोनों ही याद आते हैं

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रस और रंग दोनों ही याद आते हैं

रति सक्सेना 
मैं अपने बचपन में जब भी होली के बारे में सोचती हूँ तो रस और रंग दोनों ही याद आते हैं, लेकिन एक अन्तर है, रंग तब दो ही होते थे, एक तो टैसू का दूसरा अबीर का , लेकिन रस का क्या कहा जाये , नौ रस के विभीन्न विभाग खिल उठते हैं. 

जी हां तब होली बहुत लम्बी चला चला करती थी, खास तौर होली की रसोई, और होली के बहुत पहले से रसोई सुगन्ध से मदमदाने लगती थी। घरों मे होली पर ताजे पापड़ बनना शुरु हो जाते थे, मूंग के, उड़द के जिनमें कुछ में लहसुन पीस मिलाया जाता तो कुछ में काली मिर्च। ये पापड़ सामान्य पापड़ों से थोड़े अलग होते थे, क्यों कि ये ताजे ही तले जाते थे। ताजे पापड़ बनाने के लिए पूरे कुनबे को जुटना पड़ता था़ , इसका आटअ माणंडनेके लिए विशेषज्ञ की जरूरत होती थी, क्यों कि आटे को पटक पटक कर माण्डा जाता था, बेहद कड़ा माण्डने के बाद कूट कूट कर लचीला बनाया जाता था। यह सब से श्रमसाध्य काम होता था, जब आटा बहुत लचीला हो जाये तो उसकी लम्बी लम्बी लोइयां बना ली जाती थी, जिसे अन्य कोई गुणी जन धअगे से बराबर काट कर इक्कट्ठा करता जाता था, फिर आती थी बेलने की बारी। ताजे पापड़ बेहद महीन बेले जाते थे, बड़ी बूड़ी कहती कि इतना महीन बेलों की पटे का रंग झलकने सा लगे। और फिर आता था मामला तलने का तलने के लिए घर के सबसे अनुभवी सदस्य को अंगीठी पर बैठाया जाता था। कम तेल में अधिक पापड़ तल लेना ही उसकी कुशलता होती थी, ये तले पापड़ महिनों पीपों में रहते, खराब ही नहीं होते। 

होली से कुछ पहले ही गुझियां का कार्यक्रम शुरु होता, तेज हवायें चलने लगती , तो गुझिया देवी के लिए पुराने लिहाफ निकाले जाते, जिनके भीतर वे तलने तक सोया करतीं। गुझियां भी उन दिनों तरह तरह की बना करती थी, खोये की, रवे की, बैर की, मेवा की । मां को बाजार की मैदा पसन्द नहीं थी, इसलिए वे कइ दिनों पहले से आटे को कपड़ छान करना शुरु कर देतीं थीं, चक्की से पिसे आटे का कपड़ छान मैंदा से भी ज्यादा खुबसूरत होता था। 

उन दिनों रिफाइण्ड नहीं होता था, हां डालडा आना शुरु हो गया था, लेकिन गुझियां घी में ही बनती, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सेरो घी झौंक दिया जाता था, जी नहीं, सेर भर घी , सेर भर मैदा, सेर भर खोया और आधा सैर रवा में पीपे की पीपे गुझिया बन जातीं थी। गुझिया का आटा माण्डना भी कला होती थी, मोयन के नाम पर घी नहीं झौंक दिया जाता था़. बल्कि अनुपात से दिया जाता था, जिससे गुझियां ना फूटे, सोडा जैसी चीजों का नामो निशान भी नहीं। खौया को भून कर उसके भराव बनाना भी कला थी, क्यों कि वह भुरभुरा बन जाना चाहिये । रवा की गुझियों के लिए रवा को सुनहरा भून कर चीनी मिला कर  नारियल चिरौंजी डाल रख दिया जाता। फिर गुझिया के आटै को बड़ी होशीयारी से बेला जाता, सबके काम बँट जाते, बेलने वाला बेल बेल कर रखता जाता, भरने वाला हाथ को दोना सा बना कर भरता, कटाने वाला उसे शेप देता रहता, गुझियां लिहाफ में जा कर विश्राम करती, फिर आती बड़ बहूं, यानी सबसे कुशल जनी, जो अंगीठी पर कढ़ाई रख इस खूबसूरती से गुझोया तलती कि सेर भर घी में पीपे दो पीपे गुझिया निकल आतीं.

गुझिया ना लाल हो ना सफेद , बस गुलाबी सी ना खसखसी हों, ना कड़क, एक कसी त्वचा लिये हुए.कुछ जनीं, लगे हाथों चन्द्र कला भी बना लेती, और फिर बनते खेल खिलौने, यानी कि नमकीन करैले, जो एक लम्बा नमकीन का ही नाम था, गिलफियां, जो खुबसूरत से फूल हुआ करते थे, और भी ना जाने क्या क्या तमाशे होते.
गुड़ के सेब होली की विशेषता होते थे, जिन्हें माँ अकेले बनाती थीं, क्यों कि गुड़ की चासनी का झंझट हुआ करता था.मोटे मोटे सेव चलनी से गिरा कर फिर उन्हें गुड़ में पागना जहीन कला थी.होली से पहले दिन बना करते बड़े, जिन्हें पहले दहीं में डाला जाता, बाद में कांजी में डअला जाता। होली के वक्त गाजर चुकुन्दर की कांजी बहुत चलती थी 

होली पर आस पड़ोस के घरों में मिठाई की तश्तरी भेजी जाती थी बदलें में वहां से भी आती। दूर दराज के रिश्तेदार होली पर जरूर आते. दिनों दिनों आने जाने का रेला मचा रहता, और हर आने वाले के सामने थाली भर पक्वान रखे जाते, जिन्हे वह छूकर ही छोड़ देता, क्यों कि तब तक वह खा खा कर अघा गया होगा.दिन में मां की कृष्ण लीलाएं चला करती थीं, जिनका आयोजन दुपहरी के वक्त आस पड़ोस की महिलाओं के साथ होता था़ उन दिनों महिलाओं के साथ बैठने का मतलब ढ़ोलक हारमोनियम लेकर कम से कम पांच घित गाना तो होता ही था, लेकिन एक बार फागुनी गीत की बहार चली नहीं कि बन्द ही नहीं होती थी, उससे भी मन नहीं भरता तो महिलाएं घर के नन्हे मुन्नों को राधा कृष्ण बना कर सजा कर खड़ा कर देती और फिर ढ़ोलक पर धमाल करती थी.होली में रंग था, रस था उल्लास था. 
 

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