लातेहार यात्रा- 2 झारखंड में आय बिराजे वृंदावन के वासी!

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लातेहार यात्रा- 2 झारखंड में आय बिराजे वृंदावन के वासी!

शंभूनाथ शुक्ल  
साढ़े आठ पर नींद खुली. उठा और खिड़की के पर्दे खोले, बाहर सड़क पर खूब चहल-पहल थी. फटाफट तैयार हुआ. अतिथि गृह के कुक को आते ही अजय श्रीवास्तव द्वारा लाया गया डिनर दे दिया गया था. पूरी और मटर पनीर की सब्ज़ी थी. उसी को गर्म क़राया गया और नाश्ता हो गया. चमचम का एक पीस भी खाया. तब तक ड्राइवर विजय भी आ गया था. साढ़े 9 बजे हम घूमने को रेडी थे. उसी समय ज़िले के जन सम्पर्क अधिकारी (DPRO) आ गए और बताया, कि सर डीसी साहब ने 11 बजे आप लोगों को ऑफ़िस बुलाया है. तब तक आपको शहर का एक चक्कर लगा आ जाए. अधिकारी महोदय युवा और ख़ूब उत्साही थे. उन्होंने भोपाल से लॉ की डिग्री ली थी और झारखंड प्रदेश सूचना सेवा के पहले ही प्रयास में सेलेक्ट हो गए.  
वे पहले तो अपने ऑफ़िस ले गए. यह विभाग ज़िले के डीसी द्वारा पर्यटन को बढ़ावा देने के मक़सद से चलाए गए अभियान का भी प्रमुख है. इन सब लोगों ने शहर के बाहर बने एक बाँध को देखने का प्रस्ताव रखा. छोटा-सा शहर है लातेहार, हम दस मिनट में वहाँ पहुँच गए. यह एक तालाब जैसा डैम था. चारों तरफ़ जंगल और उनसे कुछ दूरी पर पहाड़ियाँ. यहाँ ताड़ के पेड़ खूब थे. ड्राइवर ने बताया कि सुबह इन पेड़ों से स्थानीय आदिवासी ताड़ी निकालते हैं. अनिल जी ने बताया कि सुबह ताड़ी पीने से पेट ठीक रहता है. तय हुआ कि कल से सुबह ताड़ी पी जाए. DPRO ने कहा कि सर DC साहब के यहाँ चलना है. हम लोग वहाँ से चल दिए.  
लातेहार ज़िला झारखंड बनने के बाद 2001 में पलामू से कुछ भू-भाग काट कर बनाया गया है. ज़िला मुख्यालय तो बहुत छोटा है, किंतु इसका विस्तार बहुत है. कलेक्ट्रेट या ज़िला समाहर्ता कार्यालय एक छोटी किंतु शानदार बिल्डिंग में है. दूसरे माले पर DC साहब बैठते हैं. हमारे पहुँचते ही उनके पीए ने हमारे आने की खबर दी. तत्काल हमें एक शानदार और विशाल कक्ष में ले ज़ाया गया. एक बड़ी सी मेज़ के उस तरफ़ DC श्री अबू इमरान विराजे थे. उन्होंने हमारा स्वागत किया और बोले, आइए. हमारे साथ आए सभी लोगों को बाहर भेज दिया गया. फिर उन्होंने कहा, कि आप लोग यहाँ किसी के कहने में नहीं आएँ और न जाएँ. आपके घूमने का प्लान मैं बना देता हूँ. मैंने कहा, कि लातेहार आने के पूर्व मैं इस इलाक़े की पूरी स्टडी कर आया हूँ. हमरी मुख्य रुचि पलामू का क़िला, मैक्लुस्की गंज और नेतरहाट जाने की है. उन्होंने कहा, ज़रूर! लेकिन मैं चाहूँगा कि आप यहाँ का सबसे ऊँचा प्रपात लोध फाल देखने भी जाएँ. उन्होंने एक चार्ट बनाया कि यहाँ से निकल कर हम कहाँ-कहाँ जाएँगे, कहाँ रुक सकते हैं.  
इस रूट मैप के अनुसार यहाँ से निकल कर हम बैतला टाइगर रिज़र्व जाने वाले थे. इस रिज़र्व में ही हमारे रुकने और भोजन की व्यवस्था थी. वहाँ से अगले रोज़ हम वाया महुआटाँड लोध फाल जाएँगे. लंच के बाद हम नेतरहाट के लिए निकलेंगे. वहाँ पर एक रात रुक कर अगले रोज़ लातेहार. रात लातेहार रुकेंगे और फिर लातेहार से हम मैक्लुस्की गंज जाएँगे. एक रात मैक्लुस्की गंज रुकेंगे और सुबह लातेहार आ जाएँगे. यहीं से रात 11 बजे हमारी दिल्ली वापसी की ट्रेन 08309 थी.  
यह सफ़र रोमांचित कर देने वाला था. हम झारखंड के अबूझ जंगलों से गुज़रने वाले थे और इस जंगल में ही हमें रहना था. क़रीब 12 बजे हम लातेहार से अपना सामान लदवा कर निकले. बेतला रिज़र्व वहाँ से 64 किमी था और सड़क बहुत अच्छी नहीं थी. लेकिन ट्रैफ़िक कम था. सड़क के दोनों किनारों पर दूर-दूर तक बंजर ज़मीन थी. बीच-बीच में चर्च, अस्पताल और कॉलेज थे. जवाहर लाल नेहरू महाविद्यालय की बिल्डिंग शानदार थी. डेढ़ घंटे तक यूँ ही चलने के बाद हम बाएँ मुड़ गए. अब जंगली इलाक़ा था. सड़क के दोनों तरफ़ साल, सखुआ, महुआ के पेड़. ढाक के पत्तों से जंगल आच्छादित था. महुआ के फूलों की गंध खूब आ रही थी. क़रीब 15 मिनट बाद हम बेतला टाइगर रिज़र्व के गेट पर थे. हम वन विभाग के टूरिस्ट गेस्ट हाउस में रुके. भोजन के बाद हम पलामू का क़िला देखने के लिए निकल पड़े. कुछ देर बाद हम वहाँ से पाँच किमी दूर पलामू के क़िले पर पहुँच गए. सघन वन-प्रांतर में स्थित यह क़िला 16 वीं शताब्दी का था. किसने बनाया, यह तो वहाँ उत्कीर्ण नहीं था. पर लोक मान्यता के अनुसार यह क़िला राजा मेदिनी राय के पूर्वज चोर राजाओं का था. इतिहास यह भी कहता है कि अकबर के सेनापति राजा मान सिंह ने यह इलाक़ा जीता था और अपने कुछ सिपाहसालार यहाँ छोड़ दिए थे, ताकि वे यहाँ की व्यवस्था करें और लगान बादशाह के दरबार में भेजें. ये राजपूत राजा और उनके सिपाही यहाँ बस तो गए लेकिन शादी-विवाह कहाँ करें? राजपूताने से तो कोई अपनी बेटी ब्याहने काले कोसों की दूरी पर आने से रहा. इसलिए उन्होंने स्थानीय आदिवासी युवतियों से विवाह रचाये और इस तरह वंश-बेलि आगे बढ़ी. किंतु राजपूताने के राजपूतों ने इन मिक्स राजपूतों से इनके कुल-गोत्र और पुरोहित पूछे तो ये बता नहीं पाते. इसलिए इन्हें राजपूताने के राजपूतों ने अपने कुल से निकाल दिया. इस तरह ये क्षत्रियत्त्व से वंचित हो गए. लेकिन इनके पास धन-सम्पदा की कमी नहीं थी.  
1764 में बक्सर की लड़ाई हारने के बाद बादशाह शाहआलम और अवध के नवाब दोनों कमजोर पड़े. ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार ने राजस्व उगाही के लिए स्थायी बंदोबस्त प्रणाली के तहत इन्हीं क्षत्रिय-आदिवासी राजाओं को जमींदारी दे दी. बस ये महाराजा की विरूद धारण नहीं कर सकते थे. इन्हें सलामी से भी वंचित रखा गया. मगर इनके पास पैसा अपार था. तब अपने को राजपूताने के क्षत्रियों जैसा रुतबा पाने के लिए इन लोगों के अंदर क्षत्रिय कुल-गोत्र और पुरोहित पाने की इच्छा जगी. उस वक्त काम आए जगन्नाथ पुरी के गणपति गौड़ेश्वर महाराजा. दरअसल झारखंड के ईष्ट देव थे झारखंडे बाबा उर्फ़ श्री जगन्नाथ स्वामी-  
गोकुल छोड़ा, मथुरा छोड़ी, छोड़ दियो जब काशी. 
झारखंड में आय बिराजे वृंदावन के वासी..  
जगन्नाथ पुरी के महाराजा ने 11 उत्कल ब्राह्मण अपने देश से इन राजाओं के पास भेजे. इन उत्कल पुरोहितों ने इनकी शादियाँ तब उत्तम कुलों के क्षत्रियों के यहाँ करवाईं. ये 11 उत्कल ब्राह्मण थे मिश्र, त्रिपाठी, पाठक, जोशी, पांड़े, भट्ट आदि. सीबीआई के पूर्व निदेशक डॉ. त्रिनाथ मिश्र, जस्टिस रंगनाथ मिश्र आदि इन्हीं उत्कल ब्राह्मणों में से थे. डॉ. त्रिनाथ मिश्र ने अपनी पुस्तक 'नेतरहाट और जीवन' में इन उत्कल ब्राह्मणों का ऐसा ही वर्णन किया है. फोटो नेतरहाट की साभार

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