काकोर क़स्बे से आया 'काकोरी कबाब'

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काकोर क़स्बे से आया 'काकोरी कबाब'

डा शारिक़ अहमद ख़ान 
सदियों पहले एक पासी राजा थे बाल,दूसरे थे डाल और तीसरे थे काकोर.तीनों भाई थे,काकोर के नाम से काकोरी क़स्बा बसा है जो लखनऊ के पास है,यहीं मशहूर काकोरी कांड आज़ादी की जंग के दौरान हुआ था.इसी काकोर क़स्बे से चलन में आया 'काकोरी कबाब' जो अब अपना एक ख़ास मकाम रखता है और लखनऊ के काकोरी कबाब दूर-दूर तक मशहूर हैं.काकोरी कबाब तो लखनऊ में बहुत बनते हैं और हम अपने घर पर भी बनवाते हैं,लेकिन जो लज़्ज़त लखनऊ के चौक के 'बॉस' काकोरी सींक कबाब में है वो कहीं और नहीं मिली.आज बॉस के यहाँ जाना हुआ,बॉस काकोरी सींक कबाब कम वक़्त में ही अपनी लज़्ज़त की वजह से मशहूर हो गया है. 
एक बार हम इनके यहाँ पहले भी गए थे लेकिन आज 'बॉस' के मालिक और बेहद ख़ुशदिल शख़्स क़रीब सत्तर वर्ष के अली मियाँ मिल गए.पहली ही मुलाक़ात में हमें देखकर बहुत ख़ुश हुए और अपने कबाबों से ख़ूब ख़ातिर इन्होंने की,कहने लगे कि हमारे कबाब के ग्राहक तो बहुत आते हैं लेकिन आप जैसा शौक़ीन कोई नहीं आया,आप अब जब कभी भी आएं तो हमें एक घंटे पहले फ़ोन कर दें,हम ख़ासतौर से आपके लिए इससे भी अच्छे ख़ास काकोरी कबाब बनाएंगे.ये सब सुन हम भी ख़ुश हुए.फिर हमने पूछा कि आपकी दुकान की काेकोरी कबाब की सौ साल पुरानी रेसिपी का क्या रहस्य है.अब अली मियाँ ने बताया कि उनके परदादा काकोरी क़स्बे के पास के एक गाँव के रहने वाले थे और रईस मुस्लिम ज़मींदार थे,मेरे दादा रेलवे में अफ़सर थे,मेरे वालिद लखनऊ नगर निगम थे और मैं भी लखनऊ नगर निगम में टैक्स इंस्पेक्टर की पोस्ट से रिटायर हुआ हूँ. 
जब मेरे वालिद का इंतेकाल हुआ तो उनका बक्सा खुला,उसमें एक काग़ज़ पर उर्दू में कुछ लिखा था,मुझे उर्दू आती नहीं,बचपन में पढ़ाई में मन कम लगता,इंग्लिश स्कूल से पढ़ा,उर्दू सीखी नहीं,फिर घर से भाग गया बॉम्बे.वहीं आगे की पढ़ाई की.वापस आया तो वालिद ने नगर निगम में नौकरी दिलवा दी,तो जनाब उर्दू मैं जानता नहीं था.जब पर्चा उर्दू में निकला तो उर्दू के जानकार से पढ़वाया,वो मुश्किल उर्दू में था,माहिरों ने फिर पढ़ा,पता चला कि ये मेरे दादा के हाथ का लिखा है और काकोरी कबाब बनाने का पुराने ज़माने का असली नुस्ख़ा है.जब मैं रिटायर हुआ तो मैंने सोचा कि लाओ वक़्त भी कटेगा,पैसे भी मिलेंगे,अपने ख़ानदानी नुस्ख़े पर काकोरी कबाब की दुकान खोली जाए.दुकान खोली,मेरे बनाए काकोरी कबाब लोगों को पसंद आए,एक ही बरस में दुकान चल निकली,वजह कि मैं ऐसा नहीं करता कि नमक और मिर्च बढ़ाकर काकोरी कबाब को तीखा कर दूँ और काकोरी कबाब की लज़्ज़त उसमें ना रहे,बल्कि मैं काकोरी कबाब के पुराने नुस्ख़े से उन्हें बनाता हूँ जो नायाब है,हमारा ख़ानदानी है,निजी है और किसी को हम बताते नहीं,मेरे दोनों बेटे इंजीनियर हैं,वो इस काम में आएंगे नहीं,लिहाज़ा जब तक हम हैं आपको मेरे हाथ के ये ख़ालिस काकोरी कबाब मिलेंगे,मुझ पर ही इनका ख़ात्मा हो जाएगा.हाँ,एक बात है कि मेरे बनाए कबाब पेट भरने के लिए नहीं होते,बस ज़ायक़ा बदलने के लिए होते हैं.जनाब मैं तो आपसे मिलकर इतना ख़ुश हुआ कि आप अगर कहेंगे तो मैं बिना किसी बड़े ऑर्डर के भी आपके घर आकर यही काकोरी कबाब बना दिया करूँगा.साभार 

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