नवनीश कुमार
सहारनपुर.प्रेसमड कंट्रोल एक्ट के खत्म कर दिये जाने से चीनी मिलों की मैली आ किसान के खेतों की बजाय भट्टों पर इंटें पकाने के लिए इंधन के रूप में काम आ रही है जिससे जमीनों की उर्वरा शक्ति बनाये रखने वाला जीवांश लगातार तेजी से घटता जा रहा है। पहले दलहनी फसलों, हरी खाद व चारे आदि को भी उगाया जाता था जो जमीन की जरूरी उर्वरा शक्ति को बनाये रखता था। साथ ही इस जीवांश को
बचाये रखने के लिए ही चीनी मिलों से निकलने वाली मैली को भी किसान को अपने खेतों में डालने के लिए दे दिया जाता था। इसके लिए बकायदा प्रेसमड कंट्रोंल एक्ट बनाया गया था जिसके अनुसार, अगर किसान मैली को नहीं उठा रहा है तो वह ऐसे व्यक्ति को दी जाये जो उससे जैविक खाद बना सके। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गन्ना बल्ट में ज्यादातर एकल फसली गेंहू, धान व गन्ने की ही फसलें उगाई जाती है। फसलों के इस मोनो कल्चर व रसायनिक खादों से होने वाले नुकसान से आज जा जमीन के जीवांश खतरे में पडता जा रहा है और मैली को र्इंट भट्ठों ने खरीदना शुरू कर दिया है तो करोडों के वारे-न्यारे के फेर में मिलों ने मैली का कानून ही खत्म करवा लिया है। दूसरी ओर इस मैली से पकाये जाने वाली र्इंटें भी इनसे बने भवनों के लिए खतरे की घंटी ही है। देखने में तो ये कोयले से पकी इंटों से भी लाल होती है लेकिन मानकों के अनुसार मजाूत नहीं होती है।
बता दें कि दलहनी फसलों, हरी खाद व चारे आदि की फसलों के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति अपने आप ही बढ जाती थी लेकिन आज जा रसायनिक खादों की ादौलत जमीन की उर्वरा शक्ति ही खतरे में आती जा रही है और कम होते जीवांश के कारणों से खेतों की उत्पादन क्षमता में भी लगातार कमी दर्ज की जा रही है तो सरकार ने भी किसानों की जरूरत ाना यह कानून समाप्त कर दिया है। चीनी मिलों की मैली से बने खाद से जमीनों की उर्वरा शक्ति तेजी से बढती थी। जा जरूरत नहीं थी तो यह मैली किसानों को जारन तक उठवाई जाती थी लेकिन आज जा पूरा पश्चिमी उत्तरप्रदेश रसायनिक व नकली खादों की मंडी ान गया है और खेती तााही के कगार पर जा पहुंची है तो 1959 से 2006 तक चले इस कानून की पुन: जरूरत महसूस हों रही है। जा यह मैली मिलों के लिए सिरदर्द थी तो मिलों ने अपनी जमीन मैली से खाली कराने के लिए कानून का सहारा लिया लेकिन आज जा ये मैली करोडों का धंधा ान गई मुनाफाखोरी के चक्कर में जमीनों की पैदावार ाढाने की शक्ति को ही दांव पर लगा दिया गया है। असल कहानी कुछ और ही है। फारमर्स फोरम के अध्यक्ष योगेश दहिया ाताते है कि प्रेसमड यानि मैली में 14-15 फीसद मोम होता है तथा 1-2 फीसद शीरा होता है जिससे यह जलता बहुत अच्छा है। एक कुंतल गन्ने से 3-4 फीसद तक मैली निकलती है। 10 हजार टीसीडी की एक मिल प्रतिदिन यदि एक लाख टन गन्ना पेरती है तो 4 हजार कुंतल मैली निकालती है जो प्रतिदिन 3-4 लाख रूपयें तक में बिक रही है।
सरकार एक ओर तो जैविक व कंपोस्ट खादों को ाढावा देने का ढिंढौरा पीट रही है वहीं दूसरी ओर उर्वरा शक्ति ाढाने का सासे अच्छा स्रोत मैली को इंट भटठों पर जलवाकर पर्यावरण से खिलवाड के साथ ही घटिया इंटों के निर्माण का रास्ता साफ कर रही है। भूकंप की दूष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील उत्तराखंड व पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ही मैली से पकी इन घटिया इंटों की सप्लाई की जा रही है जो दोहरे खतरे को इंगित कर रही है।