राजकुमार सोनी
इमाम साहब यानि एके हंगल साहब पर लेख जैसा कुछ मैंने तब लिखा था जब वे जीवित तो थे लेकिन बीमार चल रहे थे.
खबर आई है कि शोले के इमाम साहब की हालात खराब है। इमाम साहब ने कई फिल्मों में यादगार भूमिका निभाई है. मैंने तो उन्हें आखिरी बार आमिर खान की फिल्म लगान में देखा था। उसके बाद उनकी कोई और फिल्म आई हो मुझे इसकी जानकारी नहीं है. ऐसा नहीं है कि मैं फिल्में कम देखता हूं लेकिन यह तो मैं जानता ही हूं कि जब ईमानदार कलाकार बूढ़े हो जाते हैं तो समाज से बेदखल कर दिए जाते हैं. अलबेला वाले भगवान दादा को लीजिए. पिज्जा खाने वाली पीढ़ी शायद भगवान दादा को नहीं जानती सो उनकी सहूलियत के लिए बता देता हूं कि भगवान दादा के एक डांस स्टेप की नकल सदी के महानायक अभिताभ बच्चन भी करते रहे हैं. भगवान दादा की अलबेला को देखने के बाद अभिताभ की किसी भी फिल्म को देख लीजिएगा, समझ में आ जाएगा शायद मैं गलत नहीं कह रहा हूं.
तो मैं बात कर रहा था इमाम साहब की. इमाम साहब यानी एके हंगल की. इमाम साहब मुबंई में कहीं किराए के एक कमरे में अपने 75 वर्षीय बेटे के साथ रहते हैं और इन दिनों बीमार है. जब यह खबर अखबारों में छपी तो मुझे इस बात के लिए आश्चर्य हुआ कि इमाम साहब अपने उस बेटे के साथ रहते हैं जो खुद भी बूढ़ा है. खबर छपने के बाद से ही मैं ही इस सोच में डूबा हूं कि आखिर दो बूढ़े एक कमरे में क्या बातें करते होंगे. मैंने बूढ़े मां-बाप को जवान बेटे या बेटियों को डांटते-डपटते, सलाह देते हुए तो कई बार देखा व सुना है, लेकिन दो ऐसे बूढ़ों को बात करते कभी नहीं देखा जिसमें से एक पिता है और दूसरा उसका बेटा.
मैं इमाम साहब यानी एके हंगल से एक मर्तबा भोपाल में मिल चुका हूं. मिला क्या हूं उनसे लंबा इंटरव्यूह करने का सौभाग्य हासिल कर चुका हूं. यह तो हर कोई जानता है कि भोपाल में कौमी एकता को मजबूत बनाए ऱखने के लिए सैकड़ो संस्थाएं कार्यरत है. हर संस्थाएं तिरंगे झंडे का इस्तेमाल करते हुए सरकार और उद्योगपतियों से चंदा वसूलने में लगी रहती है. ऐसे ही किसी एक कार्यक्रम में गलती से पहुंच गया था मैं. दरअसल उन दिनों में मैं एक पाक्षिक पत्रिका समाचार लोक को देख रहा था. तब छत्तीसगढ़ नहीं बना था फलस्वरूप मुझे कभी मंदसौर कभी नीमच और इंदौर की यात्रा करनी पड़ती थी. एक रोज जब मैंने अपने परिचित रमेश अनुपमजी को बताया कि भोपाल जा रहा हूं तो उन्होंने भी खुशी-खुशी यह जानकारी दी कि वे भी कौमी एकता को मजबूत करने वाले एक कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए भोपाल जा रहे हैं. बस वही मेरी मुलाकात हंगल साहब से हुई थी. प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित किए गए इस आयोजन में पूजा भट्ट के खुजली वाले पिता महेश भट्ट भी मौजूद थे. भट्ट साहब को खुजली वाला इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि एक तो वास्तव में उनको खुजा-खुजाकर बात करने की आदत है और दूसरी उन्हें विदेशी फिल्मों से आइडिया चोरी करने की बीमारी ने भी घेर रखा है. भट्ट साहब ने उन दिनों अजय देवगन को लेकर जख्म नामक फिल्म बनाई थी सो उनका भाषण फिल्म के प्रमोशन पर ही केद्रित था.
इसी कार्यक्रम में हंगल साहब ने मुझे दुखी होकर बताया था कि किस तरह से वे फिल्म उद्योग के द्वारा किनारे कर दिए गए हैं. सच तो यह है कि हंगल साहब अपनी जवानी के दिनों में बूढ़े और लाचार आदमी का किरदार करते रहे. फिल्म निर्माता उन्हें हर फिल्म में बंड़ी और धोती में दिखाता रहा है. यदि मैं गलत नहीं हूं तो प्रकाश मेहरा की फिल्म खून-पसीना में हंगलजी ने पूडि़यों को चोरी करने वाले एक गरीब आदमी की भूमिका निभाई थी. फिल्म में गांव की पंगत में बैठकर जब सब लोग खाना खा रहे होते हैं तभी अचानक किसी की घड़ी चोरी चली जाती है. पंगत में बैठे हुए सब लोग अपनी जांच-पड़ताल के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन हंगलजी तलाशी देने से इंकार कर देते हैं, जब सारे लोग उन्हें चोर साबित करने में तुल जाते हैं तो वे अपनी जेब से पूड़ी निकालकर रख देते हैं. पूडि़यों की चोरी उन्होंने अपने परिवार का पेट भरने के लिए की थी. इस फिल्म में हंगल के द्वारा अभिनीत इस दृश्य को देखकर मैं रो पड़ा था. इसी तरह यश चोपड़ा की फिल्म दीवार का दृश्य याद करिए. शशिकपूर चोरी करके भाग रहे एक आदमी पर गोली चलाते हैं. जब वे पास जाते हैं तो पता चलता है कि आदमी रोटी लेकर भाग रहा था. खाने का सामान लेकर जब शशिकपूर हंगल साहब के घर जाते हैं तो वहां का दृश्य आपकी आंखे भिगो देता है. यहां पूरा दृश्य यह बताता है कि पुलिस यानि व्यवस्था की गोली का शिकार कोई गरीब आदमी ही होता है जिसकी जरूरत रोटी है. जिनके पेट भरे हुए होते हैं वे पुलिस के निशाने पर नहीं होते. इस दृश्य में श्री हंगलजी ने जान डाल दी थी. दुर्भाग्य की बात है कि एकाध फिल्म शौकीन को छोड़ दे तो हंगलजी को हमेशा दरिद्र, लाचार, बीमार और मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लायक ही समझा गया. खैर इसमें उनका दोष नहीं है. उन्हें गरीब किरदारों के लायक समझा गया तो उन्होंने उसे बखूबी निभाया और जमकर निभाया. कोई बनकर तो बताए उनके जैसा लाचार बूढ़ा.
वैसे फिल्मी दुनिया का रिवाज है कि जब कोई बड़ा आदमी किसी भिखारी का रोल करता है तो उसे मुंहमांगी कीमत दी जाती है लेकिन जब कोई गरीब आदमी वास्तव में गरीब बनता है तो उसके कटोरे में उतने ही पैसे डाले जाते हैं जितने भिखारियों के कटोरे में डाले जाते हैं. छत्तीसगढ़ के कलाकार नत्था को ले लें. पीपली लाइव के हिट हो जाने के बाद भी नत्था को ढंग से फिल्में नहीं मिल रही है. एक छत्तीसगढ़ी फिल्म किस्मत का खेल में नत्था को एक हजार रुपए प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान किया गया. गरीब और लाचार आदमी की भूमिका को पर्दे पर जीवंत कर देने वाले हंगल साहब को समाज ने अपनी मदद के लायक ही नहीं समझा है. और तो और प्रगतिशील लेखक संघ तो घोषित तौर पर श्री हंगल को अपनी कौम का मानता है. अपनी कौम के आदमी के लिए भी संघ की तरफ से मदद की कोई अपील जारी नहीं हुई. इस संघ से जुड़े लेखकों ने उन पर कोई आर्टिकल भी नहीं लिखा. सबको शायद उनके लुढ़कने का इन्तजार है. जैसे ही वे इस दुनिया से विदा लेंगे तब कवि जागृत हो जाएंगे और कविता लिखेंगे- हंगल/ एन्टीना और एन्टीना पर टंगी गरीबी. अखबार वालों को रविवारीय पेज के लिए मसाला मिल जाएगा और टीवी वालों को दिनभर का पुल पैकेज कार्यक्रम. हालांकि इस बीच कई नामी हस्तियों के द्वारा मदद दिए जाने की खबरें भी प्रचारित हुई है लेकिन यह भी पता चला है कि यह भी सिर्फ प्रचार ही है.ईश्वर न करें कि हंगलजी को कुछ हो लेकिन मेरा यकीन इस संवेदनहीन समाज से धीरे-धीरे उठता जा रहा है. दोस्तों... रात हो चुकी है. अभी-अभी हर महीने दस रुपए ले जाने वाले नेपाली चौकीदार ने घर के बाहर डंडे को पटकते हुए आवाज लगाई है- जागते रहो.... जागते रहो..... मैं तो जाग रहा हूं लेकिन देख रहा हूं कि सन्नाटा पसरा हुआ है. इस पसरे हुए सन्नाटे के बीच ही सुबह के पांच बज जाते हैं. एक मस्जिद से अजान की आवाज आने लगती है. इस अजान में ही मैं कहीं यह भी सुनता हूं- इतना सन्नाटा क्यों है भाई।