राजकुमार शर्मा
ब्रह्माण्ड के पावनतम् धामों में श्री बदरीनाथ धाम स्वंय भगवान विष्णु एंव नारदादि श्रेष्ठ से यह धाम सेवित है। इसी कारण जगन्नियंता की सृष्टिमेंबदरिकाश्रम को अष्टम् बैकुंण्ठ के रूप् में जाना जाता है।चारों युगों में चार धामों की स्थापना का उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है।सतयुग का पावन धाम बदरीनाथ धाम,त्रेता का रामेवरम्जिसकी स्थापना भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम चन्द्र जी ने किया।द्बापर का द्बारिका एंव कलयुग में जगन्नाथ धाम की महत्ता है।पावन बदरीनाथ धाम में सतयुग के प्रारम्भ में जगत कल्याण की कामना से भगवान श्री प्रत्यक्ष रूप् से मूर्तिमान होकर यहां स्वंय तप किया करते थे। सतयुग में भगवान श्री के प्रत्यक्ष र्दान से यह पावन धाम मुक्तिप्रदा के नाम से विख्यात हुआ।त्रेता में योगाभ्यास रत रह कर कुछ काल में भगवान के र्दानों का लाभ होने से इस धाम को योगिसिद्घदा नाम से जाना गया। द्बापर में भगवानश्री के प्रत्यक्ष दा्रनों की आमें बहुजन संकुल होने के नाते विााला के नाम से जाना गया। कलियुग में इस धाम को पावन बदरीकाश्रम बदरीनाथ अदि नामों से विख्यात हैं। बौद्घधर्म के हीनयन-महायान समुदायों के पारस्परिक संर्घष ने बदरिकाश्रम को भी अपने प्रवाह में ग्रस्त किया। आक्रमण एंव विनाा की आांका से भगवान की प्रतिमा की रक्षा में असमर्थ पुजारीगणों ने भगवान श्री की मूर्ति को नारद कुण्ड में डालकर इस धाम से पलायन कर गये।जब भगवान श्री की प्रतिमा के र्दान नही हुए तो देव मानव भगवान ािव से कारण जानने के लिए कैलाा पर्वत पहुंचते है। भगवान ािव ने स्वंय प्रगट होकर इन्हें र्दान देकर कहा कि मूर्ति कही नही गयी हैं।नारदकुण्ड में ही हैं।परन्तु तुम लोग वत्रमान में शक्ति हीन हो।नारायण मेरे भी अराध्य है।अतएंव मै स्वयं अवतार धारण करके मूर्ति का उद्घार कर जगत के कल्याणार्थ उसकी स्थापना करूंगा। कालान्तर में भगवान आाुतोष् ािव ही दक्षिण भारत के कालड़ीस्ािान में ब्रह्मण भैरव दत्त उर्फ ािव गुरू के घर जन्म लेकर आद्गिुरू शंकराचार्य के नाम से विव विख्यात हुए।आदि जगतगुरू शंकराचार्य द्बारा सम्पूर्ण भारत वर्ष के अव्यवस्थित तीर्थो का सुदृढी करण एंव बौद्घ मत का खंण्डन के साथ सनातन वैदिक मत का मंडन सर्वविदित है।वही ािव रूप् शंकराचार्य ने ठीक ग्यारह वर्ष की अवस्था में वदिरिकाश्रम पंहुचे।और नारद कुण्ड से भगवान श्री के दिव्य मूर्ति कोविधिवत उद्घार कर पुन: स्थापित करते हैंं। आज भी उसी परम्परा के अनुसार उन्ही के वांज नाम्यूदरीपाद ब्रह्मण ही भगवान बदरीनाथ की पूजा अर्चना करते है। मंदिर के कपाट अप्रैल के अंत में अथवा मई मास के प्रथम पखवारे में खुलते है। इस वर्ष पावन कपाट श्रद्घालूओं के दा्रनार्थ खुल चुके है। मंदिर के प्रथम दिन इस धाम में अनवरत जलने वाली अख्ण्ड जयोति के र्दान का विोष महात्म है।बंद होने का दिन नवम्बर माह के दूसरे सप्ता में होता हैं जो दाहरा को ही निर्धारित होता हैंभगवान श्री की शीतकाल की पूजा पाड्यकेवर मंदिर में होती है। बदरीनाथ जी के मूत्रि का स्वरूप भगवान श्री की दिव्य मूर्ति की प्रतिष्ठा का इतिहास लगभग द्बापर युग योगेवर कृष्णावतार के समय का माना जाता हैं।बदरीनाथ जी की यह तीसरी प्रतिष्ठा है। जब विर्धर्मीयों पाखंड़ीयों के प्रभाव बढèे थे।उस समय भी उन्होंने भगवान श्री के प्रतिमा को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया था।भगवान श्री की दिव्य मूर्ति कुछ हरित वर्ण की पाषाण ािला में निर्मित है।जिसकी उंचाई लगभग डेढè फुट की है।भगवान श्री पद्मआसन में योगमुद्रा में विराजमान हैं। पद्मासन के ऊपर भगवान श्री के गम्भीर बुर्तलाकार नाभिहृद के र्दान होते है।यह ध्यान साधक को साधना में गाम्भीर्य प्रदान करता है। जिससे मन की चपलता स्वंय समाप्त हो जाती हैं।नाभी के ऊपर भगवान श्री के विााल वक्षस्थल के वाम भाग में भृगुलता के चिन्ह तथा दाये भाग में श्री वत्स चिन्ह स्पस्ट दिखता है।भृबुलता भगवान श्री के सहिष्णुता और क्षमा शीलता का प्र्र्रतिक है।श्रीवत्स र्दान शरणागति दायक और भक्तवत्सलता का प्रतीक है। पुराण इसका स्वंय साक्षी है।कि त्रिदेवों में महान कौन हैं के परीक्षण के क्रम में भृगुऋषि ने भगवान विष्णु श्री के वक्षस्थल पर प्रहार किया तो क्षमादान के साथ ही भगवान श्री ने अपने महान होने का परिचय भी दिया।श्रीवत्स चिन्ह में बाणासुर की रक्षा हेतु भगवान ािव जी द्बारा फेंके गये त्रिाूल के घाव जो भगवान श्रीकृष्ण के वक्षस्थल को चीरा लगा गये थे।वह निाान आज भी भक्तों के र्दानाथã सुवर्ण लकीरों में लक्ष्मी प्रदाता के प्रतीक चिन्ह बने हुए हैं। यह चिन्ह रूप् में दायें ओर आज भी स्थित हैं।इससे ऊपर भगवान की दिव्य कम्बुग्रीवा के र्दान होते हैं।भगवान श्री के ये र्दान जीव मात्र को जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त करने वाले है।
देवर्षि नारद जी भगवान बदरीनाथ जी के बाये भाग में ताम्र वर्ण की छोटी सी मूर्ति के रूप में स्थित है।परम्पराओं के अनुरूप शीतकाल में देवपूजा के क्रम में श्रीनारद जी द्बारा ही भगवान देवताओं द्बारा सुपूजित होते है।
उद्घव जी- नारद जी के पृष्ठभाग में चादी की दिव्य मूर्मि उद्घव जी की है।द्बापर में भगवान नारायण के सखाउद्घव भगवान की आज्ञा से यहा पधारे थे। यह भगवान की उत्सव मूर्ति के रूप् में पूजित होती है।ाीतकाल में देवपूजा के समय उद्घव जी की ही पूजा पाण्डूकेवर के योगीध्यानी मंदिर में सम्पन्न होती हैं।नरपूजा के काल में ग्रीष्म काल में पुन: भगवान श्री के पंचायत में बदरीनाथ जी के वामपार्व में विराजते है।
भगवान नारायण,उद्घवएंव नारद जी के वाये भाग में शंख,चक्र गदा धारण किये हुए पद्मासन में स्थित नारायण भगवान के दार््रन होते हैं।भगवान नारायण के बायें स्कन्ध भाग में लालादेवीबाये उरूभाग में उर्वाी,बाये मुखारविन्द के पास श्रीदेवी तथा कटिभाग के पास भूदेवी भगवान री कीसेवा में बिराजमान है।स्वंय भगवान नारायण योग मुद्रा में तपस्या में लीन है।
नरभगवान नारायण के बायें भाग में वाम पाद का अवलम्ब लिए और दाया पैर बाये पैर के सहारें मोड़è कर खड़ा कियेतथा धनुावाण धारण कियें नारायण की रक्षा में सन्नद्घ नर है।
गरूण जी-भगवान बदरीनाथ जी के दायें भाग में हाथ जोड़ेगरूण जी ध्यान मुद्रा में खड़े हैं।गरूण जी भगवान विष्णु जी के वाहन है। तीस हजार वषो्र की तपस्या के बाद उन्हे नारायण दरवार में स्थान मिला हैं।
श्री कुबेर जी-श्री कुबेर जी के मुख भाग में गरूण जी के दायें भाग में दा्रन देते है।कुबेर जी भगवान के कोषाध्यक्ष भी है।वे यक्षों के राजा भी हैं।