इरफान अपने करियर के एक नये मुकाम पर हैं. एक तरफ उनकी छवि इंटरनेशनल एक्टर की बन चुकी है, तो दूसरी तरफ वे बॉलीवुड के भी चहेते हैं. निश्चित रूप से यह एक बड़ी उपलब्धि है. हॉलीवुड और बॉलीवुड की फिल्मों में संतुलन बैठाना आसान नहीं होता, लेकिन इरफान ने यह कमाल कर दिखाया है. इसी हफ्ते रिलीज हुई फिल्म ‘जज्बा’ में वे ऐश्वर्य राय बच्चन के साथ नजर आ रहे हैं. दो हफ्ते पहले रिलीज हुई फिल्म ‘तलवार’ में भी उनके अभिनय को काफी सराहा गया है. इरफान से हुई हरि मृदुल की एक विशेष बातचीत :
० आपकी फिल्मों का एक दर्शक वर्ग बन चुका है. यही वजह है कि ‘सिंह इज ब्लिंग’ जैसी विशुद्ध कॉमर्शियल फिल्म के साथ आपकी रियलिस्टिक एप्रोच वाली फिल्म ‘तलवार’ को भी पर्याप्त दर्शक मिले. इस सफलता को आप कैसे ले रहे हैं?
- मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि अब इंडस्ट्री तेजी से बदल रही है. दर्शकों को हर तरह का मनोरंजन चाहिए. वे डिमांड कर रहे हैं. यही वजह है कि लोग दोनों तरह की फिल्में देखने जा रहे हैं. पहले ऐसा नहीं होता था. बड़ी कॉमर्शियल फिल्म के सामने छोटी फिल्म पिट जाती थी. लेकिन अब लोग फिल्मों में वैराइटी खोज रहे हैं, जो उन्हें मिल भी रही है. दरअसल, हमारे यहां सिनेमा देखने की कैपेसिटी बढ़ी है. दर्शक इंडस्ट्री को चेंज कर रही है. यही वजह है कि एक छोटी सी फिल्म भी बड़े लेबल पर रिलीज हो पा रही है.
० फिल्म ‘जज्बा’ में आप ऐश्वर्य राय के अपोजिट हैं. इस फिल्म के बाद क्या आप मेनस्ट्रीम सिनेमा में खुद के लिए बड़ी जगह देखते है? इसके लिए आपकी क्या प्लानिंग है?
- प्लानिंग से कुछ नहीं होता. कुदरत का अपना डिजाइन होता है आपको लेकर. बॉलीवुड में आने से पहले मैंने कई विश लिस्ट बनायी थीं, लेकिन मैं इस लिस्ट के किसी भी निर्देशक के साथ काम नहीं कर पाया. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि एंग ली, डैनी बॉयल, रॉन हावर्ड जैसे इंटरनेशनल डायरेक्टर्स की फिल्मों में अभिनय करूंगा, परंतु ऐसा हो गया. मैं बॉलीवुड की मेनस्ट्रीम फिल्मों को देखकर बड़ा हुआ हूं. उसका अपना जादू है. इन फिल्मों के प्रति मेरा आज भी आकर्षण है. मुझे ऐसी फिल्मों में काम मिल भी रहा है. कुल मिलाकर यही कि काम में मजा आ रहा है. मैं बिना किसी कामना के काम कर रहा हूं.
० ‘शराफत की दुनिया का किस्सा खत्म, जैसी दुनिया वैसे ही हम...’ जैसे डायलॉग कभी अमिताभ बच्चन बोला करते थे. ‘जज्बा’ में आपने इस किस्म के डायलॉग बोले हैं...
- मैं बच्चन साहब के जॉनर में नहीं घुसा हूं. मैं अपना स्टाइल क्रिएट कर रहा हूं. वैसे भी ‘जज्बा’ में मेरा रोल बच्चन साहब की तरह का नहीं है. यह संजय गुप्ता की मेहरबानी है कि उन्होंने मुझे इस तरह के डायलॉग दिये हैं. सब जानते हैं कि संजय एक स्टाइलिश फिल्ममेकर हैं.
० आपके खाते में ‘हासिल’, ‘मकबूल’, ‘बिल्लू’, ‘साहब,बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘सात खून माफ’, ‘द लंच बॉक्स’, ‘हैदर’ और ‘पीकू’ जैसी हिंदी फिल्में हैं, तो ‘द वारियर’, ‘द अमेजिंग स्पाइडर मैन’, ‘द नेमसेक’, ‘अ माइटी हार्ट’, ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ और ‘लाइफ ऑफ पाइ’ जैसी हॉलीवुड की फिल्मों में भी आपने सार्थक उपस्थिति दर्ज करवाई है. इस तरह का संतुलन आप कैसे साध पाये?
- आपने ‘थैंक यू’, ‘डी डे’ और ‘गुंडे’ जैसी फिल्मों का नाम नहीं लिया. कहना यह चाहता हूं कि मैंने ऐसी फिल्मों में भी काम किया है, जो विशुद्ध रूप से कॉमर्शियल हैं. मेरे मन में आर्ट और कॉमर्शियल वाला कोई भेद नहीं है. अब हर तरह का सिनेमा चल रहा है. इसका श्रेय दर्शकों को जाता है. वे कुछ नया खोज रहे हैं, लेकिन इंडस्ट्री दे नहीं पा रही है. हां, नये फिल्म मेकर्स के आने के बाद सिनेमा का नेरेटिव बदल रहा है. वैसे भी हर दस-पंद्रह साल में फिल्म का नेरेटर बदल जाता है.
० अक्सर देखा गया है कि बड़ी सफलता पाने के बाद कलाकार का दिमाग सातवें आसमान पर होता है. वह इस सफलता को पचा नहीं पाता. इस बारे में आपका क्या कहना है?
- सफलता को पचाने की क्षमता बहुत जरूरी है. वरना आपको किस्सा कहानी बनने में टाइम नहीं लगता. मैं अपने साथ ऐसा नहीं होने दूंगा. मैं अपने आपको अपनी तरह की कहानियों वाली फिल्में चुनकर संभालूंगा. इंडस्ट्री में वे ही लोग लंबे समय तक टिक पाते हैं, जो अपनी अलग जगह बनाना चाहते हैं. पहले भी ऐसे लोग आए हैं, जिन्होंने अपने लिए नयी राह चुनी और उनकी जगह भी बनी. सफल होने के बाद असफल होनेवालों की भी बड़ी संख्या है. वे जल्दी अपनी सफलता कैश कर लेना चाहते थे, इसलिए अपने पांव जमा नहीं पाये.
० आपको यहां तक पहुंचने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा है?
- मुझे आसानी से कोई चीज नहीं मिली. मेरे बहुत इम्तिहान हुए हैं. मुझे कई झटके मिले हैं. लेकिन इससे मुझे फायदा ही हुआ. मैं किसी गलतफहमी का शिकार नहीं हुआ. मैंने हमेशा लीक से हटकर काम करने की सोची. आज भी मैं परंपराएं तोडऩा चाहता हूं. फिल्मों में भी और निजी जीवन में भी.
० आपने अचानक अपने नाम के आगे से ‘खान’ सरनेम क्यों निकाल दिया?
- इसलिए कि लोग मुझे बॉलीवुड की प्रसिद्ध ‘खान तिकड़ी’ से जोड़ रहे थे. लोगों का अंदाज कुछ इस तरह था कि लो जी, आ गया चौथा खान. मैंने सोचा कि यह सब बड़े ही पचड़े की चीज है, इसलिए नाम छोटा कर लो.
० आप अपनी फिल्मों का चुनाव किस तरह करते हैं?
- मैं अपने दिल की सुनता हूं. मैं डायरेक्टर और प्रोड्यूसर को देखता हूं. कई बार लगता है कि आपको यह फिल्म इसलिए करनी चाहिए क्योंकि वह नायाब कहानी है, भले ही प्रोड्यूसर कडक़ा हो. रिश्तों का भी खयाल रखना पड़ता है. एक एक्टर के तौर पर कुछ नया करने को नहीं हो, फिर भी उसे करना पड़ता है.
० हर साल भारत से कोई एक फिल्म ऑस्कर के लिए भेजी जाती है, लेकिन इस चयन पर विवाद हो जाता है. इस स्थिति पर आप क्या सोचते हैं?
- हमारे यहां चयन कमेटी का स्वरूप टेढ़ा मेढ़ा है. इस कमेटी में सही लोग होने चाहिए. इस बार भी विवाद हुआ. मेरा मानना है कि ‘कोर्ट’ का चुनाव एकदम सही है. यह एक जेनुइन फिल्म है. हमारी इंडस्ट्री के लिए बहुत जरूरी है कि ऑस्कर के लिए सोच-समझ कर फिल्में भेजें. ऑस्कर में दुनिया भर की फिल्मों से मुकाबला होता है.
० क्या आप मानते हैं कि भारतीय सिनेमा अभी उतना मैच्योर नहीं हुआ है, जितना कि विश्व सिनेमा?
- यह सही है कि अभी भारतीय फिल्में उस पॉजीशन में नहीं पहुंची हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपकी फिल्मों का इंतजार होता है. बिजनेस के स्तर पर भी हम काफी पीछे हैं. तकनीक के स्तर में सुधार आया है, लेकिन अभी बहुत कुछ पाना है. लेकिन अच्छी बात यह है कि हम सही राह पर चल रहे हैं. हमारे यहां भी ऐसी फिल्में बनायी जा रही हैं, जिनमें मौलिक कहानियां हैं. हॉलीवुड की नकल करके हमें तारीफ नहीं मिल सकती.
० आपकी गिनती बड़े एक्टरों में होती है, लेकिन आपको अभी तक स्टारडम नहीं मिल पाया है?
- मैंने अपने आपको कभी भी स्टारडम के घेरे में नहीं रखा. मैं इस बारे में सोचता ही नहीं हूं. अगर कोई सुपर स्टार है, तो मुझे उससे दिक्कत भी नहीं है. मेरी शुरू से ही ख्वाहिश थी कि एक एक्टर के रूप में पहचान बने और वह पहचान बन चुकी है. मुझे इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. मैं अपने हिसाब से काम करता हूं और मस्त रहने की कोशिश करता हूं.
० आप फिल्म बाजार को कितना समझ पाये हैं?
- मुझे बाजार की कोई समझ नहीं है. अगर बाजार की समझ होती, तो अच्छा व्यापारी बन जाता. मैं तो सिर्फ ओडिएंस को समझता हूं. उन्हीं के प्यार की वजह से यहां तक पहुंचा हूं. शुक्रवार