गोवा मुक्ति संघर्ष की अंतर्कथा की तीन ख़ास खिड़कियाँ

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

गोवा मुक्ति संघर्ष की अंतर्कथा की तीन ख़ास खिड़कियाँ

आनंद कुमार    
अपने अतीत को जानना किसी भी देश के लिए एक अनिवार्यता है. अगर देश-विशेष ने अपने ताज़ा इतिहास में पराधीनता से स्वाधीनता की सफल यात्रा की हो तो इतिहास का साक्षात्कार  अत्यंत रोमांचक हो जाता है. क्योंकि स्वराज के लिए दी गयी कुर्बानियों का विवरण हमारे पुरखों के प्रति आदर भाव पैदा करता हैं. पराधीन होने की दुखद स्मृतियों के बावजूद पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने के घटनाक्रम का ज्ञान होने से आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है. उच्च आदर्शों के लिए आत्म-त्याग की श्रेष्ठता प्रमाणित होती है. समाज हित के लिए पुरुषार्थ की महत्ता स्पष्ट होती है.  लोकशक्ति निर्माण के जरिये देश के बेहतर भविष्य के प्रति भरोसा बनता है. यूरोप के विश्व-विस्तार के एशिया में प्रथम  शिकार गोवा प्रदेश (गोमान्तक) की स्वराज-यात्रा की कथा इसका एक रोमांचक उदाहरण है.  
इस सन्दर्भ में ग्वालियर स्थित आई. टी. एम. विश्वविद्यालय ( ए  एच – ४३, तुरारी बायपास, झाँसी रोड, ग्वालियर (म. प्र.) – ४७४ ००१; मोबाईल ८९५९५९५७५५) ने गोवा मुक्ति संघर्ष के ७५वीं वर्षगाँठ उत्सव में योगदान के रूप में तीन परस्पर सम्बद्ध पुस्तकें प्रकाशित करके इस दिशा में बहुमूल्य योगदान किया है –  वरिष्ठ मराठी साहित्यकार इंदुमती केलकर की ‘लाहौर किला जेल से गोवा की अग्वाद जेल तक - डा. राममनोहर लोहिया के संघर्ष का एक अध्याय’ (४८ पृष्ठ, मूल्य ६० रुपये), प्रसिद्ध हिंदी पत्रकार गणेश मंत्री की ‘गोवा मुक्ति संघर्ष’ (१८६ पृष्ठ, मूल्य रु. २००/-) तथा संस्कृत व मराठी की प्राध्यापिका चम्पा लिमए व हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली द्वारा संपादित ‘गोवा लिबरेशन मूवमेंट एंड मधु लिमए’ (२१४ पृष्ठ, मूल्य रु.२५०/- ). चम्पा लिमये और कुर्बान अली की संपादित किताब तो मधु लिमये जन्म शताब्दी वर्ष के समारोहों के लिए प्रथम सादर अर्पण मानी जानी चाहिए. तीनों किताबों की नयी प्रस्तुति आकर्षक और पठनीय है. इनकी कीमत भी सामान्य पाठकों, विशेषकर नयी पीढ़ी के सरोकारी युवाओं तक इनकी पहुँच को सुगम करेगी.  
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इन तीनों किताबों से भारत में यूरोपीय साम्राज्यवाद के १५१० से बने हुए अड्डे  गोवा की पुर्तगाल से मुक्ति के लिए १९४६ से १९६१ के बीच की रोमांचक संघर्ष-कथा और इसके मुख्य पात्रों की युगांतरकारी भूमिका की महत्ता बढ़ेगी. क्योंकि  यह गोवा और भारत के स्वराज संघर्ष के इतिहास को नज़दीक से देखने के लिए तीन ख़ास खिड़कियाँ हैं. 
पहली खिड़की : 
इस पुस्तक श्रृंखला से बनी पहली खिड़की लोहिया की भारतवर्ष से विदेशी राज के खात्मे के लिए सम्पूर्ण समर्पण के रोमांचक सिलसिले के १९९४२ से १९४७ तक के कालखंड से जुड़ी है. इंदुमती जी ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक बहुचर्चित अध्याय अर्थात ‘९ अगस्त – भारत छोडो आन्दोलन’ और अत्यंत अल्प-ज्ञात कथा यानी गोवा मुक्ति संघर्ष को एक साथ पिरोया है. क्योंकि दोनों के केंद्र में डा. राममनोहर लोहिया का कर्मयोग रहा है. इन दोनों की आधारभूमि के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की अंतर्कथाएं कैसे नहीं सामने आएँगी ? ‘९ अगस्त १९४२ क्रांति पर्व’ अध्याय में कुल १२ पृष्ठों में ४ बरस के विस्तार में घटित क्रांतिकथा और लोहिया के बंदीजीवन का फिल्म जैसा जीवंत चित्रण है. फिर अप्रैल १९४६ में रिहाई के बाद आगरा से लेकर कलकत्ता तक अभूतपूर्व अभिनंदन. लोहिया की गाँधी से बढती निकटता और नेहरु-पटेल से बढ़ता फासला. इसमें भारत-विभाजन, संविधान सभा, गोवा और नेपाल के सवालों का योगदान.  
कांग्रेस की महासमिति में भारत विभाजन की बहस और स्वीकृति के दु:खद निर्णय में सोशलिस्टों की तटस्थता (१४ जून, १९४७; दिल्ली) और दूसरी तरफ इससे पहले सोशलिस्टों का लोहिया की अध्यक्षता में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में (२६-२८ फरवरी, १९४७; कानपुर) नाम-सुधार और सिद्धांत-समीक्षा का फैसला. इसी बीच लोहिया का १८ जून, ’४६ और २९ सितम्बर, ’४६ को गोवा में नागरिक अधिकारों के लिए सत्याग्रह. गोवा नेशनल कांग्रेस की स्थापना. कलकत्ता (२६ जनवरी, ’४७), दार्जिलिंग (२५ अप्रैल १९४७) और वाराणसी (१६ जुलाई ’४७) में नेपाल की राणाशाही से मुक्ति के लिए नेपाली कांग्रेस को प्रोत्साहन. 
दूसरी खिड़की : 
इस सिलसिले में दूसरी खिड़की गोवा मुक्ति संग्राम का सघन कथानक प्रस्तुत करती है. इसे गणेश मंत्री जी ने शोध, प्रतिबद्धता और परिश्रम से बनायी है. ६ चित्र, सात पत्रों और १३ अध्यायों से सुसज्जित यह किताब गोवा की स्वराज यात्रा की हिंदी में श्रेष्ठतम रचना है. इसे गोवा आन्दोलन की स्वर्णजयंती पर १९९६ में प्रकाशित किया गया. आज हीरक जयंती पर इसका पुन:प्रकाशन स्वागत योग्य पहल है. यह किताब कई अनछुए तथ्यों को एकसाथ पढने का मौका देती है. इसकी मदद से कुछ विचित्र सत्यों का साक्षात्कार होता है.  
एक तो, हम सभी देख सकते हैं कि गोवा का सवाल नव-स्वाधीन भारत के सर्वोच्च नेतृत्व की उदासीनता के कारण शेष देश की आज़ादी के १५ साल बाद तक अटका रहा. फिर भी सर्वदलीय गोवा विमोचन सहायक समिति द्वारा संयोजित सत्याग्रह ने गोवावासियों में साहस पैदा किया. सरकारी उपेक्षा और अन्य कारणों से सत्याग्रह अभियान के निर्बल हो जाने पर सशस्त्र समूहों को भी सक्रियता का अवसर मिला. इसकी गोवा में विशेष उपलब्धि नहीं रही लेकिन दादर और नगर हवेली में कुछ सफलता मिली.  
दूसरे, गोवा के लिए हुए सत्याग्रहों में पुर्तगाली शासन ने बहुत क्रूरता दिखाई. सभी सत्याग्रही बर्बरता के शिकार हुए. कम से कम दस लोगों की जाने गयीं. कई लोगों को ४ बरस से २७ बरस तक के कैद की सजा दी गई. कुछ लोगों को पुर्तगाल और उसके अफ़्रीकी उपनिवेशों में कैद रखा गया.  
तीसरे, गाँधी गोवा के लिए १९४६-’४७ में बहुत चिंतित थे. लेकिन नेहरु और पटेल दोनों की रहस्यमय उदासीनता रही. सरदार पटेल के निधन के बाद भारत सरकार की गोवा नीति नेहरु-कृष्ण मेनन की जोड़ी के निर्देशन में ‘यथास्थितिवादी’ बनी रही.  
चौथे, १९५४-’५५ में बनी गोवा विमोचन सहायता समिति और इसके सत्याग्रह को महाराष्ट्र और कर्नाटक के सभी दलों में सक्रिय समर्थन था. लेकिन शेष भारत से सत्याग्रहियों के पहुँचने के बावजूद भी देशव्यापी उत्साह का अभाव था. १९५५-’५६ में बम्बई प्रदेश में प्रादेशिक पुनर्गठन के प्रश्न पर आन्दोलन के बढ़ने के अनुपात में ही गोवा मुक्ति का आन्दोलन घटता चला गया.  
पांचवे, १९४६ और १९५५ के सत्याग्रहों के प्रति उपेक्षा भाव रखने वाले श्री जवाहरलाल नेहरु और कृष्णा मेनन की सरकार ने १९६१ में बिना किसी बड़ी वजह के सेना भेजकर गोवा को पुर्तगाल से आज़ाद कराया. यह देर से ही दुरुस्त कदम रहा. लेकिन इसके बाद १९६२ के आमचुनाव में इसका सरकारी पार्टी के लिए वोट जुटाने में इस्तेमाल करना प्रशंसनीय नहीं माना गया जब  गोवा की आज़ादी के लिए लम्बे अरसे से प्रयासरत लोगों के मुख्य संयोजक समाजवादी नेता पीटर अल्वारेस को गोवा पर बरसों मौन रहनेवाली सरकार के एक बड़े मंत्री कृष्ण मेनन ने गोवा-मुक्ति का श्री लेते हुए बम्बई से लोकसभा के चुनाव में पराजित कर दिया! शायद इसीलिए सैनिक हस्तक्षेप से जुड़ी गोवा मुक्ति के चरमबिन्दु की कथा अध्याय १३ के मात्र १० पृष्ठों की विषय-वस्तु है. 
तीसरी खिड़की : 
हमारे लिए तीसरी खिड़की एक ऐसी आत्मीय किताब है जो  समाजवादी नेता मधु लिमये की गोवा मुक्ति संघर्ष में भूमिका को केंद्र में रखकर रची गयी है. इसे चम्पा लिमये के संस्मरण आधारित लेख, मधु लिमये के दो विश्लेषणउन्मुख निबंध, अनिरुद्ध लिमये का अपने यशस्वी पिता और ममतामयी माँ का पुन्य-स्मरण, रमाशंकर का प्रकाशकीय आवाहन और कुर्बान अली का सम्पादकीय मिलकर हर समाजवादी के लिए एक पाठ्य-पुस्तक बनाते हैं. यह किताब भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अंतिम अध्याय अर्थात गोवा मुक्ति संघर्ष की लगभग अनकही कहानी की एक प्रामाणिक प्रस्तुति भी करती है. निश्चय ही इसे गोवा मुक्ति संघर्ष का ‘समाजवादी दर्पण’ माना जाएगा.  
अगर इंदुमती केलकर रचित अध्यायों से बनी पहली खिड़की से हमें डा. लोहिया के तूफानी प्रवेश के बहाने गोवा मुक्ति संघर्ष का राष्ट्रीय राजनीतिक चित्र सामने आया तो चम्पा लिमये के इस योगदान से मधु लिमये की साहसपूर्ण हिस्सेदारी के बहाने गोवा सत्याग्रह के नायकों के अन्तरंग परिदृश्य की दुर्लभ झलक मिलती है. मधु लिमये की जेल डायरी इसका मूल तत्व है क्योंकि इसमें एक तेजस्वी देशभक्त समाजवादी नायक की १२ बरस की कैद की सजा भुगत रहे युवा पति और कुल एक बरस के शिशु के बंदी पिता के रूप में कोमल भावनाओं से लेकर  समाजवाद के बेहतर भविष्य के लिए कठोर सैद्धांतिक संकल्पों के बीच की लुका-छिपी का चित्रण है. यह एक समाजवादी सत्याग्रही के मनोविज्ञान को जानने –समझने के लिए भी उपयोगी रहेगी. कांग्रेस सरकार के प्रति समाजवादियों के आक्रोश और आकर्षण की दुविधा का सटीक वर्णन है. इस किताब में नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश, डा. लोहिया, अशोक मेहता, श्रीधर महादेव जोशी, नारायण गणेश गोरे जैसे समर्पित देशभक्त समाजवादियों के जुटने-बिखरने का मार्मिक मूल्यांकन इसे मधु लिमये की राजनीतिक यात्रा के कुछ उलझे प्रसंगों को भी सुलझाता है.   
१ मई १९२२ को एक निम्न-मध्यम वर्ग परिवार में जन्मे मधु लिमये ‘भारत छोडो’ की १९४२ की ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी सफल लड़ाई के बाद पूंजीवाद, जातिवाद और सामंतवाद के विरुद्ध  आगे बढ़ी साहसी पीढ़ी के एक श्रेष्ठ प्रतीक थे. उन्होंने एस. एम. जोशी की प्रेरणा से १५ बरस की उम्र में आज़ादी की लड़ाई के लिए इन्टर से आगे की पढ़ाई छोड़ कर एक कांग्रेस सोशलिस्ट के रूप में  अक्टूबर, १९४० में युद्ध-विरोधी सत्याग्रह करके लगभग एक बरस का कारावास अनुभव पा चुके थे.  इसके तुरंत बाद अच्युत पटवर्धन, जयप्रकाश नारायण और डा. लोहिया के युवा अनुयायी  के रूप में ‘भारत छोडो आन्दोलन’ को अपनी जवानी के चार बरस दिए. १९४६ में जेल से बाहर आकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक प्रशिक्षक बने. इसी प्रक्रिया में उनकी एक युवा अध्ययन मंडल में चम्पा गुप्ते से आत्मीयता बनी और १५ मई १९५२ को दोनों का अंतरजातीय विवाह हुआ. चम्पा – मधु को जुलाई, १९५४ में अनिरुद्ध के रूप में पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई. अपनी मनपसंद युवती से प्रेम-विवाह और एक नवजात शिशु के शुभ जन्म  ने मधु लिमये के जीवन में निर्मल आनंद की बाढ़ ला दी. लेकिन मधु लिमये के व्यक्तित्व में आत्मसुख से जादा बड़ी जगह देश-धर्म की थी. इसलिए उन्होंने अपनी विवाह की तीसरी वर्षगाँठ पर अपनी तरफ से ‘भेंट’ के रूप में गोवा सत्याग्रह में जेल जाने की इच्छा प्रकट की और चम्पा जी ने सहमति दे दी! अनिरुद्ध की पहली वर्षगाँठ पर हुई मित्र-संध्या मधु लिए की गोवा सत्याग्रह के लिए विदाई की गोष्ठी भी बन गयी!! 
मधु लिमये २५ जुलाई को ज्वरग्रस्त दशा में गोवा सत्याग्रह के एक दस्ते के नायक के रूप में पुर्तगाली पुलिस द्वारा बर्बर व्यवहार के साथ गिरफ्तार किये गए. पांच महीने के बाद पुर्तगाल सरकार ने उनको १२ साल की सख्त कैद की सजा सुनाई. इस क्रम में मधु जी ने २६ जुलाई ’५५ से १ फरवरी ’५७ के १९ महीने के गोवा कारावास के दौरान एक डायरी भी लिखी जिसे चम्पा जी ने यथावत इस किताब में शामिल किया है. इस डायरी में उनके बेहद निजी  आत्मचित्रों के जरिये अंग्रेजों को भारत से बाहर करने में सफल नौजवान भारतीय लोकसेवकों का स्वप्न-संसार सामने आता है. देश के नए सत्ताधीशों और समाजवादी आन्दोलन के महानायकों दोनों से मोहभंग है. व्यक्तिगत जिम्मेदारियों और राष्ट्रीय चुनौतियों के बीच बिगड़ रहे समन्वय को लेकर आत्म-मंथन है. भविष्य की चुनौतियों की रूपरेखा उभरती है. गोवा और पुर्तगाली उपनिवेशवाद के अंतिम मुकाबले के गूढ़ रहस्यों से जुडी यह खिड़की इसलिए भी अनूठी मानी जानी  चाहिए कि इसमें गोवा के यशस्वी मुख्यमंत्री प्रताप सिंह राणे की १९९६ के प्रथम संस्करण के लिए लिखी भूमिका और गोवा विमोचन सहायक समिति के सचिव जयंतराव तिलक द्वारा लिखा प्राक्कथन भी है.  
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गोवा एशिया में यूरोपीय विस्तारवाद का सबसे मार्मिक उदाहरण रहा है. ३७०२ किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इस सुंदर समुद्र-तटीय प्रदेश पर  १५१० में साम्राज्यवादी पुर्तगाल का कब्ज़ा हो गया. पुर्तगाली शासन ने तब से १९६१ तक गोवा की संस्कृति और समाज के पश्चिमीकरण के हर संभव तरीके अपनाए. धर्म-परिवर्तन, धर्म-स्थानों को तोड़ना, हिन्दू और मुस्लिम धर्मावलम्बियों के साथ भेदभाव, और पुर्तगाली भाषा को प्रशासन और नौकरियों में अनिवार्य करना पुर्तगाली राज की सांस्कृतिक नीति के मुख्य पहलू थे. क) पुर्तगाल सरकार के प्रोत्साहन, ख) धार्मिक भ्रांतियों, और ग) मानसिक गुलामी के तिहरे दबाव ने गोवा की  विदेशी राज की लम्बी गुलामी से मुक्ति के सपने को ही कठिन बना रखा था. राष्ट्रवादियों में एकता के अभाव ने शताब्दियों से चले आ रहे पुर्तगाली नियंत्रण को और मजबूत बना दिया था.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     यह भी विस्मयकारी सच है कि ब्रिटिश राज से भारत की १५ अगस्त १९४७ को मुक्ति के बावजूद गोवा की पुर्तगाली गुलामी स्वाधीन भारत के नायकों की गलत नीतियों के कारण १९६१ तक बनी रही. इस विलम्ब के बारे में आज भी गोवा के लोगों में कई प्रश्न बने हुए हैं. इसीलिए भारत के अनेकों यशस्वी नेताओं की तुलना में गोवा में मुक्ति के संघर्ष का बिगुल फूँकने वाले स्वतंत्रता सेनानी डा. राममनोहर लोहिया, त्रिश्तांव द ब्रिगान्स कुन्हा, जुलियांव मिनेजिस, पीटर अल्वारेस, पुरुषोत्तम काकोडकर, नेशनल कांग्रेस (गोवा), गोवा विमोचन सहायक समिति और आज़ाद गोमान्तक दल का गोवा के स्वराज, भारत से एकजुटता, और अस्मिता पुनर्निर्माण में अनूठा स्थान है.  
‘भारत छोडो आन्दोलन’ के लिए अंग्रेजों की जेल में १९४४ से १९४६ तक यातनामय बंदी से रिहा होते ही १८ जून ’४६ और २९ सितम्बर  को दो बार नागरिक आज़ादी के लिए अपनी गिरफ्तारी देने वाले डा. राममनोहर लोहिया के प्रति गोवा में निर्विवाद अपनत्व है. १९५४-५५ में चले सर्वदलीय सत्याग्रह के नायकों और देश भर से जुटे हजारों सत्याग्रहियों के प्रति कृतज्ञता की भावना है. गोवा की आज़ादी के लिए पुर्तगाली पुलिस की बर्बरता का शिकार बनने के लिए आगे आये और पुर्तगाल सरकार की जेलों में हँसते-हँसते ४ से २९ बरस तक का कठिन बंदी-जीवन बितानेवाले वीर भारतीय स्त्री-पुरुषों की कहानियां याद हैं. गोवा में डा. लोहिया की एक आदमकद प्रतिमा है जहां हर साल १८ जून को गोवा मुक्ति संघर्ष दिवस मनाया जाता है. गोवा वासियों ने अपनी आज़ादी के मसीहा के प्रति आभार-प्रदर्शन के लिए उस स्थान को ‘लोहिया मैदान’ का नाम दिया है. गोवा मुक्ति संघर्ष के सत्याग्रहियों को कैद रखनेवाले अग्वाद जेल को भी एक दर्शनीय संग्रहालय में बदलने की योजना कार्यान्वित की जा रही है. इसी जेल में डा. लोहिया को १९४६ में कई दिनों तक कैद रखा गया और गांधीजी द्वारा सर्वोच्च स्तर पर  हस्तक्षेप से ८ अक्तूबर की मध्य रात्रि में रिहाई हुई. लेकिन अगले पांच बरस तक गोवा में प्रवेश न करने का प्रतिबन्ध भी घोषित किया गया था.  
गोवा की दुर्दशा से व्यथित डा. लोहिया तुरंत तीसरी बार पुर्तगाल के फासिस्ट शासन से टकराने के लिए तैयार थे लेकिन गांधीजी और नेहरु जी के निर्देश पर अपनी गिरफ्तारी को स्थगित करके सत्याग्रह को गोवा और आस-पास के कार्यकर्ताओं के जिम्मे करना पड़ा. इसके लिए लोहिया ने गांधीजी के मार्गदर्शन में ‘गोमंताकियों के नाम खुला पत्र’ जारी किया. २४ दिसम्बर ’४६ के इस ऐतिहासिक पत्र की गोवा में हजारों प्रतियां बांटी गयीं. इसके अंत में लोहिया ने साहस और सत्याग्रह का मन्त्र दिया था – ‘जेल जाइए. लाठी खाइए. गोली खाइए. मोर्चा – जुलूस निकालिए और यूरोपियों का पैर एशिया से उखाडिए!’ दूसरी तरफ गोवा, बेलगाँव, सावंतवाडी, पूना, मुंबई, रत्नागिरी, धारवाड़, कोल्हापुर आदि में जन-जागरण करके एक कुशल सेनापति की तरह गोवा मुक्ति संघर्ष की अगली कतार को तैयार किया. खानापुर (बेलगाँव) में डा. लोहिया, नाना पाटिल, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसे दिग्गज राष्ट्रीय नेताओं के मार्गदर्शन में गोमान्तकियों का प्रशिक्षण हुआ. राष्ट्र सेवा दल की ऐतिहासिक भूमिका रही. गोवा मुक्ति के लिए लोहिया की अपील पर महिलाओं ने आभूषण दिए, कलाकारों ने  बंबई और पुणे से लेकर बेलगाँव तक में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये. सभी तरीकों से साधन जुटाए. नवम्बर ’४६ से फरवरी ’४७ तक सत्याग्रह का संचालन कराया.  
इसमें भारत-विभाजन से जुड़े प्रश्नों और दुनिया में विजेता राष्ट्रों द्वारा फासिस्ट सालाजार की सरकार को पुर्तगाल में समर्थन देने से पैदा अत्यंत प्रतिकूल हालात के बावजूद लोहिया प्रेरित आन्दोलन में लगभग ६०० लोगों ने साहस के साथ हिस्सा लिया. इस सत्याग्रह ने ७ बरस बाद १९५४-५५ में उठी दूसरी लहर के लिए मजबूत बुनियाद का निर्माण किया. डा. लोहिया ने १८ जून १९४७ को ‘हमारा गोमान्तक’ के विशेषांक में आवाहन दुहराया था कि ‘ यूरोप की एशिया में सीनाजोरी को गोवा में ही ठुकराना चाहिए. गोवा विमोचन के लिए न दिल्ली की तरफ देखना चाहिए, न संयुक्त राष्ट्रसंघ की तरफ. अपनी हिम्मत से ही स्वयं का उद्धार हो सकता है. गोवा के महाद्वार से यूरोप ने एशिया में प्रवेश किया. अब गोवा में ही यूरोप की शिकस्त होनी चाहिए.’ (केलकर, पृष्ठ ४२-४८)  
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इतिहास की दृष्टि से गोवा का  सम्राट अर्णन अशोक के शासन काल से शुरू होता है. उस दौर में बौद्ध भिक्षुओं ने बौद्ध धर्म का प्रचार किया. आज भी गोवा में बुद्धकालीन अवशेष हैं. आठवीं शताब्दी में राष्ट्रकुटा और कदम्ब काल में जैन धर्म की शिक्षा का प्रभाव था. १४ वीं शताब्दी के आरम्भ में गोवा १३१२ से दिल्ली सल्तनत के अधीन ले लिया गया. १३७० से १४६९ तक यह विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत रहा. १४६९ से  इसपर गुलबर्गा के बहमनी सुलतान का राज कायम हुआ.  
१५१० में पुर्तगालियों ने बीजापुर के युसूफ आदिलशाह को युद्ध में पराजित किया और गोवा यूरोपीय उपनिवेशवाद का एशिया में पहला शिकार बनाया गया. विजयनगर के हिन्दू राजा के सूबेदार तिमोजा ने गोवा का शासक बनने के लालच में पुर्तगाली बेड़े के प्रधान और वायसराय आफोंस द अलबुकर्क को गोवा पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया था. २५ नवम्बर १५१० को पुर्तगालियों ने गोवा द्वीप और आस-पास के कुछ द्वीपों पर अपनी सत्ता स्थापित की. १५४३ में संत फ्रांसिस जेवियर का गोवा आगमन हुआ जिससे ईसाई धर्म का प्रभावशाली प्रचार होने लगा. पुर्तगालियों को यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि कालिकट शहर में काफी तायदाद में ईसाई रहते थे और वहां एक गिरिजाघर भी था. वस्तुत: ईसाई धर्म संत थामस के जरिये दूसरी शताब्दी में ही दक्षिण भारत पहुँच गया था. लेकिन पुर्तगालियों द्वारा गोवा पर कब्ज़ा जमाने के पहले उसका यूरोप के संगठित चर्च से कोई सम्बन्ध नहीं था. 
गोवा के इतिहास की किताबों के अनुसार फरवरी १६६६ को छत्रपति शिवाजी ने गोवा के फोंडा क्षेत्र की घेराबंदी और १६६७ में बार्देश पर हमला किया था. १६७५ में फोंडा पर कब्ज़ा कर लिया था. वस्तुत: सोलहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के बीच पुर्तगाली साम्राज्यवाद के खिलाफ १४ बार विद्रोह हुए. इसमें राणे विद्रोहियों के प्रयास आज भी याद किये जाते हैं. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पहले ही १८५१ में दीपाजी राणे ने पुर्तगाली  राज को उखाड़ने का प्रयास किया था.  
बीसवीं शताब्दी के शुरूआती दौर में ‘केसरी’, ‘मराठा’, ‘हिन्दूमत’, ‘प्रभात’, ‘प्रदीप’, ‘डिबेट’ आदि पत्र-पत्रिकाओं ने स्वराज के पक्ष में जनमत जागरण में योगदान किया. फिर भी यह दु:खद तथ्य है कि  १९६१ में भारत की सैनिक कार्यवाही होने तक गोवा गुलाम रहा. वैसे गोवा के लोगों पर ब्रिटिश राज से मुक्ति के लिए भारतीयों द्वारा किये जा रहे आन्दोलनों का सीधा प्रभाव था. १९२०-२१ के असहयोग आन्दोलन का गोवा के सरोकारी लोगों पर ऐसा असर पड़ा कि १९२८ में गोवा कांग्रेस कमिटी बनायी गयी. फिर कांग्रेस द्वारा १९३५ से अपनी गतिविधियों को ब्रिटिश भारत तक सीमित रखने के निर्णय के कारण गोवा की समिति से सम्बन्ध टूट गया.  
उधर पुर्तगाल में १९१० से १९२६ तक राजनीतिक अस्थिरता का दौर रहा. इस अवधि में पुर्तगाल में ९ राष्ट्रपति बनाए गए और ४४ सरकारें बनी और गिरीं. १९३० में सालाजार प्रधानमंत्री बनाये गए और पुर्तगाल जर्मनी के नात्सी और इटली के फासिस्ट सरकारों के प्रभाव क्षेत्र में आ गया. सालाजार खुद तानाशाह बन गया और पुर्तगाल फासिस्ट ताकतों की पकड में फंस गया. इससे गोवा में प्रतिरोध के नायकों का दमन और देश-निकाला आम बात हो गयी. फिर भी त्रिश्तांव ब्रान्गास कुन्हा, शिरगांवकर, मिनेजिस ब्रान्गास, गोविन्द पुंडलीक देसाई और दादा वैद्य जैसे सेनानियों ने हार नहीं मानी.१९३८ में फिर से गोवा कांग्रेस समिति का त्रिश्तांव ब्रंगास द कुन्हा के संयोजकत्व में गठन हुआ. गोवा के सवाल पर कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष बोस से भेंट की. ४२५ बरस के कलंकमय सम्बन्ध को समाप्त करने के लिए इस समिति ने १९४६ में ए. जी. तेंदुलकर की अध्यक्षता में ‘गोवा छोड़ो’ का आवाहन किया. डा. लोहिया द्वारा १८ जून १९४६ को किये गए सत्याग्रह से स्वराज के लिए निर्णायक संघर्ष का अध्याय शुरू हुआ जिसकी १५ बरस बाद १९ दिसम्बर १९६१ को पणजी में भारतीय सेना के सामने पुर्तगाली गवर्नर जनरल के आत्म-समर्पण से पूर्णाहुति हुई. 
इंदुमती केलकर, गणेश मंत्री और चम्पा लिमये-कुर्बान अली की इन पुन:प्रकाशित किताबों को पढ़ने के बाद गोवा को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए १८ जून ’४६ से शुरू और २१ दिसम्बर ’६१ को पूरा हुए हुए अभियान में अपनी आहुति देनेवाले हर चर्चित –अचर्चित स्त्री-पुरुषों के प्रति मन में आदर भाव की लहर उठती है. गोवा मुक्ति के मंत्रदाता डा. राममनोहर लोहिया के साहस और देशभक्ति के प्रति श्रद्धापूर्ण नमन का भाव उत्पन्न होना सहज है. आज भी गोवा में  डा. लोहिया को स्वतंत्रता का मार्गदर्शक और प्रेरक माना जाता है.   
इस सब के बारे में प्रसिद्ध कोंकणी साहित्यकार बा. भ. बोरकर की एक प्रसिद्ध कविता की पंक्तियां आज भी पठनीय हैं : 
लिहिल्या या जा ओली त्यांची वालली न शाई  
डोळे भरुनी तोंच देखिली उडलेली लाही  
धन्य लोहिया, धन्य भूमि ही, धन्य तिचे पुत्र  
धन्य त्यांचा त्याग देखते जनतेचे नेत्र  
(इन पंक्तियों की स्याही अभी सूखी तक नहीं है, आँखे भर-भर कर देखा है वह बहता हुआ लावा, धन्य लोहिया, धन्य है यह भूमि, धन्य हैं इसके पुत्र, धन्य हैं जनता के वे नेत्र, जिन्होंने यह त्याग देखा.) 
एक अन्य लोकप्रिय कवि मनोहर सरदेसाई ने तो अपनी कविता में लोहिया को ‘आग्वाद के सिंह’ के रूप में चिर-स्मरणीय बना दिया है : 
“अग्वादाज्या शिवा तुमे हाउसी आप का जाग, तुकाय भाव कामचे टले आमचे धाय दाग. अन्याय जयं, जुल्म जंग तू रे जयं तूं रे यंय.” 
(ओ रे आग्वाड के सिंह, तुमने ही हमें जगाया. हमारी भावनाएं तुम ही समझ सके. हमारे काले दाग तुम्ही जानते हो. जहां-जहां जुल्म है, अन्याय है वहां तुम हो, वहां तुम हो.)

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