डा शारिक़ अहमद ख़ान
पांच और छह अक्टूबर को शहर लखनऊ और शिया मुसलमानों के दो ख़ास त्योहार हैं.पांच को इस्लामी माह की तारीख़ आठवीं रबी-उल-अव्वल है और इस दिन लखनऊ में चुप ताज़िए का जुलूस निकलता है.अगले दिन नौवीं को लखनऊ में शिया हज़रात ईद-ए-ज़हरा की ख़ुशियाँ मनाते हैं,इस दिन मोहर्रम से शुरू दो महीने आठ दिन से चला आ रहा मातम ख़त्म हो जाता है और ईद-ए-ज़हरा का जश्न होता है.
मोहर्रम में शिया औरतें चूड़ियाँ तोड़ देती हैं और उनकी कलाई सूनी रहती है.ईद-ए-ज़हरा के दिन चूड़ियाँ फिर से पहनी जाती हैं और काले लिबास को छोड़कर रंगीन कपड़े भी औरतें और मर्द पहनते हैं.ईद-ए-ज़हरा के दिन खाने की वो सब नियामतें तैयार होती हैं जिनसे मातम के अशरे में शिया हज़रात दूर रहते हैं.दावतें होती हैं और ईद के जश्न जैसा माहौल शियों के बीच होता है.दावत में जाने पर सक्षम शिया एक दूसरे को वैसे ही उपहार देते हैं जैसे इज़राइल में यहूदी लोग अपने त्योहारों पर दावत में आने और जाने पर एक दूसरे को उपहार देते हैं.
ईद-ए-ज़हरा से एक दिन पहले मतलब कल आठवीं रबी-उल-अव्वल को लखनऊ में चुप ताज़िये का जुलूस निकलता है जो इस बार पाँच अक्टूबर को निकलेगा.संयोग से इस बार पाँच अक्टूबर को दशहरा भी है.चुप ताज़िए की रवायत लखनऊ से शुरू हुई है और ये ख़ालिस लखनवी रवायत है.चुप ताज़िया निकालने के पीछे की वजह भी ख़ासी दिलचस्प है जो अब कम ही लोग जानते हैं.लोग समझते हैं कि चुप ताज़िया हमेशा से चला आ रहा है,लेकिन ऐसा नहीं है.चुप ताज़िये का जुलूस लखनऊ से ही शुरू हुआ.
दरअसल लखनऊ में ब्रिटिश दौर में एक नवाब शौक़त जंग हुआ करते थे जो मशहूर अज़ादार भी थे.किसी ने उनको क़त्ल के एक झूठे मुक़दमें में फंसा दिया.नवाब शौक़त जंग ने ये मन्नत मानी कि वो अगर इस झूठे मुक़दमे से बरी हो गए तो ताज़िये का जुलूस निकालेंगे.नवाब शौक़त जंग बरी हो गए लेकिन अब तो चहेल्लुम भी बीत चुका था.उसके बाद ताज़िया निकालने की रवायत तो थी नहीं,अब क्या किया जाए.तो उन्होंने इमाम हसन अस्करी की शहादत की याद में आठवीं रबी-उल-अव्वल को ताज़िया जुलूस निकालने की ठान ली.उस दौर में ब्रिटिश हक़ूमत थी और लखनऊ में अंग्रेज़ कलेक्टर था.नवाब ने कलेक्टर से इजाज़त मांगी,अंग्रेज़ कलेक्टर ने इजाज़त तो दे दी लेकिन ये भी शर्त रखी कि कोई सीनाज़नी नहीं होगी,ना मातम होगा और ना ज़जीरज़नी होगी.ताज़िये का जुलूस चुपचाप निकलेगा.
नवाब ने शर्त मान ली और तभी पहली बार चुप ताज़िये का जुलूस निकला जो ख़ामोशी से निकला.चुप ताज़िये के जुलूस को शोहरत मिली तो जहाँ-जहाँ शिया मुसलमानों की बस्तियाँ आबाद थीं वहाँ चुप ताज़िये का जुलूस निकलने लगा.मसलन इलाहाबाद,हैदराबाद और जौनपुर और पाकिस्तान के कराची वग़ैरह में भी चुप ताज़िये का जुलूस निकलता है.लखनऊ में इमामबाड़ा नाज़िम साहब से चुप ताज़िए का जुलूस निकलता है और रौज़ा-ए-काज़मैन पहुंचता है.इसी दिन मातम का आख़िरी दिन होता है और अगले दिन ईद-ए-ज़हरा की ख़ुशियाँ मनाई जाती हैं.लखनऊ का अपना एक कल्चर है और चुप ताज़िया जैसा लखनऊ में निकलता है और ईद-ए-ज़हरा का जश्न जैसा यहाँ होता है वैसा कहीं और नहीं होता.अब निन्यानबे परसेंट सुन्नी मुसलमान और उतने ही हिंदू हज़रात तो ईद-ए-ज़हरा के बारे में जानते ही नहीं,ना चुप ताज़िए के जुलूस के बारे में इल्म रखते हैं.ईद-ए-ज़हरा को लखनऊ का शाह नजफ़ इमामबाड़ा ख़ूब शानदार सजता है,रोशनी होती है,परिसर में मेला लगता है,हर तरह की स्टालें सजती हैं.इस बार भी शाहनजफ़ इमामबाड़े में ईद-ए-ज़हरा की धूम रहेगी.शिया हज़रात एक दूसरे को ईद-ए-ज़हरा की मुबारकबाद देंगे.तस्वीर में तीन बरस पहले ईद-ए-ज़हरा की शाम शाहनजफ़ इमामबाड़े के सामने हम नज़र आ रहे हैं.हम शिया नहीं हैं लेकिन ईद-ए-ज़हरा के जश्न में शामिल होते हैं,जितने त्योहार उल्लास के हैं वो मेरे हैं,चाहे हिंदू का हो या शिया का हो या सिख ईसाई-पारसी का हो.
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