संजय कुमार सिंह
नई दिल्ली .किसान कानून को डेढ़ साल टालने के क्या मतलब हो सकता हैं? आइए इसे समझते हैं. अभी से डेढ़ साल मतलब हुआ 2022 का जून-जुलाई. केंद्र सरकार का कार्यकाल 2024 के मई तक है. यानी डेढ़ साल टलने के बाद केंद्र सरकार के पास डेढ़ साल और रहेगा. क्या डेढ़ साल टाला गया किसान कानून अगले डेढ़ साल के लिए खत्म नहीं किया जा सकता है. इतने भारी विरोध के बावजूद जबरदस्ती थोपे गए कानून को वापस नहीं लेने, रद्द नहीं करने का कुछ मतलब होगा और राजनीति में यह साधारण बात नहीं है. डेढ़ साल टालने का प्रस्ताव ही अपने आप में अटपटा है. जब यह पेशकश आई थी तो किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने कहा था कि खूंटा हिल गया और इसी तरह चोट करते रहने से निकल भी जाएगा. सत्य हिन्दी पर एक चर्चा में मैंने कहा था कि किसानों को डेढ़ साल वाला प्रस्ताव नहीं मानना चाहिए. सरकार को किसानों की मांग माननी पड़ेगी.
मेरा मानना था और अब भी है कि भागते भूत की लंगोटी भली वाले अंदाज में इसे स्वीकार करने की सलाह देने वाले कहेंगे कि सरकार न मानी तो यह भी नहीं मिलेगा. पर मेरा कहना है कि नहीं मिलेगा तो डेढ़ साल बाद क्या फिर आंदोलन होगा या करना पड़ेगा. और मानना है तो अभी ही क्यों नहीं. करीब 100 किसानों की शहादत के बाद अगर कानून डेढ़ साल टलता है तो क्यों नहीं अगले चुनाव में भाजपा को हराने की तैयारी की जाए. तब मेरा मानना था कि सरकार नहीं मानेगी तो राजनीतिक दांव चलेगी और उसका मुकाबला वैसे ही करना होगा. डेढ़ साल धरना चलाने में जो धन और ऊर्जा खर्च होगा उतने में सरकार के खिलाफ असरदार अभियान चलाया जा सकता है और क्या सरकार उसके लिए तैयार होगी? इसलिए मैं कृषि कानूनों को पूरी तरह वापस लिए जाने तक आंदोलन के पक्ष में हूं.
सरकार अपने ढंग से उसे तोड़ दे, खत्म कर दे तो उसका नुकसान उसे होगा. वापस लेगी तो भी नुकसान हो सकता है. पर खूंटा हिलने के बाद समझौता करने का मतलब नहीं है. उसके बाद 26 जनवरी आई और तबसे बहुत कुछ हो चुका है. जहां तक कृषि कानूनों का सवाल है, जबरन थोपा गया है, भारी विरोध है और समर्थन दिखाने की कोशिश नाकाम हो चुकी है. इसमें खास बात यह भी है कि योगी आदित्यनाथ ने कृषि कानून के प्रति समर्थन दिखाने की वैसी कोशिश नहीं की है जैसी हरियाणा के मुख्यमंत्री ने की थी और नाकाम रहे. बेशक इसका भी कोई कारण होगा. और समग्रता में देखिए तो सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी इतनी आसान नहीं है.
अब मैं कह सकता हूं कि किसानों ने जोखिम लिया और अभी तक वे जीते हुए हैं. आगे का कुछ कहा नहीं जा सकता है पर अब जो स्थिति है उसमें लग रहा है कि किसान आंदोलन का असर हरियाणा के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छा खासा हुआ है. भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश का अलग महत्व है और खेती-किसानी का मामला राज्यों को होता था जिसे कृषि कानून के जरिए केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है. अब अगर यह आंदोलन चल रहा है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति पर उसका असर होगा और निश्चित रूप से अगर कोई सबसे ज्यादा प्रभावित होगा तो वह हैं मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ. भाजपा की अभी तक की राजनीति के अनुसार अगले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री की आयु उन्हीं के बनाए मार्गदर्शक मंडल की हो जाएगी. नंबर दो या केंद्रीय गृहमंत्री 50 साल राज करने का दावा कर चुके हैं और योगी आदित्यनाथ जिस ढंग से काम कर रहे हैं उससे वे भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार बताए जा रहे हैं.
सरकार चलाने वालों की यह टीम नरेन्द्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है, प्रचारित करने के साथ राहुल गांधी को अगर पप्पू साबित करती है तो एक समय राजनीति में तेजी से तरक्की कर रहे नीतिश कुमार को राजनीतिक रूप से बर्बाद कर चुकी है. अब जो राजनीति हो रही है उसमें क्या योगी आदित्यनाथ के पर कतरने की तैयारी नहीं लगती है? अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा का प्रदर्शन खराब होता है तो क्या उसके बाद होने वाले लोकसभा चुनावों के बाद योगी आदित्यनाथ की स्थिति उतनी ही मजबूत रहेगी? बेशक यह सब आने वाला समय बताएगा. पर उनसे नुकसान जिसे है वह क्या चुप बैठा रहेगा? इसलिए जो हो रहा है उसे ठीक से देखने समझने की जरूरत है. वैसे भी राजनीति में कौन किसके लिए बैटिंग कर रहा है समझना मुश्किल होता है.
उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 14 नवंबर 2022 को खत्म होगा. 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा हुई थी और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को भारी बहुमत मिला था. नोटबंदी के बाद बहुजन समाज पार्टी का खाता बंद कर दिया गया था और दूसरी पार्टियों को भी नकद की दिक्कत हुई ही होगी. चुनाव के समय ही और बाद में भी महसूस किया गया कि भाजपा की अपनी तैयारी थी और ऐसे में बहुमत मिलने का कारण आप चाहे नोटबंदी को न मानिए पर अब फिर उसी पैमाने पर तैयारी हो रही हो तो उसे समझने की कोशिश जरूर कीजिए. इतना सब होने के बाद केंद्र सरकार अगर कहती कि हम बात नहीं करेंगे, हम इससे ज्यादा दे नहीं सकते तो बात समझ में आती.
सिर्फ फोन कॉल की दूरी पर होने का मतलब यह भी हो सकता है जो मिल रहा है वह लेकर जाओ, खुश रहो. किसानों के बीच पार्टी के समर्थन का जो नुकसान होना था हो चुका. कोई रास्ता भी तो नहीं है. और किसान अगर नहीं माने तो योगी जी ये नहीं कह सकते कि इस मुद्दे को जानबूझकर खत्म नहीं किया गया और उनका राजनीतिक नुकसान किया गया. वे भी नहीं चाहेंगे कि सरकार कानून वापस ले और पार्टी की नाक कटे. इसलिए आप चाहें तो मान लीजिए कि मामला फंसा हुआ है या यह समझिए कि फंसाया गया है या फिर यह भी कि कोई विक्लप नहीं था. डेढ़ साल का मतलब हुआ 2022 का जून-जुलाई और अक्तूबर तक उत्तर प्रदेश के चुनाव होने हैं. अगर सब ठीक हो गया तो केंद्र सरकार के पास उस समय मामले को गर्म करने के लिए तैयार उपाय रहेगा.
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