अंबरीश कुमार
हम कन्याकुमारी में थे .तीन समुद्र से घिरा हुआ .और समुद्र के ऐसे रंग जो लगातार बदलते रहते .एक दो नहीं तीन समुद्र .जिनका पानी भी अलग अलग .एक दूसरे में घुलता भी नहीं .समुद्र तट से विवेकानंद रॉक मेमोरियल तक जाएँ तो यह अनुभव भी मिल जायेगा .यह मशहूर हुआ कन्याकुमारी मंदिर से जो इस शहर का मुख्य आकर्षण है. इसे कन्याकुमारी भगवतीअम्मन मंदिर के नाम से भी जाना जाता है. कुमारी अम्मन मंदिर मूल रूप से आठवीं शताब्दी में पंड्या राजवंश के राजाओं ने इसे बनाया था. बाद में इसे चोल, विजयनगर और नायक शासकों ने इसका जीर्णोधार कराया .
किंवदंतियों के अनुसार, देवी कन्याकुमारी और भगवान शिव के बीच विवाह नहीं हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप देवी ने कुंवारी रहने का दृढ़ संकल्प लिया था. ऐसा माना जाता है कि शादी के लिए जो चावल और अनाज थे, वे बिना पके रह गए और वे पत्थरों में बदल गए.अनाज से मिलते जुलते पत्थर आज भी देखे जा सकते हैं.हम इस मंदिर में गए और देवी कन्या कुमारी की आकर्षक मूर्ति को देखते रह गए . देवी की हीरे की नथ की चमक दूर से ही आकर्षित करती है .सामने ही समुद्र के तीन रंग दिख रहे थे .जिनके बीच रॉक मेमोरियल दूर से नजर आ रहा था .
बात सत्तर के दशक के अंतिम दौर की है .हम लोग कन्याकुमारी के विवेकानंद पुरम रात करीब दस बजे पहुंचे .रास्ते में बरसात और तेज हवा से ठंढ भी महसूस हो रही थी .अंधेरी रात थी .तिरुनेलवेली जंक्शन पर उतरे और जो बस मिली वह रास्ते में खराब हो गई .वह भी निर्जन में .आसपास कुछ नहीं .सड़क के दोनों ओर नारियल के पेड़ . बरसात और तेज हवा में लहराते नारियल के पत्तों की आवाज माहौल को रहस्मयी बना रही थी . कन्याकुमारी में रुकने की व्यवस्था विवेकानंदपुरम में थी .तब ज्यादातर लोग रुकते भी वहीं थे .काफी बड़ा परिसर समुद्र तट पर .अलग अलग तरह के कमरे .बड़ा भोजन कक्ष जिसमें एक बार में एक बारात तक खाना खा ले .सुबह करीब पांच बजे काफी देने के साथ ही सूर्योदय दिखाने के लिए बस तैयार खड़ी रहती .इसे एक बड़ी धर्मशाला ही मानना चाहिए .
खैर हम लोग जब पहुंचे तो भोजन का समय ही खत्म हो चुका था .भोजन कक्ष के प्रबंधन ने देखा छह लोगों का परिवार था .उसने कहा ,थोड़ी देर रुक जाइये राजस्थान से मारवाड़ी लोगों का एक समूह आ रहा है उनका खाना बन रहा है तभी खिला देंगे .कुछ देर बाद जो भोजन केले के पत्ते पर परोसा गया वह दिव्य था .चावल ,सांभर ,दो तरह की सूखी सब्जी ,अचार ,पापड़ और मठ्ठा .मन तृप्त हो गया .सादा भोजन से ही .दरअसल राजस्थान की वजह से स्वाद अपने उत्तर भारत का मिला और वह भी थाली जैसा .अब थाली परम्परा खत्म हो रह है .पर आज भी मन तो इसी से भरता है .मैसूर में बस अड्डे के पीछे जो मारवाड़ी भोजनालय है उसमे एक बार ऐसा ही भोजन किया .वे रोटी सेक कर देते थे पहले की रखी नहीं .मंदिरों में भी भोजन /प्रसाद की परम्परा कुछ ऐसी ही रही .चाहे बांके बिहारी मंदिर हो या फिर इस्कान का मंदिर या राजस्थान के वैष्णव मंदिर .वे बहुत ही सादा पर दिव्य भोजन देते है .पहली बार जब गए तो कोई फोटो नहीं ली क्योंकि कैमरा नहीं था .फिर तीसरी बार जब गए तो अस्सी का दशक खत्म हो रहा था .शादी के बाद जाना हुआ .तब समुद्र तट पर भीड़ नहीं होती थी .एक फोटो तब मैंने ली सविता की वही फोटो यह है .जारी
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