प्रमोद मालिक
यहूदियों का दावा है कि रोमन साम्राज्य ने सन् 70 में येरूशलम पर कब्जा कर 500 साल पुराने उनके मंदिर को ध्वस्त कर उसमें आग लगा दी और सारे यहूदियों को वहाँ से खदेड़ दिया. उसी ज़मीन पर इज़रायल और फ़लस्तीन बना हुआ है.
एक ही सरज़मीन की दो नस्लें जो भाषा, धर्म, संस्कृति और दूसरी कई चीजों में एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं, ज़मीन के उस टुकड़े के लिए लड़ रही हैं जिस पर दोनों अपने अधिकार का दावा करती हैं, जो दोनों के ही अस्तित्व के लिए ज़रूरी है, जो उनमें से किसी के लिए सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं है. लगभग 26 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैले इस इज़रायल-फ़लस्तीन के लिए जितना ख़ून बहा है, जितना संघर्ष हुआ है, उतना दुनिया में किसी जगह के लिए नहीं हुआ है. न ही दूसरे किसी संघर्ष ने विश्व राजनीति और पूरी मानवता को इस तरह प्रभावित किया है.
यहूदियों का दावा है कि रोमन साम्राज्य ने सन् 70 में येरूशलम पर कब्जा कर 500 साल पुराने उनके मंदिर को ध्वस्त कर उसमें आग लगा दी और सारे यहूदियों को वहाँ से खदेड़ दिया. यह शुद्ध रूप से राजनीतिक संघर्ष था, क्योंकि उस इलाक़े के लोगों ने रोमन साम्राज्य को टैक्स देना बंद कर दिया था और ख़ुद को आज़ाद घोषित कर दिया था. उस समय तो इसलाम आया भी नहीं था और ईसाई धर्म का कोई प्रभाव नहीं था.
संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट
लेकिन यहूदियों का मानना है कि यहूदी धर्म के संस्थापक पैगंबर मूसा ने इसी धरती पर यहूदियों का राज होने की बात कही थी. इस धरती पर अपना खोया अधिकार वापस पाने के लिए यहूदियों ने ठोस और निर्णायक अभियान की शुरुआत 1947 में की.
द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद 15 मई, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक समिति का गठन किया, जिससे यह कहा गया कि वह फ़लस्तीन की ज़मीन और यहूदियों के लिए अलग देश के सवाल पर रिपोर्ट दे. दिलचस्प बात यह है कि इस समिति में भारत भी शामिल था.
इस समिति ने 1 सितंबर 1947 को जो रिपोर्ट सौंपी, उसमें यह कहा गया कि फ़लस्तीन की मौजूदा सीमा के अंदर अरबों का एक देश बने, यहूदियों का एक अलग स्वतंत्र देश बने और येरूशलम शहर को संयुक्त राष्ट्र के नियंत्रण में रखा जाए.
इसके मुताबिक़, लगभग 15 हज़ार वर्ग किलोमीटर में अरबों का देश फ़लस्तीन होगा, जो अरब -मुसलिम बहुसंख्यक होगा, लेकिन वहाँ रह रहे यहूदी अल्पसंख्यक भी वहाँ समान हक़ों के साथ बने रहेंगे. इसके अलावा लगभग 11 हज़ार किलोमीटर में यहूदियों का स्वतंत्र देश होगा, जिसमें वहाँ रह रहे अल्पसंख्यक मुसलमान अरब समान अधिकारों के साथ बने रह सकेंगे. इसके अलावा येरूशलम और बेथलेहम को संयुक्त राष्ट्र के तहत रखा जाएगा.
येरूशलम-बेथलेहम
येरूशलम यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के लिए समान रूप से पवित्र है, क्योंकि यहूदियों के पहले मंदिर के अवशेष और टेंपल माउंट हैं तो मक्का-मदीना के बाद मुसलमानों का तीसरा सबसे पवित्र धर्म स्थान अल अक्सा मसजिद भी येरूशलम में है. बेथलेहम ईसा मसीह का जन्म स्थान है और वह स्थान भी जहाँ उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया था और दफ़नाया गया था. इन जगहों पर चर्च ऑफ़ नेटिवटी और चर्च ऑफ होली सेपल्चर बने हुए हैं.
संयुक्त राष्ट्र महासभा की इस रिपोर्ट को 29 नवंबर, 1947 को मतदान के लिए रखा गया, इसके पक्ष में 33 देशों ने वोट दिया तो इसके ख़िलाफ़ 13 देशों ने मतदान किया जबकि 10 देश मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे.
अरब समुदाय ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया क्योंकि वे किसी भी सूरत में ज़मीन साझा नहीं कर सकते थे
अरब मुसलमानों का का मानना था कि यहूदियों को यहां बसाने की नीति ही ग़लत है, क्योंकि उनका दावा था कि यह ज़मीन अरबों की है और यहूदी इस ज़मीन पर अरबों की कीमत पर ही बसाए जाएंगे. कुछ यहूदी भी इससे नाराज़ थे क्योंकि वे पूरी की पूरी ज़मीन चाहते थे. बेन गुरियन उस समय यहूदी राजनीति में अपनी जगह बना रहे थे और उन्होंने विश्व यहूदी सम्मेलन को इस प्रस्ताव के लिए यह कह कर राज़ी कराया कि यह यहूदी राज्य के दिशा में पहला कदम तो है.
इज़रायल राज्य की घोषणा
जिस दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्ताव पारित हुआ, उसके अगले ही दिन यहूदियों और मुसलमानों के बीच दंगे भड़क उठे. यहूदियों के हथियारबंद संगठन हगैना, इरगुन और अरब मुसलमानों के बीच जफ़ा, तेल अवीव और हैफ़ा में हिंसक झड़पें हुईं. उनके बीच पथराव हुआ, गोलियां चलीं, बम फेंके गए, मोलोटोव कॉकटेल फेंक कर आगजनी की गई. प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने वाले पोलैंड और स्वीडन के वाणिज्य दूतावास पर बमबाजी हुई.
ब्रिटेन के सैनिकों ने हिंसा रोकने की कोई खास कोशिश नहीं की. हिंसा की मुख्य वजह फ़लस्तीनियों का गुस्सा था कि उनकी ज़मीन पर किसी और को बसाया जाएगा और उन्हें अलग देश दे दिया जाएगा. जिस दिन ब्रिटिश मैंडेट ख़त्म हो रहा था, उसके एक दिन पहले यानी 14 मई, 1948 को बेन गुरियन ने इज़रायल राज्य के स्थापना की घोषणा कर दी.
यहूदियों से क्यों नाराज़ थे मुसलमान?
इसके अलावा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पोलैंड, जर्मनी, यूक्रेन से हिटलर के अत्याचार से बचाए गए यहूदी शरणार्थियों को जिस तरह उस इलाके में बसाया गया था और उनकी संख्या तेज़ी से बढ़ी थी, उसे लेकर भी तरह-तरह की आशंकाएं थी. अमेरिका और यूरोप के कई देशों से पैसे एकत्रित कर यहूदी संस्थाओं ने वैध तरीके से ज़मीन खरीद कर यहूदी बस्तियाँ बसा ली थीं.
दूसरा और बड़ा कारण यहूदियों का संगठन 'हगाना' था. आत्मरक्षा के नाम पर बना यह संगठन पूरी तरह हथियारों से लैस था, कट्टरपंथी विचारों से ओतप्रोत और मुसलिम विरोधी भावनाओं से भरा था. उसने कई मुसलिम इलाक़ों पर हमले किए और लोगों को मारा पीटा, हत्याएं कीं. मुसलमानों में इसके ख़िलाफ़ नफ़रत पहसे से ही थी.
प्रथम इज़रायल-अरब युद्ध
जिस दिन ब्रिटिश मैंडेट ख़त्म हुआ, उसी दिन यानी 15 मई, 1948 को जोर्डन, सीरिया, मिस्र और इराक़ ने इज़रायल की स्थापना की घोषणा के ख़िलाफ़ युद्ध का एलान कर दिया. जल्द ही इसमें लेबनान भी शामिल हो गया.इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र को यह तर्क दिया कि चूंकि ब्रिटिश मैंडेट ख़त्म हो चुका है और कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है, लिहाज़ा वे हस्तक्षेप कर रहे हैं.
इस युद्ध का नतीजा यह हुआ कि नवनिर्मित इज़रायल ने प्रस्तावित फ़लस्तीन के कई इलाक़ों पर कब्जा कर लिया. साल 1948 में युद्ध विराम पर सहमति बनी. मिस्र ने गज़ा पट्टी और जोर्डन ने पश्चिमी तट पर कब्जा कर लिया. येरूशलम के दो हिस्से कर दिए गए-पूर्वी येरूशलम पर जोर्डन ने क़ब्जा कर लिया तो पश्चिमी येरूशलम इज़रायल के हिस्से रहा.
इस तरह फ़लस्तीन बनने के पहले ही बिखर गया, उस पर कब्जा मुसलमानों का ही रहा, लेकिन वह फ़लस्तीन राज्य तो नहीं ही था. वह मिस्र, सीरिया, जोर्डन और इज़रायल में बंट गया.
नक़बा!
दंगों और बड़े पैमाने पर हुई हिंसा के कारण अरबों को अपनी ही ज़मीन से पलायन करना पड़ा, लगभग सात लाख फ़लस्तीनियों ने भाग कर पास के देशों मिस्र, सीरिया, जोर्डन, लेबनान में शरण ली. हालांकि इजऱायल ने एक लाख शरणार्थियों को वापस लेने और उन्हें नागरिकता देने की पेशकश की, लेकिन इसे अरब देशों ने इस आशंका से खारिज कर दिया कि ऐसा करना इज़रायल के अस्तित्व को स्वीकार करना होता. इसे 'नक़बा' यानी महाविनाश कहा जाता है.
वे फ़लस्तीनी अपने घर कभी नहीं लौट सके, वे आज भी अलग-अलग देशों में बने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं.
इसी तरह लगभग आठ लाख यहूदियों को भी लीबिया, इराक़, सीरिया, लेबनान से भागना पड़ा. वे सब इज़रायल पहुँचे जहाँ उनका न सिर्फ़ स्वागत किया गया, बल्कि ज़मीन और दूसरी सुविधाएं देकर बसाया गया.
इससे इज़रायल में यहूदियों की आबादी यकायक बहुत बढ़ गई, इस सिद्धांत को बल मिला कि इज़रायल यहूदियों के लिए है. दूसरी बात यह हुई कि इज़रायल में कट्टरता बढ़ी क्योंकि अपने घरों से भाग कर इज़रायल पहुँचे इन लोगों के मन में कटुता थी और मुसलमानों के लिए नफ़रत.
छह दिनों का युद्ध
इज़रायल फ़लस्तीन विवाद का अगला और बहुत ही बड़ा व निर्णायक मोड़ 1967 में आया, जब एक तरफ इज़रायल तो दूसरी तरफ मिस्र, जोर्डन व सीरिया में युद्ध हुआ. इज़रायल का यह आरोप था कि मिस्र ने गज़ा पट्टी में फलस्तीनी चरमपंथियों को यहूदी बस्तियों पर हमला करने में मदद की. उसने पहले मिस्र पर हमला किया, इस लड़ाई में सीरिया और जोर्डन भी शामिल हो गए. इन देशों ने एलान किया कि अब इज़रायल का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा. लेकिन अमेरिकी साज़ो-सामान से लैस इज़रायल ने तीनों देशों को हरा दिया.
छह दिनों तक चले इस युद्ध में इज़रायल ने मिस्र से गज़ा पट्टी, सीरिया से गोलान की पहाड़ियाँ और जोर्डन से पूर्वी येरूशलम व पश्चिमी तट छीन लिया. इस युद्ध के पहले इज़रायल जितने बड़े इलाक़े में था, उसके दूने से ज़्यादा इलाक़े पर उसक कब्जा युद्ध के बाद हो गया. इस युद्ध के दूरगामी नतीजे निकले. पश्चिमी येरूशलम पर इज़रायल कब्जा पहले से था, पूर्व येरूशलम पर कब्जे के बाद इस पवित्र भूमि पर इज़रायल का कब्जा हो गया जिसका सपना यहूदी सदियों से देख रहे थे. इससे उनमें धार्मिक कट्टरता बढ़ी, मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैलाने वाले तत्वों का प्रभाव बढता गया.
युद्ध और उसमें जीत के कारण एक तरह का कट्टर राष्ट्रवाद उभरा जो इज़रायल के प्रति प्रेम के कारण कम और मुसलमानों और अरबों के प्रति नफ़रत पर ज़्यादा टिका हुआ था. धीरे-धीरे इज़रायल समाज व बौद्धिक वर्ग ही नहीं, सेना जैसे प्रतिष्ठानों में भी यह नफ़रत बढ़ने लगी, अंध राष्ट्रवाद फैलने लगा. मुसलमानों को अपना भाई मानने वाले यहूदी बुद्धिजीवी हाशिए पर ढकेल दिए गए.
ओ येरूशलम!
येरूशलम पर कब्जे के बाद यह लगभग मान लिया गया कि इज़रायल अब पूर्वी येरूशलम को किसी हालत में नहीं ख़ाली करेगा. मुसलमानों का तीसरा सबसे पवित्र धर्म स्थल उनके हाथ से निकल गया, जिसे फिर से पाना अब तक सपना ही बना हुआ है. इसे फिर से पाना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा.
हालांकि इज़रायल ने इसे अब तक अपनी राजधानी नहीं बनाया है, लेकिन मौजूदा प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू इसकी मंशा ज़ाहिर कर चुके हैं. डोनल्ड ट्रंप ने इस शहर में वाणिज्य दूतावास खोलने का एलान कर अमेरिकी मंशा भी ज़ाहिर कर दी है. यह बात और है कि फ़लस्तीनी पूर्वी येरूशलम को ही अपना प्रस्तावित राजधानी मानते रहे हैं, कुछ तो अब भी ऐसा ही मान रहे हैं.
भविष्य की किसी भी बातचीत में येरूशलम एक ऐसा मुद्दा बन गया, जिस पर कोई भी पक्ष एक इंच भी नहीं हट सकता है. यह रणनीतिक व भौगोलिक कम, धार्मिक, भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक कारण अधिक बन गया. दूसरी ओर अरब देशों ने एलान कर दिया कि वे इज़रायल को मान्यता कभी नहीं देंगे, उससे किसी तरह की कोई बातचीत नहीं करेंगे और उनसे शांति भी नहीं चाहिए. वे उसे मिटा कर रहेंगे.
यह दावा खोखला साबित हो चुका है. जोर्डन, मिस्र, लेबनान, सीरिया ने इज़रायल को पहले ही मान्यता दे दी. संयुक्त अमीरात और बहरीन ने 15 सितंबर 2020 में इसे मान्यता दे दी. डेविड और सोलोमन के येरूशलम पर ख़ुद को उनका वंशज कहने वालों ने क़ब्ज़ा कर लिया है, लेकिन उन महान राजाओं की दयालुता और न्यायप्रियता को तिलांजलि दे कर. हज़रत मूसा की यह ज़मीन तो है, पर क्या उन्होंने इसी ज़मीन की बात कही थी जो हिंसा, छल-प्रपंच और अन्याय पर टिका हो. निश्चित तौर पर नहीं.जारी सत्य हिंदी डाट काम ,फोटो साभार
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