नेहरू नहीं होते तो सत्यानाश हो जाता- इश्तियाक़ अहमद

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नेहरू नहीं होते तो सत्यानाश हो जाता- इश्तियाक़ अहमद

भारत विभाजन -2 

हिंदू -मुसलिम रिश्तों और इस महादेश के विभाजन के गंभीर अध्येता और लेखक प्रोफेसर इश्तियाक़ अहमद से इन्ही मुद्दों पर साहित्यकार विभूति नारायण राय लंबी बात की है. सत्य हिन्दी इसे तीन खंडों में प्रस्तुत कर रहा है. पेश है दूसरी कड़ी. 
 
भारतीय उपमहाद्वीप में प्रोफेसर इश्तियाक़ अहमद का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं. हिंदू -मुसलिम रिश्तों और इस महादेश के विभाजन के गंभीर अध्येता और छात्र, सभी  इशतियाक़ अहमद को जानते हैं. इतिहास और राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में उनकी अपनी पहचान है. हाल ही में उनकी दो पुस्तकें आईं जो काफी चर्चित भी रहीं. पहली पुस्तक - 'पंजाब-ब्लडीड, पार्टीशन्ड ऐंड क्लीनज्ड' कुछ सालों पूर्व आई थी और फिर चंद महीने पहले 'जिन्ना' प्रकाशित हुई. 

दोनों किताबें हर गंभीर अध्येता के लिये ज़रूरी दस्तावेज़ हैं हिंदू मुसलिम रिश्तों को समझने के लिये, देश के विभाजन को समझने के लिये. इस उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक सियासत को समझने में भी दोनों पुस्तकें काफी मदद करती हैं. किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए ये ज़रूरी किताबें हैं. इन किताबों के ज़रिए एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है कि हिंदू मुसलमान साथ क्यों नहीं रह सके ? 
 
इश्तियाक़ पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश नागरिक हैं जो स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र और इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं. हालांकि वे अब रिटायर हो गए हैं, लेकिन अब भी उनका यूनिवर्सिटी से संबंध बना हुआ है. इसके अलावा पाकिस्तानी पंजाब के कई विश्वविद्यालयों में वे विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जाते रहे हैं. 

पूर्व पुलिस अधिकारी और हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार विभूति नारायण राय के साथ विभाजन, हिंदू-मुसलिम रिश्तों, कांग्रेस और मुसलिम लीग की सियासत के अलावा सामाजिक-सियासी मुद्दों पर इश्तियाक़ अहमद के बीच गुफ्तगू हुई. सत्य हिंदी डॉटकाम के लिए हुई इस दिलचस्प संवाद से इतिहास के नए दरीचे खुलते हैं और पुरानी धारणायें ध्वस्त होती हैं. पढ़ें पूरी गुफ्तगू की दूसरी किश्त - 
विभूति नारायण रायः आपने जो कहा इस संदर्भ में मुझे याद आ रहा है कि लार्ड वावेल ने इसलिये महात्मा गांधी को कभी माफ़ नहीं किया. लॉर्ड वावेल तो दूसरे विश्व युद्ध में एक फ़ौजी कमांडर के तौर पर लड़ रहे थे.  कोई भी ऐसा प्रयास जो उस दौरान अंग्रेजों के फ़ौजी अभियान में रुकावट खड़ा कर रहा था, उसे वे माफ़ करने के लिए तैयार नहीं थे. 

इसी से जुड़ा एक सवाल है जो मेरे जैसे आदमी को बेचैन कर देता है. एक तर्क हमारे यहाँ  दिया जाता हैऔर इसे मुसलमान भी देते हैं और लिबरल व सेक्युलर सोच के हिंदू भी. जैसे फैजान मुस्तफ़ा साहब हमारे यहाँ हैं लिबरल-माडर्न बुद्धजीवी हैं तो इनके बरक्स ओवैसी हैं जो कट्टर रैडिकल पार्टी के नेता हैं, तर्क देते हैं कि बँटवारे के समय भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाने का मौका मिला था लेकिन मुसलमानों ने हिंदुस्तान में रहना पसंद किया क्योंकि वे इस धरती से प्यार करते थे. मैं जब यह सुनता हूं तो थोड़ा दिक्कत आती है हालांकि आपकी पंजाब वाली किताब से यह दिक्क़त थोड़ी कम हुई. 

मैं उनसे यह पूछना चाहता हूं कि जो सिख या हिंदू उधर से आए थे, क्या वे अपनी धरती से प्यार नहीं करते थे, उन्हें जैसे ही पहला मौका मिला वहाँ से भाग कर हिंदुस्तान आ गए. बहुत सारी कहानियाँ हैं, पंजाबी में, उर्दू में और हिंदी में भी. आपने पंजाब वाली किताब में कई सारे इंटरव्यू छापे हैं, जिनमें यह कहानी आती है कि एक बूढ़ा सिख जो है वह नम आँखों से अपना पूरा घर देखता है, बूढ़ी बीवी के साथ जितना कुछ बाँध सकता है गठरी में बाँध लेता है. एक-एक कमरे में जाता है उसमें ताले लगाता है, बाहर आता है और मेन गेट पर ताला लगा कर अपने मुसलमान पड़ोसी से कहता है कि यह चाभी रखो, दो-चार महीने में लौट आऊंगा. लेकिन वे दो-चार महीने कभी नहीं आए. 

आपने इसका बहुत अच्छा जिक्र किया है कि रावलपिंडी में मार्च 1947 में जो दंगे हुए उसमें करीब 10 हजार सिखों को मारा गया और बहुत सारे सिख परिवारों को भगाया गया तो उसका नतीजा यह हुआ कि गुड़गाँव से लेकर अमृतसर तक जो पंजाब था, हिंदू-सिख मेज़ारिटी वाला पंजाब था उसमें उन्माद पनपा, दिल्ली में भी इसका असर दिखा. लेकिन गांधी जी जैसी शख्सियत थी जो अनशन पर बैठ गए और गांधी ने हिंदू व सिख नेताओं के सामने अनशन तोड़ने की एक शर्त यह भी रखी और उनसे काग़ज़ पर दस्तखत कराए कि न सिर्फ मुसलमानों के वे घर वापस किए जाएंगे, जिन पर कब्जा किया गया है बल्कि उनकी मसजिदों को भी वापस किया जाएगा. 

तो यह कहना कि हिंदुस्तान के मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए, हिंदुस्तान की रोशनख्याल लीडरशिप जिसकी क़यादत जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे, महात्मा गांधी भी पाँच - छः महीने रहे उसे क्या अंडरएस्टीमेट करना नहीं है क्योंकि इन लोगों ने खड़े होकर यहां क्लींजिंग होने नहीं दी, इसके बरक्स पश्चिमी पाकिस्तान में पूरी तरह क्लींजिंग हो गई, एक भी हिंदू या सिख को नहीं रहने दिया गया. तो आपको क्या लगता है कि यह तर्क देना चाहिए कि मुसलमान अपनी धरती से प्यार करते थे इसलिए नहीं गए और इसका मतलब यह कि जो हिंदू या सिख पाकिस्तान से आए वे अपनी धरती से प्यार नहीं करते थे. 

 इश्तियाक़ अहमदः आपने बहुत अच्छा फार्मूलेट क्या है यह सवाल. अभी तक मेरे जेहन में इस तरह से नहीं आया था जिस तरह से आपने इसे फार्मूलेट किया है. आपका शुक्रिया. मैं समझता हूं कि सौ फ़ीसद आपने दुरुस्त कहा है. यह तुलना नहीं हो सकती कि पाकिस्तान में हिंदू व सिखों के साथ जो बर्ताव किया गया और हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ जिस तरह का ट्रीटमेंट किया गया, बहुत मुख़तलिफ़ है. 

पूर्वी पंजाब से सिखों ने मुसलमानों को बाहर निकालने के लिए पूरी योजना बनाई थी. अपनी किताब में उनकी पूरी योजना को मैंने विस्तार से बताया है और उस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता. उसकी वजह थी, मार्च में पश्चिमी पंजाब में जो कुछ उन्होंने किया था सिखों के साथ. यह सही है कि कुछ ऐसे भी मुसलमान थे जिन्हें धरती से प्यार था और वे पाकिस्तान जाना नहीं चाहते थे. इसमें कोई शक नहीं. 

एक क्लासिकल एक्जांपल है प्रोफेसर बृज नारायण का, जो लाहौर के पंजाब यूनिवर्सिटी में इकनॉमिक्स के बहुत बड़े प्रोफेसर थे. इनकी इकनॉमिक्स थ्योरी पूरे हिंदुस्तान में पढ़ाई जाती थी. 
वे पाकिस्तान के समर्थक थे और उन्होंने तर्क दिया था कि पाकिस्तान अगर बनेगा तो वह इकनामिकली फीजिबल होगा. क्योंकि उनका ख्याल था कि विभाजन तो हो जाएगा लेकिन जिन्ना साहब तो पश्चिमी आदमी है, उन्हें इसलाम का पता नहीं है और वे तो यही कहते हैं कि हम मॉडर्न स्टेट बनाएंगे, तो हम यहाँ फिट हो जाएंगे. 

लेकिन लाहौर में अगस्त में फ़सादात हुए. वहाँ पर हमला हुए, मुसलमान हिंदू इलाकों को निशाना बना रहे थे. तो एक समूह बृजनारायण की घर की तरफ आया तो उन्होंने कहा कि मैं तो पाकिस्तान का समर्थक हूँ. हम तो चाहते हैं कि यह सारी जायदाद आप रहने दें क्योंकि यह जायदाद पाकिस्तान की है. तो वह ग्रुप उनकी बातों से सहमत हुआ, उसमें प्रोफ़ेसर का एक स्टूडेंट भी था, उसने उन्हे पहचान लिया और वे चले गए. 

फिर दूसरा ग्रुप आया. उसने प्रोफेसर साहेब का कत्ल कर दिया. उसके बाद उर्दू के मशहूर व्यंग्यकार फ़िक्र तौंसवी ने लिखा कि पंजाब के हिंदू तब तक टिके हुए थे, लेकिन इसके बाद उन्होंने कहा कि अब हम यहाँ नहीं रहेंगे. इसके बाद उन लोगों ने लाहौर छोड़ दिया. सिंध के हिंदू भी हिजरत को तैयार नहीं थे, लेकिन जब बिहार और यूपी से मुसलमान आए, उन्होंने कहा कि हमें घर कहां मिलेंगे तो हिंदुओं पर हमले शुरू हो गए. सिंधी मुसलमानों ने बहुत कम हिंदुओं पर हमले किए. 

पंजाब में तो पुलिस और गुंडों ने मिल कर सिखों व हिंदुओं पर हमला किया. क्योंकि यहां सिखों और हिंदुओं के पास ज़मीन-जायदाद थी. मुसलमान जमींदार थे, लेकिन व्यापार और उच्च शिक्षा तो सारी हिंदुओं के पास थी और कुछ सिखों के पास थी. 

इसके बरक्स हिंदुस्तान में जहाँ-जहाँ कांग्रेस की हुकूमत थी वहाँ मुसलमानों की क्लीनजिंग नहीं हुई. महात्मा गांधी का तो जवाब ही नहीं है. हिंदुस्तान में महात्मा गांधी की जो तंक़ीद (आलोचना) होती है, मुझे यह बात समझ में नहीं आती है. वैसे भारतीयों को ही यह फ़ैसला करना ज्यादा उचित है. लेकिन मैं समझता हूँ कि वे बहुत बड़े इंसान थे. उनकी वजह से और जवाहलाल नेहरू न होते तो हिंदुस्तान का सत्यनाश पहले दिन से हो जाता. यह तो उनके प्रधानमंत्री काल के वह 17 साल हैं जिसने मॉडर्न इंडिया को बचाए रखा है. 

यह जो आजकल की हुक़ूमत है, यह तो वही हुक़ूमत है जो पाकिस्तान में मुसलिम लीग की थी. नरेंद्र मोदी हिंदू मैजोरिटियन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस इंटरव्यू के बाद देखेंगे आप कि ये मेरी कितनी ट्रोलिंग करेंगे, गालियाँ देंगे, ये जो कट्टर हिंदू हैं मेरी इसी बात पर. 

बात सच्ची है कि आज का हिंदुस्तान वह हिंदुस्तान नहीं है जिसका ख्वाब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद ने देखा था. यह वह हिंदुस्तान है, दिस इस फॉर इंडिया टु डिसाइड , इट इज़ फार इंडियंस टु सेट इट राइट. लेकिन पाकिस्तान से तो हिंदुओं और सिखों को भगाया गया. लिहाजा यह कहा जा सकता है कि अगर हिंदुस्तान के 3.5 करोड़ मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए तो उनका न जाना भी स्वीकार्य है, लेकिन उन पर हमले होते तो उनको भागना ही पड़ता. 

इसलिए इसको इस तरह देखना चाहिए. ओवैसी साहेब का नज़रिया इसलिए सही हो सकता है कि उनके परिवार ने फ़ैसला किया हो कि हमें नहीं जाना है. लेकिन उन पर अगर हमला होता जैसा कि पश्चिमी पंजाब में, पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर हुआ था,  उसके बाद हम देखते कि फिर वे क्या करते. 



विभूति नारायण राय : इश्तियाक़ साहेब अभी जो आप कह रहे हैं तो मुझे अलताफ हुसैन साहेब याद आए, हालांकि अलताफ़ हुसैन को लेकर भी विवाद हैं और मैं भी उनका बहुत बड़ा प्रशंसक नहीं हूं. लेकिन उनका एक इंटरव्यू पाकिस्तान के हेराल्ड में पढ़ा था कि विभाजन  इस उपमहाद्वीप के मुसलमानों के साथ सबसे बड़ा मजाक है. विभाजन न होता तो भारत में मुसलमानों की आबादी 30 फ़ीसदी होती और तब दो चीजें नहीं होतीं. एक तो पाकिस्तान में फ़ौज नहीं आती और दूसरी भारत में हिंदुत्व नहीं आता. 

मेरी मित्र हैं फ़हमीदा रियाज़, उन्होंने बहुत ही प्यारी नज़्म कही थी और दिल्ली में आकर कही थी जब अटल जी की सरकार बनी थी. उनकी नज़्म की पंक्तिया थी- 'अब तक कहाँ छुपे थे भाई /तुम बिल्कुल हम जैसे निकले.' 

तो आपने सही कहा कि अभी जो हुक़ूमत है या अटल जी की सरकार थी, तो दोनों हुक़ूमतें भारत को वहीं ले जाना चाहती हैं जहाँ बदकिस्मती से 1947 में पाकिस्तान पहुँचा था. लेकिन जो बहुत ही पाजिटिव चीज है यहाँ, वह यह कि जवाहरलाल नेहरू ने यहाँ बहुत अच्छे और मजबूत इंस्टीट्यूशंस बनाये जिनमें अदालतें थीं, जिनमें फ्री प्रेस था, बहुत सारी लिबरल यूनिवर्सिटियाँ थीं, बहुत सारी संस्थायें थीं, बहुत सारी साईंस लैब्स थीं. 

जो विकास आप देख रहे हैं, वह उनकी देन है. इन लोगों के सारे गड़बड़ करने के बावजूद मेरे जैसे लोग पुरउम्मीद हैं कि ये इन सारे संस्थानों को खत्म न कर पाएँ. यह लंबी बहस हो जाएगी, इस पर फिर कभी विस्तार से हम बात करेंगे. 

लेकिन एक और मसला है जो विभाजन से सीधा जुड़ा नहीं है लेकिन मुझे कई बार विचलित करता है, क्योंकि मैं लगातार कट्टरवाद और हिंदू सांप्रदायिकता के खिलाफ़ लड़ता रहा हूँ तो मुझे ग़लत भी नहीं समझेंगे जब मैं यह बात कहूँगा. मुझे कई बार लगता है कि इसलाम अपने मानने वालों को एक मल्टी रिलिजियस-मल्टी कल्चरल सोसायटी में रहने के लिए प्रशिक्षित नहीं करता है. इसे आप इस तरह देखें कि आज भी दुनिया में मुसलमान लड़ रहे हैं ईसाइयों से, यहूदियों से, सिखों से, हिंदुओं से और रही-सही कसर बौद्धों से भी पूरी हो गई. मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि म्यामार में जो रोहिंग्या के साथ हुआ उसमें मुसलमानों की गलती है. लेकिन सवाल यह है कि हर जगह यही क्यों लड़ रहे हैं. 

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इसलाम अपने मानने वालों को बहुसांस्कृतिक समाज में साथ रहने के लिए ट्रेंड नहीं करता है. जहाँ 10-15 फ़ीसद की आबादी होती है तो कुछ न कुछ मसले खड़े हो जाते हैं. यूरोप में जो हो रहा है, फ्रांस में जो हो रहा है, अभी यूरोपियन यूनियन की संसद ने पाकिस्तान के लिए जो प्रस्ताव पास किया और इसी तरह की दूसरी बातों को केंद्र में रखते हुए हमलोगों को आप एजुकेट करें. 

इश्तियाक़ अहमद : आपने यह मुद्दा भी बहुत अच्छा उठाया है. आंतरिक तौर पर हम जानते हैं कि मुसलमानों का बड़ा मसला है कि जहाँ ये अल्पमत में होते हैं, वहाँ धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं और जहाँ ये बहुमत में होते हैं तो वहां ये मैजोरिटेरिज़्म की तरह बात करते हैं. तो यह दोहरा मानदंड मुसलमानों का बिहेवियर पैटर्न बन गया है. 

इसलाम ने इन्हें ट्रेंड नहीं किया, आपको पता है कि ईसाइयत ने भी ट्रेंड नहीं किया, ईसाइयों ने सारी दुनिया के अंदर जाकर नस्लें उनकी ख़त्म कर दीं, लैटिन अमेरिका में और बाकी दुनिया में. वहाँ पर उनकी धरती जो थी छीन ली और अब वहां पर स्पैनिश और ब्रिटिश हकूमतें हैं. तो ये दोनों मजहबें जो मिशनरी भी हैं और सेना को भी इसमें शामिल कर लें तो फिर इनका फिर हिस्टोरिकल रिजल्ट यही है. 

पश्चिम में दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूनाइटेड नेशंस का चार्टर बना, मानवधिकार का आइडिया युनिवर्सिलाइज हुआ. उसके बाद हम देखते हैं कि एक बहुत बड़ा बदलाव आया है और आज हम देखते हैं कि आज वेस्टर्न यूरोप मैं समझता हूं कि सबसे एडवांस्ड, प्लुरल, टॉलरेंट, डेमोक्रेटिक, इंडिविजुअल फ्रीडम का एक इलाक़ा है. अमेरिका के अंदर भी बहुत ज्यादा आज़ादी है लोगों के साथ. इसलाम वहाँ पर नहीं पहुँचा, यह बात सही है. 

उसकी वजह थोड़ी सी यूं भी है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में बजाय यू. एन. चार्टर के प्रोग्राम मुताबिक सोवियत यूनियन और अमेरिका दोनों मिल कर एक नई दुनिया बनाते, उसके बरक्स कोल्ड वॉर शुरू हो गई. कोल्ड वॉर में मिडिल ईस्ट के जो ऑयल हैं, बाकी इलाकों में जो वेस्टर्न पालिसी बनी वह यह थी मुसलमानों के अंदर लिबरल फोर्सेज बहुत कमजोर है, क्योंकि यहां पर इंडस्ट्रियल सोसायटी नहीं है. यहाँ अगर कम्युनिज्म को रोकना है तो आपको इस्लामिस्ट ग्रुपों का साथ देना होगा, तो उस कोल्ड वॉर के दौरान रेडिकल इसलाम को जानबूझकर प्रमोट किया गया वेस्टर्न पालिसी के जरिए. 


पाकिस्तान से अफ़ग़ानिस्तान जिहाद जो करवाया गया उसमें वेस्टर्न निवेश बड़े पैमाने पर किया गया था. अगर ऐसा नहीं होता तो यह  जिहाद हो ही नहीं सकता था. पाकिस्तान की कोई क्षमता थी यह जिहाद करने की ! इन्होंने मुसलमानों को दुनिया से बुलाया, मुजाहिदीन उन्हें कहा, उन्हें फिर प्रशिक्षण दिया, मदरसे बनाए. 1970 में शायद तीन-चार सौ मदरसे थे, लेकिन बाद में वे कई हज़ार हो गए, जहाँ पर अतिवाद का प्रशिक्षण दिया जाता था. तो यह वेस्टर्न निवेश के साथ हुआ. 

बात यह है कि अब एक दफे जब आप एक राक्षस खड़ा कर देते हैं तो फिर वह आपके नियंत्रण में नहीं रहता. वही राक्षस फिर इनके गले पड़ गया 9/11 में. उसके बाद आतंकवाद बढ़ा बाकी दुनिया में. वहाँ से जब यह खत्म हुआ तो उनको पाकिस्तानी सरकार या आईएसआई जो भी है ने भेज दिया भारतीय कश्मीर के अंदर. फिर मुंबई में हमला हुआ, दिल्ली में हुआ. तो यह जो इसलाम की शक्ल अतिवाद और हिंसा की है, यह एक हद तो आंतरिक है. 

आप कह सकते हैं कि इसलाम की व्याख्या अतिवादी हो सकती है, साथ-साथ इसको दुनिया के अंदर सेक्यलुरिज्म व खास तौर से कम्युनिज्म के खिलाफ़ एक काउंटर आइडियोलोजी के तौर पर पश्चिमी देशों ने प्रमोट किया. उन्होंने बहुत प्रभावी तरीके से इन्हें इस्तेमाल किया. अब जाकर समझ आई है कि इस तरह के निवेश की कीमत भी चुकानी पड़ती है. अब वह कीमत कब तक और कहाँ तक वे अदा करते रहेंगे या यह कहाँ जाकर खत्म होगी, यह मुझे नहीं पता. 

मैं आपको इसकी एक मिसाल देता हूं. 1978 में मेरे मुहल्ले के कुछ लोग थे जिनकी दुकान थी लंदन में, हम एक ही साथ बड़े हुए थे. मुझे लंदन जाकर एक महीने रिसर्च करनी थी. तो मैंने उन्हें ख़त लिखा और कहा कि मुझे किराये पर कोई कमरा दिला दो. उनका जवाब आया कि ऐसा कैसे हो सकता है, आप हमारे साथ आकर रहें तो खैर मैं उनके साथ ठहरा. वे लोग बहुत ही सरल थे, बड़े दिल वाले थे जो हमारे लोगों की पहचान होती है. 

तो एक दिन मेरी कमीज का बटन टूट गया. यह तो सारे लड़के थे. उनकी बीवियाँ पाकिस्तान में थीं और साल में कुछ दिनों के लिए जाते थे. उन्होंने कहा कि कोई मसला नहीं है. वे गए और थोड़ी देर बाद बटन लगवा कर आ गए. 

तो मैंने पूछा कि यह कैसे किया आपने, उन्होंने कहा कि साथ के घर में शर्माजी रहते हैं, वे लुधियाना के पंडित हैं, उनकी पत्नी मेरी बहन बनी हुई हैं तो उन्होंने लगा दिए. तो पश्चिमी देशों में भारत-पाकिस्तानी, ख़ासतौर से गुजराती-गुजराती, पंजाबी-पंजाबी, उर्दू-हिंदी बोलने वाले, भाईचारेके साथ रहते हैं, घर आना-जाना भी है, दोस्तियाँ भी हैं. 

दूसरी तरफ एक ग्रुप है जो कट्टर हिंदू है, संघ परिवार है, इसी तरह मुसलमानों का अतिवादी समूह भी है. तो यह एक मिली-जुली कहानी है. जैसी मिली-जुली कहानी 1300 साल की हिंदुस्तान की है. दोस्तियां भी हैं, भक्ति आंदोलन भी है, गोरखनाथी योगी भी है, सिख गुरु भी हैं, सूफी भी हैं. बुल्लेशाह का एक शेर मैं हमेशा सुनाता हूँ- 'गल समझ लई ते रौला की, राम-रहीम ते मौला की.' 

मतलब यह कि अगर तुम्हें समझ आ जाए कि इंसानियत क्या है, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन राम है और कौन रहीम है. तो यह मिक्सड बैग है. होता यह है कि आज अगर मैंने हिंदुओं के साथ नफ़रत करनी है तो मैं वह हर वह बात ढूँढ लूँगा कि मुझे यह पानी नहीं पिलाते, मेरे साथ यह नहीं करते, वह नहीं करते. 

लेकिन अगर मुझे कोई साकारात्मक चीज ढूंढनी है तो पूरे लाहौर का पैटर्न जो था, जिन्होंने बहुत खिदमत की वे एक हिंदू थे, सर गंगाराम. उन्होंने अस्पताल बनाया, कॉलेज बनाया, एक हजार साल में किसी मुसलमान ने इतनी खिदमत नहीं की पंजाब और खासतौर से लाहौर के लोगों की, उनमें मुसलमान भी थे, हिंदू भी थे, ईसाई भी थे और सिख भी थे. तो मैं तो सर गंगाराम का जिक्र करूंगा तो कहानियां इस तरह से बनती हैं. 

गांधी ने क्या कहा था यहूदीवाद पर? 

आज मैं बैठ कर जेहनी तौर पर एक कट्टर मुसलिम हूँ तो मैं हर तरह के तर्क ढूँढ लूँगा, हिंदू भी इसी तरह के तर्क ढूंढ लेंगे. मुझे काफी बुरा-भला कहा जाता है. मैंने एक इंटरव्यू में बताया था कि 1938 में महात्मा गांधी ने लिखा था कि फ़लस्तीन में यहूदी आकर जो उनकी ज़मीन पर ब्रिटिश की मदद से कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं, मैं उनके खिलाफ़ हूँ. हालांकि मेरा मानना है कि यूरोप में यहूदियों के साथ ऐतिहासिक तौर पर बहुत बुरा सलूक हुआ है. ठीक वैसा ही जैसा दलित के साथ हिंदुओं में हुआ है. ऐसा महात्मा गांधी ही कह सकते थे. 

उन्होंने यह कहा था कि यहाँ जो अरब रहते हैं उनका मुल्क है, यहूदियों को अगर रहना है तो प्यार-मोहब्बत से उनसे कहें कि हमें पनाह दें क्योंकि हम पर बहुत जुल्म हुआ है. बाद में पता चला कि कई भारतीयों ने मुझे काफी कुछ सुनाया और महात्मा गांधी को भी गालियां दीं. 

हालांकि इन्हें यह याद नहीं है, आज तो बड़ी दोस्ती है इज़राइल के साथ. लेकिन 1938 मे गोलवलकर ने कहा था कि जैसा नात्सी, यहूदियों के साथ कर रहे हैं, हमें भारत में ग़ैर हिंदुओं के साथ करना चाहिए. यानी यहूदियों के साथ बुरा सलूक करने के लिए आरएसएस के गुरु की एक स्थापित नीति थी. 

लेकिन दुनिया में सियासत बदल जाती है. अब आरएसएस के लिए इज़राइल व इज़राइली प्यारे हो गए और महात्मा गांधी की आलोचना करते हैं. तो लोगों की याददाश्त न सिर्फ यह कि बहुत कमज़ोर होती है बल्कि सेलेक्टिव भी होती हैं. तो इस तरह नैरेटिव बनता है. लेकिन हम एक जो हैं वह हजारों पर भारी हैं क्योंकि हम हक़ की बात कर रहे हैं, सच की बात कर रहे हैं. 








 

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