डॉ सुनीलम
फादर स्टेन स्वामी की अंतरिम जमानत की सुनवाई पूरी होने से पहले ही फादर स्टेन स्वामी की मौत हो गई .
84 वर्ष की उम्र तक पूरा जीवन आदिवासियों के बीच सेवा और संघर्ष करते हुए बिताने के बाद उन्हें यूएपीए के तहत राष्ट्रद्रोही बतलाकर भीमा कोरेगांव प्रकरण में गिरफ्तार किया गया था. फादर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने का भी आरोप लगाया गया था. फादर की मौत को सभी सविधान में विश्वास रखने वाले नागरिक संस्थागत हत्या मान रहे हैं.
इस हत्या के लिए किसे जिम्मेदार माना जाना चाहिए? एजेंसी को या सरकार को? न्यायपालिका ,कार्यपालिका और विधायिका इसके लिए कितनी जिम्मेदार है ?
ऐसा व्यक्ति जो हाथ से गिलास उठाकर पानी ना पी सकता हो उसे इतने संगीन आरोप में इसलिए फंसा दिया गया क्योंकि वह आदिवासियों पर फर्जी मुकदमे लगाए जाने के खिलाफ सतत संघर्ष कर रहे थे. 2016 में उन्होंने रपट तैयार की थी जिसमें बताया गया था कि आदिवासियों के संसाधनो पर कब्जा कर उन्हें और अधिक कुपोषण में धकेला जा रहा है. पत्थलगढ़ी आन्दोलन में जब हज़ारों आदिवासियों को फंसाया गया तब फादर की प्रेरणा से ही जनहित याचिका लगी .बाद में सरकार बदली . बड़ी संख्या में फर्जी प्रकरणों में पकड़े गए आदिवासियों को रिहाई हुई.
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि स्टेन स्वामी के प्रकरण की यदि लगातार सुनवाई की होती और फैसला आता तो यह वैसा ही होता जैसे गुजरात के शब्बीर बाबा का हुआ था. जिन्हें 11 साल बाद बरी किया गया था या जैसे अखिल गोगोई का 18 माह बाद रिहा करने का फैसला आया था. फादर स्टेन स्वामी के प्रकरण को लेकर दुनिया के सैकड़ों नोबेल पुरस्कार विजेताओं तथा दुनिया के तमाम प्रतिष्ठित नागरिकों द्वारा त्वरित न्याय पूर्ण कार्यवाही की मांग की गई थी. झारखंड और देश के तमाम आदिवासी क्षेत्रों में फादर की गिरफ्तारी के बाद से ही जन प्रतिरोध के कार्यक्रम चल रहे थे.
फादर की न्यायिक हिरासत में मौत ने भारत की न्याय व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि उन्हें जमानत क्यों नहीं दी गई? जमानत का विरोध करने वाले तथा जमानत नहीं देने वाले दोनों को ही फादर की मौत का गुनाहगार माना जाना चाहिए.
एन आई ए के बारे में हाल ही में अखिल गोगाई के फैसले में खुद एन आई ए कोर्ट ने कई सवाल खड़े किए हैं.
सवाल यह है कि वर्तमान न्याय व्यवस्था में क्या इस तरह की मौत के लिए किसी की जवाबदेही तय किए जाने का प्रावधान है? भारत की पुलिस हिरासत में 1700 से अधिक तथा जेलों में 2000 से अधिक मौतें सालाना होने की खबरें छपती रही हैं . अर्थात आजादी के 74 वर्ष बाद अब तक हजारों विचाराधीन कैदियों की मौत हो गई है. उन पर ना तो आरोप सिद्ध हुआ था है ना ही उन्हें अदालत में सजा सुनाई गई थी . इस स्थिति को बदलने और पुलिस व्यवस्था तथा जेल व्यवस्था को सुधारने के लिए बने कमीशनों की तमाम सिफारिशे रिपोर्टो में धूल खा रही हैं.
गुजरात, कर्नाटक और असम ,दिल्ली में यूएपीए के कुछ प्रकरणों में आए फैसलों के बाद यह उम्मीद जागी थी कि भीमा कोरेगांव तथा दिल्ली दंगों में फर्जी तौर पर फंसाए गए सामाजिक कार्यकर्ताओं की जमानत का रास्ता खुलेगा लेकिन ऐसा होने के पहले ही इतना बड़ा हादसा हो गया.
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