नीलिमा पांडे
अव्वल तो पूरा लखनऊ ही ज़र्रा-ज़र्रा इतिहास में डूबा हुआ है मगर जिस हिस्से पर तारीख़ी इनायत अधिक रही वह चौक के नाम से जाना जाता है. ज्यादातर तो ये हिस्सा भीड़-भाड़ गम-ए-रोजगार से अटा पड़ा मिलता है पर सुकून के दो पल भी हाथ आ जाएं और दर-ओ-दीवार पर फुर्सत से नज़र डालने का मौका हासिल हो जाए तो पल भर को वक़्त ठहर जाता है. यहाँ से गुजरते हुए ज्यादा न सही दो-चार बार तो ख़ास लखनऊवा बोली कानों में मिश्री घोल ही जाती है.
चौक से गुजरते हुए गुजरे वक़्त का इल्म इतिहास के मुरीदों को गम और ख़ुशी में एक साथ सराबोर करता है. अकबरी गेट को निहारते हुए जहाँ एक तरफ शहर की तारीख़ी पहचान ख़ुश कर जाती है वहीं दूसरी तरफ गेट की दुर्दशा सोचने पर मजबूर करती है कि ये हिंदुस्तान के अज़ीम-ओ-शाह शहंशाह की शान में बना था.
चौक का दूसरा दरवाजा गोल दरवाजा कहलाता है. आज की तारीख़ में गोल दरवाजा आसफ़ुद्दौला के नाज-ओ-अदब और नज़ाकत के पासंग कहीं नहीं ठहरता. दरवाजे की ऊपर को जाती हुई सीढ़ियों को देखते हुए पतंगबाजी करने जाते हुए नवाब की तस्वीर एकबारगी जिंदा हो उठती है. लख़नऊ का अदब से तआरुफ़ सही मायनों में इसी नवाब ने करवाया. कमाल के इंसान थे नवाब आसफ़ुद्दौला. उनकी दरियादिली के तमाम किस्से अवध में यत्र-तंत्र बिखरे हुए हैं. वजीर बेग़म ने इस दरवाजे का वास्तु तैयार किया था. 1857-58 के बाद अंग्रेजी प्रशासन ने इसमें रद्दोबदल की और दरवाजे को अलंकृत करते हाथियों के शिल्प को हटवा कर उनकी जगह गुम्बद लगवा दिए. लख़नऊ की उपलब्ध तस्वीरें 1857 के बाद की हैं. जो इमारतें 1857-58 के विद्रोह में नष्ट हो गईं या टूट-फूट गईं उनके मूल प्रारूप को जानने का कोई जरिया हमारे पास नहीं है. गोल दरवाज़े की गुम्बद वाली तस्वीर ही मिलती है. हाथी के शिल्प के साथ दरवाजा कैसा दिखता था उसका सिर्फ़ कयास ही लगाया जा सकता है.
बाहर-बाहर ही चौक का मुआयना करते हुऐ जो तीसरा स्मारक ध्यान खींचता है वह चौक की पुलिस चौकी है. उसका वास्तु ठिठकने पर मजबूर कर देता है. पहली नज़र में ही आप महसूस करते हैं कि कुछ तो है जो इसे दूसरी चौकियों से अलग करता है. दरअसल एक जमाने में यह इमारत एक छोटे-मोटे नवाब का आशियाना हुआ करती थी. नाम था फुल्की क़दर. असल नाम मियां अली क़दर था. आवाम में नवाब साहब 'फुल्की' नाम से मशहूर थे. मशहूरियत के इस नाम की वजह उनका दिमागी ख़लल था. उन्हें लगता था कि आते-जाते कोई राहगीर अगर उनके जिस्म से छू गया तो अनर्थ हो जाएगा. या तो वो रेजा रेजा पिघल जाएंगे या फिर चोट खा जाएँगे. इस ख़लल की वजह से उन्होंने बचते-बचाते चलने की एक अदा पाल ली. कुछ-कुछ 'हैंडिल विथ केयर' वाली नाजुकी अपनाने की वजह से सिमटे-सिकुड़े से चलते. बस इसी वजह से रियाया ने उन्हें हँसी-ठठ्ठे में 'फुल्की नवाब' कहना शुरू कर दिया.
फुल्की नवाब को उनकी दादी जान वसीयत में ढेर सारी सम्पति की मिल्कियत सौंप गई थीं. जाहिरा तौर पर वे 1857 से पहले ऐश-ओ-इशरत और नफ़ासत की ज़िंदगी गुजार रहे थे. गोल दरवाजे के पास ही उनकी खूबसूरत सी हवेली थी. पास में मच्छी वाली बारादरी थी. 1857-58 के विद्रोह में लख़नऊ की पुरजोर भागीदारी ने अंग्रेजों को बौखलाहट की हद तक पहुंचाया. इस बौखलाहट का खामियाजा शहर के नवाबों और आवाम के साथ- साथ शहर की इमारतों ने भी चुकाया. भारी तहस-नहस हुई. तमाम इमारतें धूल-धूसरित कर दी गईं. अंग्रेजों के कोप का भाजन फुल्की नवाब भी हुए. उनकी हवेली पर पर अंग्रेजी कब्जा हो गया. बारादरी जमींदोज कर दी गई. वक़्त की मार से बेघर-बेआबरु होने के दर्द को फुल्की नवाब ने कुछ इस तरह जाहिर किया..
" चल दिया फुल्की क़दर उनका जमाना हो गया
खुद गयी बारादरी ड्योढ़ी पे थाना हो गया "
बाकी उम्र अली क़दर ने मुफलिसी में आम आदमी की तरह गुजरी. गोमती किनारे 'नानी का इमामबाड़ा' पहुँच कर ही उनके हिस्से चैन की सांस आयी. बारादरी वाली जगह पर बाद में भोलानाथ धर्मशाला बन गयी. उनके आशियाने को थाने में बदल दिया गया. आज भी उसमें वर्दी की ही शिरकत है. अपने वास्तु की वजह से यह लख़नऊ के पुलिस थानों में अलहदा है.
तस्वीर-पहली तस्वीर चौक के पुलिस थाने की है.दूसरी गोल दरवाजे की है जो आर्काइव्स से ली गयी है. साभार नीलिमा पांडे की वाल से .
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