एक काली तारीख़

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

एक काली तारीख़

मनोहर नायक 
फिर आयी पाँच अगस्त... विकल करती, विषाद को गहरा करती. इस महादेश ने स्वतंत्रता, लोकतंत्र और संवैधानिकता की जो आभा पायी , जो संपदा संजोयी  और जो सपने देखे , उनके लुटने की एक तारीख़. यूँ तो बरसों से  सत्ताओं की  सेंधमारी से उनका क्षरण हो रहा था पर पिछले सात सालों में ऐलानिया इनकी खुली लूट-खसोट शुरू हो गयी. पाँच अगस्त इन मूल्यों की दिनदहाड़े लूटपाट की एक स्मारक तिथि है. साथ ही यह एक चेतावनी दिवस भी है. दिन के उजाले की तरह भविष्य के भयाक्ह मंसूबे साफ़ हैं. दो साल पहले बिना किसी बहस-मुबाहिसे के सरकार ने संसद को जम्मू-कश्मीर को विभाजित करने  , पूर्ण राज्य से उसे केंद्राधीन करने की सूचना दी ... यह बताते हुए कि धारा 37० अब कोई मतलब नहीं रखती. गृहमंत्री के यह सूचना देने के एकदम बाद कश्मीर घाटी यातना शिविर में बदल गयी. महीनों वहां लोग लगभग क़ैद रहे। फ़ौज की सख़्त निगरानी में बातचीत, संवाद, क्या  नागरिक -आवाज़ तक से वंचित. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐजेंडे की यह एक पुरानी प्रविष्टि थी, जिसे सेवक-सरकार ने ऐसे आनन-फानन पूरा किया जैसे  कि देश में विधि-कानून-व्यवस्था-प्रक्रिया कुछ है ही नहीं. एकाधिकारवादी ताक़तें इसी तरह जंगल के कानून को कानून का राज घोषित कर देती हैं। धीरे-धीरे असहमति के दमन, उत्पीड़न का विस्तार जेल तक होता जाता है, और पेश इसे लोकतंत्र  की तरह किया जाता है.सहमत-असहमत  देशभक्त और गद्दार में श्रेणीबद्ध कर दिये जाते हैं. 
स्वतंत्रता और अगस्त-क्रांति  के महीने में दो साल पहले पाँच अगस्त का आना अपशकुनों के सैलाब की तरह  घुस आने का भरपूर संकेत था।  यह पंद्रह अगस्त को डसती पाँच अगस्त  थी .आज़ादी के साथ देश ने  लोकतांत्रिकता का, समानता का, संघीय सहयोग का और पारस्परिक विश्वास का जो महास्वप्न  देखा था  वह एक झटके में दु:स्वप्न में बदल गया। बात 37० की नहीं, संसदीय और संवैधानिक तौर-तरीक़ों की है। हर फ़ैसले, कार्रवाई में संसदीय औचित्य दिखना तो संसदीय लोकतंत्र की न्यूनतम शर्त है। पर इस सरकार की पहली पारी में ही यह साफ़ हो गया था कि लोकतंत्र  इनका सरोकार नहीं ...  संघ की कट्टरता के धाराप्रवाह में वह कोई विचार ही नहीं... संसद इनकी चौखट नहीं ,  इनकी पवित्र चौखट तो नागपुर के हेडगेवार भवन  में है। सात सालों से हम निरंतर अपनी राष्ट्रीय - सांस्कृतिक विरासत और मूल्यों का हनन, उन पर आघात देख रहे हैं. यहां तक कि मानवीय-मूल्य और संवेदना भी लगातार लुटती-पिटती दिखी है. 
लोकतांत्रिक अभाग्य और अपशकुनों का सिलसिला अब रुकने का नहीं ..... अगले ही साल यानि पिछले साल इसी कमबख़्त तारीख़ पर हमने प्रधानमंत्री को संघ के एक और ऐजेंडे के आगे अयोध्या में लकुटि की नाईं  धराशायी होते देखा। यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि यह राम के, उनके प्रति आस्था के लिए प्रणत होना था। यह एक विभाजन के सिद्धांत के विजित होने को भाव-विभोर प्रणाम था। राम तो अपने पुरुषोत्तमीय गुणों के कारण व्यापक रूप से समादृत हैं। अयोध्या पर फ़ैसला शीर्ष अदालत का फ़ैसला था  इसलिए उसे सभी ने स्वीकार किया , जबकि बाबरी विध्वंस से देश की संवेदना भारी क्षतिग्रस्त  , लज्जित और  पराजित थी... ख़ास तौर पर मुसलमानों ने बेहद संयम और सद्भाव के साथ इसे मंजूर किया। उनकी प्रतिक्रिया गरिमापूर्ण थी।  अपने फ़ैसले में तो अदालत ने भी माना था कि बाबरी ध्वंस के अलावा दो और आपराधिक घटनाएं  उस जगह  पर हुई थीं। इसे विडम्बना ही  कह सकते हैं कि अपराध करने वालों के ही पक्ष में फ़ैसला और विवादित भूमि आयी. यह भी अजब ही है कि अमर्यादित और अराजक कार्रवाई करने वाले अब मर्यादा पुरुषोत्तम का मंदिर बना रहे हैं. मंदिर निर्माण तो इस समय घपलों से घिरा हुआ है.  
अदालती निर्णय राम मंदिर वालों की यह बड़ी जीत थी और उन्हें बड़ा और उदार  दिखना चाहिए था , पर मंदिर  आस्थाजनित  उद्देश्य नहीं  संकीर्ण राजनीतिक मुद्दा था, जिसके पीछे   नफ़रती  भावना  और उस पर आधारित आगे की  रणनीति थी  और सदाशयता की फ़र्ज़ी या तनिक - सी भी गुंजाइश नहीं थी ,इसलिए दूसरी पाँच अगस्त को मोदी , सरकार और बहुसंख्यक समाज  ने इस अवसर पर अयोध्या से अयुद्ध  या प्रेम का कोई  संदेश नहीं  दिया और ना ही मेलमिलाप की, मित्रता और निर्भयता की बातें  कीं  ... उल्टे  वहाँ अहमन्यता का भोंडा प्रदर्शन था। भविष्य के लिए  अशनि संकेत थे. इस  तरह  राष्ट्रीय शर्म की यह  दूसरी पांच अगस्त भी एक स्मारक और चेतावनी तारीख़ बनी। संघ प्रेरित संगठन और सरकारें  जनता  को  पढ़ो-लिखो -नफ़रत का  जो पाठ पढ़ा रहे थे  यह उसकी चरम परिणति का दिन बना...जयश्री राम  से  हे -राम के हारने का दिन बन गयी यह अभागी तारीख़। सत्तर साल से तो संघ परिवार को इस विजयोल्लास की प्रतीक्षा थी ही और सात साल से उसकी अधीरता छिप नहीं रही थी। ... और इसी तरह छिप नहीं पा रही है उसकी भविष्य की तबाह-  सूची , क्योंकि यह दूसरी पाँच अगस्त लगातार चलायी जा रही घृणा-भेदभाव की मुहिम की सफल परिणति का दिन बन गयी जिसने हिन्दुस्तां की बहुरंगी छवि को क्षत-विक्षत  कर दिया... धर्मनिरपेक्षता  और विविधता की हमारी उत्सवप्रियता को डस लिया. 

यह सब कर गुज़रने वालों की क्रूरता किसी भी आड़ - आवरण - मुखौटों में छिपती नहीं... हमारा पाला अत्यंत शातिर और अमानवीय लोगों से पड़ा है... इनके पूज्य संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक का इतिहास  जन विरोधी, देश विरोधी फ़रेबों , कुटिलताओं, क्रूरता से भरा पड़ा है... पिछले सात साल ही ऐसी मिसालों से, जनता के विरुद्ध चक्रव्यूहों - षड़यंत्र से भरे पड़े हैं... 'गांधी-वध ' से लेकर नरसंहारों का सिलसिला है . दोनों पांच अगस्तों तक इनकी गौरव - यात्रा किस रास्तों से होती हुई यहाँ तक पहुंची ज़रा उन रास्तों पर गौर करें  रक्त से कितनी लथपथ , कराहों से कितनी भरी हुईं हैं वे.. . पलट कर अयोध्या से सोमनाथ की यात्रा कीजिये तो वहशी उन्माद  की शिकार लाशें रास्ते भर मिलेंगी . वैसे सीधी सी बात यह  है कि जब मंसूबे ही इतने ख़ौफ़नाक है तो  वे हासिल भी तो ऐसे ही होंगे... आतंक हिंसा और तबाही से . तो कोई कारण नहीं कि हम इनका रत्तीभर भी भरोसा करें... इनके पास भय - हिंसा - झूठ का अचूक फ़ार्मूला है... ऐसे और भी रामबाण समीकरण और नुस्खे हिंदुत्व की इनकी प्रयोगशाला में  हैं... सोचिये ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं होने की बात कहने वाले,, आदित्यनाथ के यूपी के राजकाज की भूरि - भूरि प्रशंसा करने वालों को झूठ भी कभी मात दे सकता है... और क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यह सब कहने - करने वाले कितने निष्ठुर और ह्रदयहीन होंगे! वैसे ये  मामला  हाथ कंगन को आरसी क्या वाला है . 
हर मोर्चे पर इतनी विफलताओं, लगभग उपलब्धिहीन सात साल  , इतनी तबाही, महामारी का कहर और कुप्रबंधन, कुछ धोखाधड़ी वाली जीतें और उन पर भारी पड़ती एक शिकस्त, नेकनामी के लिए अंधाधुंध खर्च और हासिल स्वाभाविक बदनामी... भूख  लोकतंत्र आज़ादी , पेगासस जासूसी के मामले में इनके साथ देश भी अपमानित... पर आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं... तिकङ़मों ,ताक़त और सर्वव्यापी अहर्निश प्रचार पर पूरा पक्का भरोसा... मोदी- शाह के ये तेवर भयभीत करते हैं... बिना झिझके वे अपनी पर आमादा  हैं.... आर्थिक स्थिति जाम है, राजनीति ठिठकी  हुई है, लगता है हालात और ख़राब होगी... . महामंदी के समय अमेरिकी अर्थशास्त्री माइकल डी येट्स अमेरिका में घूमे और कुशासन , आर्थिक बेहाली, व कारपोरेटरी लूटमार को करीब से साक्षात् देखा .  एक जगह वे लिखते हैं, ' ... समस्याओं से घिरे लोगों का समूह किसी बेरहम नेता या किसी बेहद अस्थिर उम्मीदवार को वोट दे सकता है या भीड़ की हिंसा में शामिल हो सकता है . निष्क्रिय / आक्रामक लोग ख़तरनाक काम कर सकते हैं . अगर हम चाहते हैं कि इन हालात को सत्ता के ख़िलाफ़ चुनोती की तरह इस्तेमाल किया जाये तो हमारा काम  तय हो चुका है ' ... हर सत्ता भ्रम और भुलावा देकर टिकी रहना चाहती हैं... वह नहीं चाहती कि उसके सितम और बर्बरता लोग भूले रहें इसलिए अन्याय - अत्याचार को पूरे ब्यूरों और तारीख़ के साथ याद रखा जाना चाहिए, .. एदुआर्दो गालेआनो कहते हैं, ' ... इतिहास  को मिटाना, बदलना और अवाम को उससे बेदख़ल करना हुक्ज्ञरानो़ं के लिये ज़रूरी होता है , यादों पर पाबंदी लगा दी जाती है . तब , अवाम के लिये यह ज़रूरी होता है कि इन्साफ़ हासिल होने तक वे यादें उनके साथ बनी रहें . उन्हें नये मायने मिलते रहें .  उन्हें अपने साथ हुई नाइंसाफ़ियों और ज़ुल्म की  दिलायी जाती रहे ' .

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