विपक्ष को योगी नहीं, मोदी के एजेंडे से लड़ना होगा

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विपक्ष को योगी नहीं, मोदी के एजेंडे से लड़ना होगा

राजेन्द्र द्विवेदी 
प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और संगठन के मुखिया स्वतंत्र देव सिंह कोई भी रूपरेखा तय करें लेकिन आख़री एजेण्डा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी का ही होगा. विपक्ष विशेषकर अखिलेश यादव को साईकिल रैली में भीड़ देखकर या बसपा नेता मायावती को ब्राह्मण सम्मलेन करके या प्रियंका को ट्रेनिंग कैंप लगा कर विकल्प बनने का ख्वाब नहीं देखना चाहिए. असली लड़ाई मोदी और शाह के एजेण्डे से होगी. इसकी शुरुआत 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाकर, 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करके और 5 अगस्त 2021 को अन्न महोत्सव के माध्यम से फोटो लगे बैग में निशुल्क अनाज बाँट कर कर दी गयी है. मोदी सरकार के 7 वर्ष के कार्यकाल में 300 से अधिक योजनाएं शुरू की जिसमे 20 से अधिक योजनाएं गांव, गरीब, किसान, महिला, बच्चियों, दलित एवं पिछड़ें सभी वर्ग को खाते के माध्यम से लाभ पहुंचाने वाली हैं. 

इन योजनाओं का सीधा लाभ 2022 विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा. जिन मुद्दों और सरकार की नाकामियों को लेकर जैसे कोरोना संकट, मॅहगाई, बेरोजगारी, कृषि बिल आदि पर विपक्ष जनता की नाराजगी को देख रहा है इन सभी मुद्दों को मोदी शाह के एजेण्डे में जगह नहीं मिलेगी. विपक्ष के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती और चिंता का विषय होना चाहिए कि योगी सरकार के नाकामियों के एजेण्डे चुनावी मुद्दा बने. लेकिन इसके लिए साईकिल यात्रा, ब्राह्मण सम्मलेन या ट्रेनिंग कैंप कारगार नहीं होंगे. सरकार के नाकामियों जैसे कोरोना, बेरोजगारी, महगाई, किसान समस्या आदि को लाने के लिए तथ्यात्मक और जमीनी आकड़ों के साथ लड़ाई लड़नी होगी. उत्तर प्रदेश की 24 करोड़ आबादी है. इतनी भारी भरकम आबादी में जाति और धर्म आधारित पार्टियों की रैलियों में जुटी भीड़ चुनाव जीतने का मानक नहीं हो सकती. आने वाले समय में अखिलेश यादव मायावती प्रियंका और भाजपा सभी की रैलियों में थोड़ा कम, थोड़ा ज्यादा हजारों लाखों की संख्या में भीड़ जुटेगी. इस भीड़ से 2022 के चुनाव परिणाम का निष्कर्ष नहीं निकाला सकता है. इसका उदाहरण पश्चिम बंगाल और बिहार चुनाव में दिखाई भी दिया है. पश्चिम बंगाल में मोदी की रैलियों में लाखों की भीड़ जुटती थी. बिहार में तेजस्वी की रैलियां नितीश और भाजपा गठबंधन की रैलियों से बड़ी होती रही लेकिन चुनाव परिणाम रैलियों में जुटी भीड़ से अलग आये. ममता ने अप्रत्याशित जीत हासिल की तो बिहार में नितीश और भाजपा गठबंधन की सरकार  बन गयी. मोदी के एजेंडे को समझने के लिए विधानसभा 2017 में मोदी की भाषणों का अध्ययन करना चाहिए. 7 चरण के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अखिलेश यादव के विकास एजेंडे की हवा गैर विकास के मुद्दे कब्रिस्तान, श्मशान, गधा, कसाब, स्कैम, कट्टा, नक़ल, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद आदि तमाम मुद्दों में उलझा कर कमजोर कर दिया. 

 
2022 में भी मोदी शाह के एजेंडे जो अभी दे दिखाई दे रहे हैं वह धार्मिक, गरीबों के ध्रुवीकरण, भाई भतीजावाद और तत्कालीन समय चुनाव के दौरान क्या परिस्थितियां होती है उसके ही आस पास होंगे. कोरोना महामारी की नाकामी, आक्सीजन के बिना हुई मौते, बेरोजगारी, महगाई, किसानों का आंदोलन आदि मुद्दे जिससे विपक्ष ज़मीनी हक़ीक़त और तथ्यों के साथ भाजपा पर भारी पड़ सकता है इन सभी मुद्दों को जैसा कि मोदी शाह की रणनीति रहती है. चुनाव में अहम् मुद्दे के रूप में आने नहीं देंगे. कोरोना को फ्री आनाज छात्रवृत्ति एवं एक दर्जन से अधिक खातों में सीधे दी जाने वाली धनराशि आदि की रणनीति से दबा देंगे. एकतरफ़ा मीडिया का समर्थन और विपक्ष के जमीनी संघर्ष से दूर रहने का फ़ायदा भाजपा उठाएगी. उदहारण 5 अगस्त को केंद्र में विपक्ष की बातें उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की साईकिल रैली जैसे कार्यक्रम को मोदी के अन्न महोत्सव के आगे मीडिया ने बहुत कम महत्व दिया. ऐसे स्थितियां चुनाव के दौरान मीडिया में बनी रहेंगी. 

यह तो निश्चित है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार से जनता में काफी नाराजगी है. पिछड़ी जाति और ब्राह्मण में योगी के खिलाफ आक्रोश भी है लेकिन विपक्ष इसे भी चुनाव तक कैश नहीं करा पायेगा. पिछड़ों में 36% आबादी अति पिछड़ों की है जो 2014, 2017 और 2019 में भाजपा के साथ थे और उन्हें उम्मीद थी कि अति पिछड़ों के नेता केशव प्रसाद मौर्या को भाजपा मुख्यमंत्री बनाएगी और मण्डल कमीशन में अति पिछड़ों को अलग से आरक्षण दिया जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया और अति पिछड़ों में 27% में अलग से हिस्सेदारी नहीं मिली. इस नाराजगी को अखिलेश, मायावती एवं कांग्रेस तीनों नहीं दूर कर पाएंगे क्योकि इन तीनों में पिछड़ों के 27% में अतिपिछड़े जिसमे यादव, कुर्मी, लोधी, जाट को छोड़कर 75 जातियां आती हैं इन्हें अलग से हिस्सेदारी देने की हिम्मत नहीं है. इसलिए नाराजगी के बाद भी अति पिछड़े अंत में भाजपा के साथ ही खड़े हैं. 


जहाँ तक ब्राह्मण की बात है. मायावती के रैलियों से बहुत फ़ायदा होने वाला नहीं है क्योकि 2007 जैसी स्थिति नहीं है. भाजपा में 10 सांसद, 12 राज्यसभा सदस्य और  47 विधायक ब्राह्मण हैं. जबकि मायावती के पास 2007 में जमीनी संघर्ष करने वाले ब्राह्मण नेता जैसे बृजेश पाठक, रामवीर उपाध्याय आदि कोई नहीं है. सतीश मिश्रा को निश्चित रूप से ब्राह्मणों को धन्यवाद देना चाहिए क्योकि उनके प्रयास से मुख्य धारा से गायब हो चूका ब्राह्मण 2007 में दलित ब्राह्मण गठजोड़ से मुख्यधारा में आया था. सतीश मिश्रा की रैलियों में ब्राह्मणों की भीड़ जरूर जुट रही है लेकिन अंत में मोदी के एजेण्डे और शाह की रणनीति हिंदुत्व की बहती धारा में ब्राह्मण भाजपा से दूर रहेंगे यह कहना बड़ा मुश्किल है. 

 विपक्ष को योगी की सियासत से नहीं मोदी और शाह के सियासी एजेंडे से लड़ने की  तैयारी करनी चाहिये और वह सियासी एजेण्डे रैलियों में भीड़ जुटने या ट्विटर पर बयानबाजी करने से नहीं आएंगे. इसलिए जमीन से जुड़कर विधानसभावार, जनपद और क्षेत्रवार युवा और महिला, पीड़ित परिवार, बेरोजगारी, मॅहगाई, किसान आंदोलन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि तमाम हर वर्ग सम्प्रदाय से जुड़ कर तथ्यों के साथ तैयार करने होंगे. लेकिन जो हालात है उसे देखकर कह सकते है कि विपक्ष में ऐसे रणनीति और जज्बे व तैयारी नहीं दिख रही है. उदाहरण के रूप में हम यह कह सकते है कि लोकसभा में आक्सीजन से कोई मौत नहीं हुई, यह सरकार का ऐसा झूठा बयान है जिसका जवाब उत्तर प्रदेश में विपक्ष, आक्सीजन की कमी से हुई मौतों के आकड़ें जुटाकर नाम और पते के साथ दे सकता है. दूसरा किसानों के 6000 प्रतिवर्ष दिए जाने को लेकर किसानों को यह समझाया जा सकता है कि 6000 रूपये प्रतिवर्ष मिलने का मतलब 16.45 पैसे प्रतिदिन है जबकि 1 लीटर डीजल और पेट्रोल एक दिन उपयोग करते है तो किसान सम्मान निधि लागु होने के बाद 25 से 30 रूपये अधिक देने पड़ रहे हैं. किसानों की लागत कई गुना बढ़ चुकी है. बेरोजगारी के आकड़े, कोरोना संकट में बेरोजगारों की संख्या आदि तथ्यों के साथ लाने में विपक्ष की रूचि नहीं दिखाई दे रही है केवल बयान दे रहे है कि सरकार आकड़े छुपा रही है. विपक्ष का काम है आकड़ों को तथ्य के साथ बाहर  लाना. जो तैयारी आक्रामक होकर जनता से जुड़कर विपक्ष को लड़नी चाहिये वह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा संगठन आक्रामकता के साथ कर रहे है. 


यह सब कहने के बाद मेरा मतलब यह नहीं है कि विपक्ष बहुत कमजोर है या मोदी-योगी बहुत मजबूत है और जनता में लोकप्रियता 2017 और 2019 की तरह बरकरार है. ऐसा कुछ नहीं होगा. जनता है, कुछ न करने के बाद भी जन भावनाएं जब बदलती हैं तो सारे चुनावी प्रबंध, धनबल, खरीद फरोख्त, रणनीति, राजनीति चतुराई सब कुछ गायब हो जाती है. चुनाव के पूर्व विश्लेषण जो होते है वह सरकार और विपक्ष की चुनाव तैयारी और पुराने चुनावी एजेंडे आदि तमाम परस्थितियों पर किये जाते है. मेरा विश्लेषण भी वर्तमान हालात, मोदी के पुराने चुनाव रणनीति और वर्तमान में विपक्ष की कार्यशैली के आधार पर है. चुनाव के 8 महीने बचे है.  स्थितियां रातोरात बदलती है लेकिन वर्तमान हालात और परिस्थियों के अनुसार विश्लेषण लिए जाते है. अंत में मेरा यही मानना है कि विपक्ष अखिलेश यादव, मायावती या प्रियंका सभी को जनभावनाओं के अनुरूप ज़मीनी तथ्य, आकड़ों के साथ आने वाले समय में मोदी के एजेंडे से लड़ना होगा.

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