भाजपा का पिछड़ा पिछड़ा खेल

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भाजपा का पिछड़ा पिछड़ा खेल

रवि यादव  
कांग्रेस के शुरुआती दौर में वर्चस्व मराठी ब्राह्मणों का था जो उग्र हिंदुत्व के पेरोकार थे ,प्रतिक्रिया स्वरूप 1906 में मुस्लिम लीग का गठन हुआ. 1915 में गांधी की दक्षिण अफ़्रीका से वापसी पर इस मराठी ब्राह्मण लॉवी को अपना वर्चस्व ख़त्म होने का आभास हो गया था . गांधी ने पुरे देश के ऐसे नए लड़कों और बुद्धिजीवियों को बढ़ावा देना शुरू किया जो अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखते थे . गांधी का ये कारनामा मराठी ब्राह्मण क्लब को अपने वर्चस्व को चुनौती लगने के कारण नापसंद था . 1920 आते आते हेगडेवार , मुंजे , मालवीय जैसे समान सोच के पुरोधा जो नए ठिकाने की तलाश में थे महासभा के बेनर तले एक साथ आ गए . फिर 1925 में संघ की स्थापना हुई . स्थापना के समय डाक्टर हेगड़ेवार ने संघ के गठन का उद्देश्य देश की स्वाधीनता के संघर्ष में योगदान देना ही बताया किंतु इस घोषित उद्देश्य की पूर्ति के लिए संघ ने कभी कोई प्रयास किया हो ऐसा कोई साहित्य स्वयं संघ के लेखको द्वारा भी नहीं लिखा गया .  
गोलवलकर ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि संघ ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग नहीं लिया था. संघ के गठन का घोषित उद्देश्य एक अच्छी छवि दिखाने के लिए छलावा था वास्तविक उद्देश्य मनुस्मृति आधारित परम्परागत समाज व्यवस्था का संरक्षण ,संवर्धन और सक्तिकरण था , रहा है और अभी भी है . 
चुनाव आधारित लोकतांत्रिक राजनीति की मजबूरी है जो संघ या उसके अनुसंगिक राजनैतिक संगठन भाजपा को दलितों पिछड़ों की बात करने पर मजबूर करती है . यू पी असन्न चुनाव भाजपा के पिछड़ा पिछड़ा खेल का मौजूदा कारण है . 

केंद्र में सात साल सरकार चलाने के बाद भाजपा सरकार को पिछड़ी जातियों पर प्यार आ रहा है ? लेकिन यह अचानक नहीं है . यूपी पंचायत चुनाव में मिली अप्रत्याशित हार ने भाजपा और समर्थक मीडिया द्वारा 2014 से फेलाए गए अफसाने की पोल खोल दी कि “*हिंदुत्व ने जातीय वर्गीय आग्रह ख़त्म कर दिए है*” .  
मंडल के विरोध में मंदिर आंदोलन शुरू करने वाली पार्टी , शैक्षिक संस्थाओं में पिछड़ो के आरक्षण का विरोध करने वाली पार्टी , मंडल का विरोध कर जातीय के बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करने की 1991 के बाद हर चुनाव घोषणा पत्र में घोषणा करने वाली पार्टी , एक दर्जन से अधिक राज्यों में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने के बाद भी एक भी प्रदेश का मुख्यमंत्री दलित पिछड़ा न बनाने वाली पार्टी आज पिछड़ा पिछड़ा खेल रही है . लेकिन अभी भी गुड खाने के बावजूद गुलगुलों से सख़्त परहेज़ है . 
जातीय जनगणना नहीं कराएगी ,  
पिछड़ीं जातियों की संख्या बढ़ाएगी लेकिन आरक्षण सीमा नहीं बड़ाएगी . कितना हास्यास्पद और धूर्ततापूर्ण तर्क  है कि जातीय गणना से जातिवाद बड़ेगा इसलिए सरकार जातीय गणना नहीं कराएगी . 
मान. प्रधान मंत्री जी अपनी जाति बताएँगे तो जातिवाद नहीं होगा ! 
मीडिया सपथग्रहण में ,प्रधानमंत्री सदन में और पार्टी सड़कों पर बैनर लगाकर पिछड़े दलित मंत्रियों की जाति बताकर  दलित पिछड़ो के हितैषी होने का दावा करते है तो जातिवाद नहीं होता . लेकिन 2014 , 17  और 19 में सिर्फ़ आश्वासन पर वोट देने वाले पिछड़े अब सात साल की समीक्षा कर रहे है तो ख़ुद को ठगा हुआ महशूस कर रहे है और चाहे अनचाहे पीछे छूट चुकी उन कड़वी यादों की स्मृतियां भी मस्तिष्क में कोंध रही है जिन्हें भुलाकर वे साथ आए थे .  
मंडल विरोध और मंदिर आंदोलन ने भाजपा को सत्ता तक पहुँचाया उसके पहले ये पार्टी कभी मुख्य विपक्ष भी नहीं थी . 
उमा भारती, कल्याण सिंह , विनय कटियार और प्रवीण तोगड़िया  वे नेता थे जिनके कारण भाजपा को पिछड़ों में स्वीकार्यता मिली यहीं वे नेता भी थे जिन्होंने आडवाणी /अशोक सिंघल के साथ मंदिर के लिए चले आंदोलन का नेतृत्व किया . 
किंतु जब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर मंदिर निर्माण के लिए राम मंदिर ट्रस्ट बना तो भाजपा ने ट्रस्ट के सदस्यों का चयन घोषित नीति “जाति आधारित आरक्षण का विरोध “ पर अमल करते हुए पूर्णतः पारदर्शी तरीक़े से योग्यता के आधार पर किया . 
जिसमें उमा भारती,विनय कटियार और प्रवीण तोगड़िया अयोग्य होने के कारण प्राथमिक परीक्षा से ही बाहर हो गये और योग्यता के आधार पर 17 में 16 ब्राह्मण सदस्य चयनित हुए . 
सबाल ये है कि सरकार क्यों जातीय गणना से बचना चाहती है ? तो संक्षिप्त में चंद आंकडो को देखने से इसमें मदद मिलेगी . 
देखते है देश में सम्पत्ति , सम्पदा , नौकरियों पिछड़ों की भागीदारी क्या है - यूजीसी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 496 विश्वविध्यालयो के कुलपति में सिर्फ़ 7.2फीसद  (36) ओबीसी थे जबकि  सवर्ण 90.3फीसद केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक भी नहीं और एक भी प्रोफ़ेसर नहीं था . 
द प्रिंट की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार में एक भी प्रमुख सचिव पिछड़ी जाति से नहीं था .ग्रूप ए की नौकरियों में पिछड़ें 13फीसद  और सवर्ण 66.7फीसद  है ,ग्रूप बी नौकरियों में सवर्ण 61फीसद  है . राष्ट्रीय सम्पदा में सवर्णों की 45फीसद  भागीदारी के सापेक्ष पिछड़ो की 31फीसद  है .भू सम्पदा सवर्णों के पास 41फीसद  और पिछड़ो के पास 35फीसद  है .भवन सम्पदा में 53फीसद  सवर्णो और 23 फीसद  पिछड़ों का हिस्सा है.वित्तीय सम्पदा में पिछड़ों का हिस्सा और भी घटकर 26फीसद  रह जाता है . 
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायलयो में पिछड़ो की भागीदारी नगण्य है .कारपोरेट में नगण्य है . बड़ी कम्पनियों के 96 फीसद CEO सवर्ण है जिसमें 70फीसद  एक जाति से है .मीडिया में भी कारपोरेट की ही पुनरावृत्ति है . 
जातीय जनगणना से ये आँकड़े आने पर बात दूर तलक जायेंगी जिसे सम्भालना परम्परावादी सामाजिक व्यवस्था के समर्थकों के लिए सम्भव नहीं होगा . 
भारत में जाति न केवल एक हक़ीक़त है यह वह निर्णायक घटक है जो किसी भी व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को ही नहीं शिक्षा , व्यवसाय , नौकरी के अवसर भी निर्धारित करती है . कई ऐसे व्यवसाय है जिनमें दलितों पिछड़ों का प्रवेश ही वर्जित है कुछ ऐसे व्यवसाय है जिनमे दलितों पिछड़ों का प्रवेश तो हो सकता है किंतु सफलता मिल ही नहीं सकती . कोई भी दलित अपनी जाति का उल्लेख कर ढावा रेस्टोरेंट या कैफ़े खोल ले तो ग्राहक नहीं मिलेंगे ऐसे अनेक व्यवसाय है . 
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इतनी समानताऔर  भेदभाव के रहते क्या एक समरस समाज की , एक समावेशी समाज जी , एक प्रगतिशील समाज की , एक ज़िंदा समाज की कल्पना की जा सकती है ? क्या सामान अवसर के बग़ैर लोकतंत्र हो सकता है ? अगर नहीं तो उन सभी लोगो को समाज में समानता लाने के लिए आगे आना होगा जो अपने आप को प्रगतिशील और उदार समझते है . ये अलग बात है कि आज उदारता को गाली बना दिया गया है और लिबरल को लिब्रांडु कहा जाने लगा है मगर ये भी सच है कि बदलाव की वयार को विलम्बित तो किया जा सकता है रोका नहीं जा सकता और हाँ विलम्बित किया जाना भी अगड़े , पिछड़े , समाज और देश सभी को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना होगा .

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