लोहिया और कई तो जेल तोड़कर भी बाहर आये

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लोहिया और कई तो जेल तोड़कर भी बाहर आये

रमा शंकर सिंह  
सोशलिस्टों ने आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया यह कहना एक पूरी तस्वीर रखने में असमर्थ है , तथ्य तो यह है कि १९४२ के बाद के संग्राम में  सोशलिस्टों ने ही दूसरी पंक्ति की कमान सँभाली जब बड़े नेता बंबई में ९ अगस्त की सुबह तक गिरफ़्तार कर लिये गये. गांधी जी समेत आठ दस बड़े नेताओं को ब्रिटिश सरकार की पुलिस या जेल अधिकारी तमीज़ से पेश तो आते थे चाहे उन्हें जेल में कोई विशेष सुविधा न भी मिलती हो पर अपेक्षाकृत युवा होने के कारण एवं कुछ ज़्यादा ही क्रांतिकारी कामों के कारण अंग्रेज पुलिस इन कुछ नेताओं को गिरफ़्तारी के बाद तरह तरह से यातनायें देती थी और एक ने भी कभी सावरकर जैसी कमजोरी नहीं दिखाई .वे न सिर्फ़ यातनाओं को झेलते रहे बल्कि लगातार सक्रिय रहे जैसे डा लोहिया और कई तो जेल तोड़कर भी बाहर आये जैसे जेपी. 

आजादी निकट आती देख कर समाजवादियों के एक बड़े वर्ग ने यह फ़ैसला लिया कि कांग्रेस को , जो कि आज़ादी की लड़ाई का एक मंच है , जनाभिमुख नीतियों का राजनीतिक दल बनाना है. 
१९४४ में पटना में ये सब इकट्ठे हुये कांग्रेस के अंदर ही एक समूह गठित किया -कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी- सीएसपी .ज़ाहिर है कि कई मुद्दों पर कांग्रेसी नरम व मध्यमवर्गीय रुख़ के विरुद्ध समाजवादियों की पूरी बात कहने और प्रचारित करने का यह मंच आरंभ में प्रभावी हुआ.  

मुख्य बात थी कि आज़ाद भारत में प्रतिपक्ष की भूमिका निर्वाह कौन व कैसे करेगा ? ऐसे में जबकि हर कांग्रेसी नेता नेहरू के नेतृत्व में सत्ता के नज़दीक ही जाना चाहता था तब सोशलिस्टों ने सोचविचार कर यह सामूहिक फ़ैसला लिया कि वे प्रतिपक्षी भूमिका निबाहेंगें.तब जनसंघ भाजपा कहीं दृश्य पर नहीं था और संघ किसी घर में छिपे हुये तीन चार लोगों का का एक विचार मात्र था. 

नेहरूजी के कई ऐसे प्रस्तावों को जिसमें शिक्षित व प्रखर समाजवादी नेताओं और उनके समूहों को सरकार में आने का निमंत्रण था , सोशलिस्टों ने स्वीकार नहीं किया और आचार्य नरेंद्र देव , जेपी , अब्दुल बारी , लोहिया, जेपी, युसुफ मेहर अली, कमला देवी चट्टोपाध्याय , अरुणा आसफ़ अली जैसे अनेक युवा नेता पूरे भारत में आज़ादी की मशाल को और सक्रियता से जलाये रखे.प्रत्येक का यह रास्ता काँटों भरा था लेकिन सोशलिस्ट इस मामले में दूसरों से बीस ही ठहरे और इसी कारण लगातार गांधी जी के प्रिय होते चले गये और अंत समय के पहले उन्हें दो राजनीतिक कार्यकर्ता ही दिखे जिन्हें नोआखली जाते वक्त साथ ले जाना उचित समझे बादशाह खान और लोहिया. 

गोवामुक्ति का तो पूरा आंदोलन ही सोशलिस्टों ने प्रमुखता से १९४४ में शुरु किया और आज़ादी के बाद भी १९५४ तक पुर्तगाली राज में बेदर्द पिटाई जेल आदि से जीवित भी रखा और प्रधानमंत्री नेहरू पर लगातार राजनीतिक मानसिक दवाब बनाये रखा कि पुर्तगाली उपनिवेश को उखाड़कर गोवा दमन दीव को मुक्त कराया जाये मधुलिमये एनजी गोरे समेत सैंकड़ों   युवा सोशलिस्ट इस आंदोलन के हरावल दस्ते बने जिसे अकेले डा० लोहिया ने १९४४ में पुनर्जीवित किया था. 

आज़ादी के बाद नीतियों पर सुचिंतित कांग्रेस विरोध के कारण तत्कालीन गोदीमीडिया ने सोशलिस्टों के विरुद्ध निंदा और बेरुख़ी का अभियान सा चला दिया जो कालांतर में    बढ़ता गया.अख़बार के १२-१८ पन्नों  में दो इंच एक कॉलम की खबर भी प्रतिपक्षियों की नहीं दिखती थी.गोदी मीडिया तब भी थी हालाँकि  उसका मुख्य काम था नेहरू व कांग्रेस को दिखाना गुणगान करना और मुख्य मुखर प्रतिपक्षी को ओझल करना. यही काम फिर अधिकाँश लेखकों बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों  ने किया , एकांगी लेखन और रिपोर्ट जब तक कि लोहिया प्रणीत रणनीति ( सिद्धांत नहीं ) गैरकांग्रेसवाद अपना परिणाम नहीं दिखाने लगा और जगहजगह जनअसंतोष के कारण कांग्रेस के राजनीतिक एकाधिकार की चट्टानें दरकने नहीं लगी. 

कोई मीडिया या इतिहास लेखन यह तथ्य कैसे भुला सकता है कि आज़ादी के बाद अंग्रेज काल की जस की तस भयावह जेलों   व अफ़सरी तौर तरीक़ों से ही लोहिया जैसे सोशलिस्ट नेता ११ बार जेल में निरुद्ध किये गये , पुलिस ने    असभ्य अमानवीय व्यवहार किया , दो तीन बार शारीरिक यातनाओं   को झेला लाठी आंसूगैस आदि आदि   .निर्धारित सभाओं से पहले ही डा ० लोहिया पुलिस द्वारा भारत सुरक्षा कानून में बंद कर दिये जाते थे. सुप्रीम कोर्ट में हैबियस कॉरपस की सुनवाई होती थी , हर बार खुद ही पैरवी करनी होती थी और महीनों बाद लोहिया रिहा होते थे. 
यह भी तब का आपात्काल था . 

तब कांग्रेसी और वामपंथी सत्तासुख का हलवा लूट रहे थे.मीडिया सदैव से ही गोद में बैठती रही है पर आज तो सब हया शर्म समाप्त है ! राहुल गांधी के पूर्वजों ने एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया है जिसका अतिविकृत रूप ही आज हमें भोगना पड़ रहा है. 

भ्रष्टाचार सांप्रदायिकता व चुनाव में   धन का दुरुपयोग यह आज की खोज नहीं है १९७२ से परवान चढ़ रही है.भाजपा के अधिकांश  दुर्गुण कांग्रेस से सीखे हुये हैं .तब यदि सच्चाई एवं  लोकतंत्र के उच्च सिद्धांतों पर टिके रहते तो यह दिन आज किसी को देखना न पडता. लेकिन आज भी दृष्टि वैसी ही पूर्वाग्रही व एकांगी है तभी तो सिमट कर एक दो राज्यों में आ गये हो , नहीं सुधरोगे तो अभी गड्ढे और बड़े दिख रहे हैं. 
 

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