फ़ज़ल इमाम मल्लिक
राष्ट्रीय जनता दल का मुसलिम प्रेम फिर सवालों में है. मुसलमान और यादवों के समीकरण को लेकर यूं तो राजद बिहार में पंद्रह साल सत्ता में रही लेकिन उस दौर में भी लालू यादव के लिए मुसलमान महज वोट ही थे और सोलह साल सत्ता से बाहर होने के बावजूद राजद मुसलमानों के हक-हकूक की बात करने से न सिर्फ परहेज करता है बल्कि उसे वोट बैंक ही समझता है. लालू यादव जिस एम-वाई यानी माई समीकरण का ढोल पीटते रहे, उसमें मुसलमान कहीं फिट बैठता ही नहीं है. सियासी तौर पर इस समीकरण का जिक्र कर लालू यादव और राजद मुसलमानों का वोट तो लेता रहा लेकिन सिर्फ वादों का लालीपाप थमा कर उन्हें न तो सरकार में सम्मान दिया और न समाज में सम्मान दिलाया. हद तो यह है कि मुसलमान-यादव समीकरण में बिहार के यादव पलीता लगाते रहे. मुसलमान तो चुनाव में लालू यादव के सभी यादव उम्मीदवारों को वोट देकर लोकसभा और विधानसभा भेजते रहे लेकिन यादवों ने राजद के मुसलमान उम्मीदवारों को वोट देने से न सिर्फ गुरेज किया बल्कि भाजपा को वोट देकर इस माई समीकरण की धज्जियां उड़ता रहा. लेकिन मुसलमान भाजपा विरोध के नाम पर राजद के साथ कल भी खड़ा था और आज भी माई के झुनझुने को थाम कर लालू यादव के कसीदे पढ़ रहा है, जबकि राजद के नए रंगरूट तेजस्वी यादव के लिए मुसलमान और भी अछूत बन गए हैं.
बिहार में मुसलमानों का एक वर्ग राजद के इस दोहरे चरित्र पर सवाल तो उठाता है लेकिन वोट के समय भाजपा विरोध के नाम पर राजद के साथ हो जाता है. तब वे भूल जाता है कि यह वही लालू यादव हैं जो 2005 में मुसलमान मुख्यमंत्री के सवाल को अनदेखा कर गए थे और राबड़ी देवी के नाम का ही माला जपते रहे थे. वह यह भी भूल जाता है कि 2015 में महागठबंधन की सरकार बनी तो लालू यादव ने माई समीकरण से मुसलमान को दरकिनार कर बेटे तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था. तब पार्टी के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी इस पद के सबसे बड़े दावेदार थे. दरअसल लालू यादव ने चालाकी से अंग्रेजी के माई शब्द को गढ़ा, जिसका मतलब ‘मेरा’ होता है और इस ‘मेरा’ का पूरा ध्यान रखा लालू यादव ने. परिवार से बाहर उन्होंने न तब देखा था और न अब. विपक्ष के नेता का सवाल आया तो सिद्दीकी साहब फिर दरकिनार कर दिए गए. इस चुनाव में तो उन यादवों ने ही हराया, जिन्हें लालू यादव या उनका परिवार अपना मानता रहा है.
अब तेजस्वी ने भी मुसलमानों को छला. पूर्व सांसद शहाबुद्दीन के मामले में आरोपों में घिरे तेजस्वी यादव की वह चिट्ठी, जो जातीय जनगणना के सवाल पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लिखी थी वह मुसलमानों को मुंह चिढ़ाने के लिए काफी है. जदयू राष्ट्रीय परिषद की बैठक में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इशारों-इशारों में तेजस्वी यादव पर तंज भी कसा. हालांकि उन्होंने नाम तो नहीं लिया तेजस्वी यादव का लेकिन जातीय जनगणना में मुसलमानों की बात उठाई. पहले संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने भी इस पर चिंता जताई थी और राजद के छद्म मुसलिम प्रेम को लोगों के सामने रखा था. तेजस्वी यादव ने 30 जुलाई को नीतीश कुमार को पत्र लिखा था कि जातीय जनगणना के सवाल पर प्रधानमंत्री से सर्वदलीय कमेटी मुलाकात कर अपनी बात रखे. अपने पत्र में उन्होंने सिर्फ हिंदुओं का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा था कि अगर जातीय जनगणना नहीं होती है तो पिछड़े-अतिपिछड़े हिंदुओं की आर्थिक व सामाजिक प्रगति का सही आकलन नहीं हो सकेगा और न ही समुचित नीति निर्धारण नहीं हो सकेगा.
जाहिर है कि यह पत्र मुसलमानों को आहत करने वाला है. नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय परिषद की बैठक में साफ किया कि मुसलमान सिर्फ एसटी में शामिल नहीं हैं. जातीय जनगणना से मुसलमानों की आर्थिक-सामाजिक हालात का भी पता चलेगा. तेजस्वी का यह पत्र उन मुसलमानों के लिए भी आईना है जो राजद के लिए महज वोट बैंक से ज्यादा नहीं हैं. राजद न तो संगठन में उन्हें तवज्जो देता है और न ही सामाजिक-आर्थिक मसले पर मुसलमानों के साथ तेजस्वी खड़े दिखाई देते हैं. भाजपा और दंगों का डर दिखा कर राजद अब तक मुसलमानों का वोट तो लेता आया है. सामाजिक-आर्थिक तौर पर बिहार में लालू यादव ने अपने शासनकाल में मुसलमानों को वह ताकत नहीं दी जो यादवों को दी. राजद के अंदर और बाहर मुसलमानों के इस सच को देखा जा सकता है. मुसलमानों का एक तबका राजद के मुसलिम प्रेम पर सवाल उठा तो रहा है लेकिन वोट के समय भी यह सवाल बाकी रहेंगे, बड़ा सवाल यह है.
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