पहले ही संकट में हिल गए भारत-अमेरिका संबंध

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पहले ही संकट में हिल गए भारत-अमेरिका संबंध

चंद्र भूषण  
अमेरिका के साथ भारत के कूटनीतिक संबंध अभी दोनों देशों के साझा इतिहास के सबसे अच्छे दौर में हैं. दोनों देशों के बीच औपचारिक रूप से कोई सैनिक गठजोड़ तो नहीं है लेकिन अमेरिकी रणनीतिकार नाटो से बाहर पड़ने वाले अपने सबसे नजदीकी और भरोसेमंद देशों में एक भारत को भी गिनते हैं और क्वाड में शामिल बाकी दोनों देशों जापान और ऑस्ट्रेलिया को इसी श्रेणी में मानते हैं. इसे संयोग कहें या कुछ और कि भारत-अमेरिका संबंधों के इस दौर की शुरुआत में एक जरूरी भूमिका अफगानिस्तान की भी थी. मनमोहन सिंह के साथ ऐतिहासिक परमाणु समझौता करने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश सन 2005 में अफगानिस्तान से होते हुए ही भारत आए थे, जो खुद में एक प्रतीकात्मक कदम था.  

उससे पहले तक यूरोप-अमेरिका में ‘भारत-पाक युग्म’ की सोच चलन में थी- ‘एटम बम वाले दो समान शक्तिशाली और निरंतर तनावग्रस्त पड़ोसी देश.’ लेकिन 9/11 के तुरंत बाद अफगानिस्तान में फंस जाने पर बुश का भरोसा पाकिस्तान से उठ गया और भारत से हाथ मिलाकर उन्होंने इस युग्म को तोड़ने की पहल की. यह रिश्ता तब से अबतक लगातार बेहतर ही हुआ है, हालांकि अभी इसमें थोड़ा झोल दिख रहा है. कुछ दिन पहले अफगानिस्तान से आखिरी अमेरिकी सैनिक की विदाई ने एक महाशक्ति के रूप में अमेरिका की छवि को भारी नुकसान पहुंचाया है. लगातार 20 साल वहां डेरा डाले रखने, एक लाख करोड़ डॉलर से ज्यादा की रकम खर्च करने और ढाई हजार के लगभग अपने सैनिकों की जान गंवाने के बाद बिना कुछ हासिल किए धरती के दूसरे छोर से बैरंग वापस लौटना एक ऐसा अनुभव है, जिसे अमेरिका के लोग जल्द से जल्द अपने दिमाग से निकाल देना चाहेंगे.  

रही बात बाकी दुनिया की तो राजनयिक स्तर पर न सही, पर आम जनमानस में यह धारणा बन रही है कि अमेरिकी सिर्फ अफगानिस्तान से नहीं, पूरे एशिया से स्कूल में मार खाए बच्चों की तरह धीरे-धीरे अपना झोला-झंडा उठाए घर के लिए रवाना हो रहे हैं. आखिर वे थोड़ा ही पहले इराक से भी अफगानिस्तान जैसा ही कबाड़ा अपने पीछे छोड़कर वापस लौटे थे. उसके पहले फिलीपीन्स में और उसके भी पहले विएतनाम में ऐसे दृश्य देखने को मिले थे. इस धारणा के पीछे एक ऐसी समझ भी काम कर रही है कि एशिया में बने रहने का कोई ठोस आर्थिक-सामाजिक तर्क अब अमेरिका के पास नहीं बचा है. 

खाड़ी क्षेत्र में वे तेल के लिए और कुछ हद तक इजराइल को संरक्षण देने के लिए जमे रहते थे. लेकिन तेल के मामले में अमेरिकी अब आत्मनिर्भर हो चुके हैं. दुनिया में प्रतिदिन सबसे ज्यादा तेल आज सऊदी अरब में नहीं, अमेरिका में ही निकाला जा रहा है, जिसे बेचना बीच-बीच में उनके लिए भारी समस्या बन जाता है. कम लोगों को पता है कि विएतनाम में अमेरिकी सेना की मौजूदगी को जायज ठहराने के लिए रिपब्लिकन पादरियों की टीमें अमेरिका के विश्वविद्यालयों में घूम-घूमकर छात्रों को समझाती थीं कि ईसाइयत को बचाने के लिए अमेरिका का वहां होना कितना जरूरी है. उनकी कोशिश तब भी वहां ज्यादा सफल नहीं हो पाई थी. अभी तो ईसाइयत को घोषित एजेंडा बनाना और मुश्किल हो गया है. ऐसे में अमेरिकी क्या बहाना बनाकर एशिया में रहेंगे? 

सबसे पहले कुछ बातें इस धारणा की बुनियाद पर की जाएं. अफगानिस्तान और इराक से हट जाने के बावजूद अमेरिकी सैनिकों की बड़ी संख्या आज भी एशिया में है. सिर्फ छह देशों जापान, दक्षिण कोरिया, बहरीन, कुवैत, सऊदी अरब और तुर्की को मिलाकर अमेरिकी थलसेना, वायुसेना, नेवी, मरीन्स, और कोस्टगार्ड के लगभग एक लाख सैनिक अभी एशिया में हैं और उन्हें हटाने की कहीं कोई चर्चा तक नहीं है. इसके अलावा थाईलैंड, सिंगापुर और खाड़ी के कई देशों में सौ-दो सौ अमेरिकी सैनिकों की स्थायी छावनियां मौजूद हैं, जिनका काम वहां के शासकों को सुरक्षा देना है. हां, इन सारे ही देशों में वे गैर-लड़ाकू, नॉन-कॉम्बेटेंट भूमिका में हैं. चांदमारी के अलावा गोली चलाने की नौबत उनके सामने इनमें से किसी भी जगह पर किसी असाधारण स्थिति में ही आ सकती है. 

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में टहलते रहने वाले दर्जनों अमेरिकी युद्धपोतों का किस्सा ही अलग है. इसके अलावा नजदीक के तीन अमेरिकी फौजी अड्डों- ग्वाम, हवाई और दिएगो गार्सिया में पचास हजार से ज्यादा सैनिक हमेशा रहते हैं. जाहिर है, एशिया में एक सैन्य सहयोगी के रूप में अमेरिका की सैनिक क्षमता पर अभी कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. अलबत्ता एक सत्ता-संरक्षक के रूप में उसकी भूमिका पर सवाल उठने लाजमी हैं. ध्यान रहे, काबुल से अमेरिकी फौजियों की विदाई ने इन्हें मजबूती भले दी हो लेकिन इनकी शुरुआत कहीं और से हुई है. 

भारत में लोकपाल आंदोलन से जरा पहले, सन 2011 की शुरुआत में जब उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया के अरब देशों में लोकतांत्रिक आंदोलनों की लहर उठी तो लीबिया और ट्यूनीशिया के अलावा वहां की सारी तानाशाहियों को कई दशकों से अमेरिका की छत्रछाया प्राप्त थी. तत्कालीन ओबामा शासन ने कोई पक्षधरता दिखाए बगैर इन सारे देशों के शासकों को भीड़ के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया तो दुनिया की राय यह बनी कि शायद ऐसा उन्होंने अपने लोकतांत्रिक आग्रहों के चलते किया हो. लेकिन ठीक इसी समय उन्होंने इराक और सीरिया के शिया शासकों के खिलाफ आईएसआईएस जैसी मानवता विरोधी शक्ति को हवा भी दी. जनसंहारों के लंबे सिलसिले के बावजूद उसके खिलाफ ओबामा ने तबतक एक सींक भी नहीं उठाई, जबतक रूस ने तुर्की और अमेरिका के साथ इस संगठन के गठजोड़ को एक्सपोज करके सीधे इसपर हमला ही नहीं बोल दिया. 

यह हाल जब हमें कुछ ही साल पहले अमेरिकी इतिहास के सबसे लोकतांत्रिक मिजाज वाले शासकों में से एक का देखने को मिला है, तो डॉनल्ड ट्रंप जैसे लोकतंत्र की रत्ती भर भी परवाह न करने वाले राजनेता की बात ही क्या करनी. इससे एक बात तो तय हो गई कि दुनिया की कोई भी सरकार अगर यह सोचती हो कि अमेरिकी हुकूमत किसी कूटनीतिक या वैचारिक प्रतिबद्धता के तहत अपना नुकसान बर्दाश्त करके भी उसके साथ खड़ी होगी, तो यह भ्रम उसे अपने दिल से निकाल देना चाहिए. एक तरह से यह अच्छा भी है क्योंकि अतीत में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई तानाशाहों को हमने अमेरिकी संरक्षण में ही एक से एक कारगुजारियां करते देखा है.  

राजनय के रिश्ते एक स्तर की बराबरी पर ही आधारित होने चाहिए. दो देश एक-दूसरे को फायदा पहुंचाते हुए साथ-साथ चलें और मिलकर किसी तीसरे को नुकसान पहुंचाने के लिए कुछ न करें. संरक्षण वाली सोच लंबे दौर में कमजोर देश को नुकसान ही पहुंचाती है, इसे समझने के लिए हमारे पड़ोसी पाकिस्तान का मौजूदा हाल देखना काफी रहेगा. महाशक्तियों के साथ भारत का रिश्ता संरक्षण वाला कभी नहीं रहा. शीतयुद्ध के सबसे तीखे दौर में, जब दुनिया की कथित मीडिया मुख्यधारा भारत को पूरी तरह से सोवियत खेमे का देश बताने में जुटी थी, तब भी भारत ने 1971 की लड़ाई पाकिस्तान को अमेरिका के खुले संरक्षण के बावजूद, उसके दिए हुए सारे हर्बे-हथियारों, सैटेलाइट जासूसी और सीआईए की सारी तरकीबों के बावजूद अपने दम पर जीती थी. सोवियत संघ की सहायता संयुक्त राष्ट्र में कूटनीतिक स्तर पर ही मिली, वह भी लड़ाई खत्म हो जाने के बाद.  

अफगानिस्तान से अमेरिका की विदाई के बाद अपने पड़ोस में भारत की मुश्किलें बढ़ी हैं. तालिबान को सत्ता हस्तांतरण से पहले अमेरिका इस देश का भविष्य तय करने में भारत की ज्यादा बड़ी भूमिका सुनिश्चित कर सकता था. लेकिन इस काम के लिए आयोजित बैठकों में उसने रूस, चीन और पाकिस्तान को तवज्जो दी. इस बात का जरा भी ध्यान नहीं रखा कि भारत ने अपनी खराब आर्थिक स्थिति के बावजूद उसके भरोसे पर ही अपने अरबों डॉलर अफगानिस्तान में लगा रखे हैं. और यह कोई अपने ढंग का अनोखा मामला नहीं है. अमेरिकी कूटनीति एक अर्से से वर्चस्व और एकतरफा हड़बड़ी के लिए ही जानी जाती रही है, जिसकी शिकायत यूरोपीय देश न जाने कब से करते आ रहे हैं. अमेरिका से भारत के राजनयिक संबंध और भी अच्छे हों, यह समय की मांग है. लेकिन इस मामले में बराबरी का आग्रह हमें बनाए रखना चाहिए, जो शुरू से ही भारतीय राजनय की पहचान रहा है.फ़ेसबुक वाल से साभार  
 

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