पहला झटका हमें चीन में दिखा है

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पहला झटका हमें चीन में दिखा है

चंद्र भूषण  
चीनी रीयल एस्टेट कंपनी एवरग्रैंड की क्रेडिट रेटिंग पिछले दो महीनों में एक ही इंटरनेशनल रेटिंग एजेंसी द्वारा तीन बार डाउनग्रेड की गई लेकिन हाल-हाल तक वह किसी बड़ी समस्या से इन्कार करती रही. फिर अचानक कंपनी ने बयान जारी किया कि उसके बनाए मकानों, दुकानों और दफ्तरों की नई सेल लगभग पूरी तरह रुक गई है और कर्जों की किस्तें लौटाने में उसको समस्या हो सकती है. भारत में न जाने कितनी रीयल एस्टेट कंपनियों के साथ पिछले कुछ सालों में हमने ऐसा होते देखा है. लेकिन एवरग्रैंड का डिफॉल्ट करना कितनी बड़ी बात है, इसका अंदाजा लगाने के लिए आप उसके कर्जों पर नजर डालें. उसने कई चीनी बैंकों से कुल मिलाकर 300 अरब डॉलर का कर्जा ले रखा है. भारतीय रुपयों में यह रकम 22 लाख करोड़ रुपये से जरा ज्यादा ही बैठती है! 

निश्चय ही यह राशि काफी बड़ी है लेकिन अगर यह पूरी तरह डूब जाए तो भी हमारे लिए इसमें चिंता की क्या बात है? चीन दुनिया की दूसरे नंबर की अर्थव्यवस्था है और भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार भी है. लेकिन चीन में ठंड बढ़ने से भारतीय अर्थव्यवस्था को जुकाम लग जाए, ऐसी नौबत तो अभी नहीं आई है. चीनी केंद्रीय बैंक ने एवरग्रैंड मामले में रुचि लेनी शुरू कर दी है और बिल्कुल संभव है कि अगले कुछ दिनों में वह इस कंपनी को कर्जा देने वाले बैंकों को देर से अदायगी और हेयरकट (ब्याज, मूलधन या दोनों में कटौती) के लिए राजी कर ले. उसकी असल चिंता यह है कि इस कंपनी की बीमारी कहीं पूरे रीयल एस्टेट सेक्टर में न फैल जाए, जिसने फिलहाल चीन के कुल जीडीपी के एक चौथाई के बराबर कर्जा उठा रखा है. यहां से आगे समस्या दूसरे औद्योगिक क्षेत्रों में और चीनी अर्थव्यवस्था से बाहर भी जा सकती है. कोरोना के दौर में आर्थिक दायरे में ऐसी छूत की बीमारी अभी बिल्कुल चर्चा में नहीं है लेकिन इसकी आशंका इधर लगातार जताई जा रही है. 

पिछले हफ्ते रूस के केंद्रीय बैंक ने दुनिया में सरकारी और निजी कर्जे 25 ट्रिलियन डॉलर- अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सवागुना- की सीमा पार कर जाने की बात कही थी. इस कर्जे के बोझ को लेकर तो कहीं कोई बात ही नहीं हो रही है. अभी हर जगह सस्ती से सस्ती दर पर ज्यादा से ज्यादा कर्जा बांटने, पिछले कर्जे की उगाही टालने और जितना हो सके उतना माफ कर देने की उम्मीद सरकारों से की जा रही है. ऐसा माहौल न रहता तो अब से छह-सात साल पहले जिस तरह ग्रीस का दिवाला पिटा था और दक्षिणी यूरोप के कई देशों के कर्जे की बाढ़ में डूब जाने की बातें हवा में थीं, वैसी कई घटनाएं पिछले डेढ़ वर्षों में ही हो चुकी होतीं. छोटे-मोटे कई देशों के केंद्रीय बैंक कर्ज अदायगी में असमर्थता जताकर अलग ही तरह का मानवीय संकट पैदा कर चुके होते. 

फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा तो इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि बीमारी से जुड़ी सुस्ती को छोड़कर बाकी सब ठीकठाक है. बेहिसाब बांटे गए कर्जे का असर पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ रही महंगाई की शक्ल में दिखाई पड़ने लगा है. शास्त्रीय हिसाब से इसकी वजहें तीन हैं. एक यह कि कुछ चीजों का उत्पादन अभी पूरी क्षमता पर नहीं हो पा रहा है लेकिन उनकी मांग अपने स्वाभाविक स्तर पर आ गई है- सप्लाई साइड इन्फ्लेशन. बेरोजगारी नियंत्रित रखने के लिए सरकारों ने इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्चा बहुत बढ़ा दिया है. लिहाजा सीमेंट, लोहा और निर्माण कार्य से जुड़े बाकी सामानों में मांग आधारित मंहगाई (डिमांड साइड इन्फ्लेशन) भी देखने को मिल रहा है.  

लेकिन बाजार में मुद्रा की आपूर्ति चीजों और सेवाओं की खरीद-बिक्री से जुड़ी जरूरतों से कहीं ज्यादा हो जाने के कारण पैदा होने वाली तीसरी तरह की महंगाई रहस्यमय ढंग से बढ़ती है और अपने पीछे भ्रष्टाचार और विषमता का परनाला छोड़ती हुई आती है. इसको रोकने के लिए ब्याज दरें बढ़ाने और कर्ज की शर्तें सख्त करने के सिवा और कोई रास्ता केंद्रीय बैंकों के पास नहीं होता. रूस के केंद्रीय बैंक ने पिछले दिनों अपनी मुख्य ब्याज दर एक ही बार में सीधे एक फीसदी बढ़ा दी. बाकी देश इस दिशा में कब कदम बढ़ाते हैं, यह देखने की बात है. ऐसा जब भी होगा, कोरोना के दौरान रचे गए कई सारे तिलस्म टूट जाएंगे और दुनिया को कई सारे छोटे-बड़े आर्थिक झटके झेलने के लिए तैयार रहना होगा. इस प्रार्थना के साथ कि 2008-09 जैसा कोई साझा प्रभाव उनका न देखने को मिले.  

यह एक विडंबना ही है कि इस तरह का पहला झटका हमें चीन में दिखा है, जहां कोरोना का प्रकोप सबसे पहले आया था लेकिन जिसका असर उसी को सबसे कम झेलना पड़ा. बताया जा रहा है कि एवरग्रैंड की समस्याओं की शुरुआत चीनी केंद्रीय बैंक द्वारा पिछले साल जारी की गई ‘थ्री रेड लाइंस’ के साथ हुई थी. इसमें बैंकों से कंपनियों को दिए हुए कर्जों की समीक्षा करने को कहा गया था- 1. कहीं ये उनकी वापसी क्षमता से ज्यादा तो नहीं हैं, 2. कंपनियों ने कोलैटरल के रूप में पर्याप्त संपत्ति गिरवी रखी है या नहीं, और 3. डिफॉल्ट होने की स्थिति में बैंकों ने अपने पास जरूरी पूंजी की व्यवस्था कर रखी है या नहीं. ये लाल रेखाएं कमोबेश भारतीय रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन द्वारा बैंकों के लिए जारी की गई गाइडलाइंस जैसी ही हैं. फर्क इतना ही है कि भारत में कंपनियों द्वारा बैंकों को लगाया जा रहा चूना पकड़ में आया जबकि चीन में कंपनियां पकड़ में आने लगीं. 

एवरग्रैंड मामले से सबक लेकर भारत में अभी इतना ही किया जा सकता है कि डिफॉल्ट के कगार पर बैठी कंपनियों का हिसाब-किताब रखा जाए और उन्हें बचाने के लिए समय रहते जरूरी उपाय किए जाएं. जिन कंपनियों का पुराना कर्जा संदिग्ध स्थिति में हो उन्हें बचाने के लिए नया कर्जा बांटने के बजाय उनके कारोबार की दशा सुधारने के लिए काम किया जाए. कोरोना की बीमारी अभी गई नहीं है और कई देशों में काफी वैक्सिनेशन के बावजूद जाते-जाते वापस लौट आई है. लिहाजा सरकारों के सामने पहली प्राथमिकता बीमारी से निपटने और लोगों का रोजगार बचाए रखने की ही है. लेकिन ग्लोबल अर्थव्यवस्था बड़ी बेरहमी से काम करती है और बड़े-बड़े महल इसमें ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं. लिहाजा एक आंख हमें कर्जे से जुड़ी वित्तीय महामारी पर भी रखनी होगी. 
साभार नवभारत टाइम्स 
 

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