प्रेमकुमार मणि
दीवाली के वक़्त जहरीली शराब से हुई दर्जनों लोगों की मौतों के बाद से शराब और इसका निषेधक कानून बिहार की राजनीति का केंद्रीय विषय बन गया है. हम कह सकते हैं कि यह सामाजिक विमर्श का भी विषय बन गया है. विगत 16 नवम्बर को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लगातार सात घंटे तक बैठक कर सूबे में शराबबंदी की समीक्षा की. आरोप -प्रत्यारोप से घिरे नीतीश इस मामले में लगभग किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके हैं. उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि करें तो क्या करें. हकीकत यह है कि इस मामले में उनकी स्थिति संभवतः सांप -छछूंदर वाली हो चुकी है. वह न तो इस कानून में ढील दे सकते हैं ,न ही इसे ठीक ढंग से लागू. 16 नवम्बर की मेराथन बैठक के बाद भी कोई खास निर्णय नहीं आया है. जो आया है उसमें काफी झोल है. जहाँ तक मेरी समझ है ,आने वाले दिनों में नीतीश सरकार की मुसीबतें इन फैसलों के कारण बढ़ने वाली है. नए फैसले के मुताबिक चौकीदार से लेकर अफसर तक की जवाबदेही तय की गई है कि उनके इलाके में यदि शराबबंदी कानून किसी स्तर पर टूटता है ,तब उसके लिए उस इलाके के चौकीदार से लेकर अफसर तक दंडित किये जाएंगे.
इस फैसले में सनक के सिवा और कुछ नहीं है. क्या यह जवाबदेही पहले नहीं थी ? यदि थी तो फिर इसे दुहराने का क्या मतलब ? एक लोकोक्ति है कि कोई भी नया कानून कुछ की बलि चाहता है . इस कानून के मामले में यह संभव नहीं हुआ था. छोटे सिपाही -जमादार भले दंडित हुए हों ,मेरे जानते अब तक किसी आईपीएस -आईएएस अधिकारी को दंडित नहीं किया गया है. आगे इसमें परिवर्तन होगा, इसमें संदेह है. बलि कभी भी बाघ यानी ताकतवर की नहीं होती. हमेशा कमजोर बकरियां ही कुर्बान होती रही हैं. इस बार भी ऐसा ही होगा. चौकीदार -सिपाही से आगे मामला जाएगा, इसकी उम्मीद कम ही है. और यदि जाएगा ही तो इससे क्या हो जाएगा. जानकारी यह है कि इस कानून की चपेट में 1लाख 22 हजार लोग आ चुके हैं. डीजीपी साहब का कहना है हमने बडे लोगों पर तो अबतक छापा मारा ही नहीं है. अर्थ यह है कि उपरोक्त संख्या ठर्राजीवी लोगों की है,जो दलित- पिछडे समूहों से आये हैं. अपने राजकाज के पहले दस वर्षों में नीतीश सरकार ने ही शराब का अबाध विस्तार किया. फिर अचानक सम्पूर्ण निषेध. यह अपने आप में एक पाखण्ड है.
क्या कल के फैसले में चौकीदारों के अधिकार क्षेत्र का विस्तार हुआ है ? मेरी जानकारी के अनुसार जो राजकीय विज्ञप्ति आई है उसमें इसकी कोई विवेचना नहीं है . शहरी क्षेत्रों में तो नहीं ,लेकिन देहाती क्षेत्रों में हर पंचायत में चौकीदार हैं. क्या उनके पास इतनी ताकत है कि वे किसी की भी घर तलाशी ले सकें? ख़ास कर बड़े लोगों के घर की ? चौकीदारों की भूमिका उनके क्षेत्र की किसी घटना की थाने में सूचना देने भर की है . वे अपनी मर्जी से न तो कोई फैसला ले सकते हैं ,न कार्रवाई कर सकते हैं . उन्हें घरों में झाँकने का भी अधिकार नहीं है. अब ऐसे में उन्हें यदि जिम्मेदार बनाया जाता है ,तो साफ़ है कि उनपर ज्यादती की जा रही है .
काश ,नीतीश सरकार इस मामले को लेकर गंभीर होती! हर कोई इस बात से सहमत होगा कि शराब के अबाध विस्तार को रोका जाय और इसे काबू में रखा जाय. लेकिन जब पूर्णता की बात होती है ,तब यह एक स्वांग बनने लगता है. इसके इर्द -गिर्द मिथ्याचार -पाखंड स्वतः विकसित होने लगते हैं . चोरी , असत्य वादन , हिंसा , यौनिकता पर जैसे ही पूर्ण निषेध की कोशिश होती है ,यह नाटक बनने लगता है और अंततः इसका एक पाखंड रूप सामने आता है. यौन संबंधों को मर्यादित करने को सिरफिरे लोगों ने ब्रह्मचर्य तक पहुँचा दिया. यह पूर्ण निषेध की स्थिति है. इसके पाखंडों पर अधिक बोलने की जरुरत नहीं समझता. इन्दिरा गाँधी ने अनुशासन के नाम पर इमर्जेंसी थोप दी थी. सम्पूर्ण अनुशासन आपातकाल ही हो जाता है. हिंसा को अशोक ने जब पूर्णता की स्थिति देनी चाही थी ,तो ऐसा ही पाखंड विकसित हुआ था. इसे लेकर ख्यात कथाकार भीष्म साहनी की एक कहानी है. भूल नहीं रहा हूँ तो उसका शीर्षक 'शोभायात्रा ' है. राजा अशोक अपने राजमहल में विचरण कर रहा है . परकोटे से वह देखता है कि राजमार्ग से कुछेक लोग झाल -बाजे के साथ एक बकरी को बलि हेतु लिए जा रहे हैं . आरक्षियों को वह रोकने का आदेश देता है . पूर्ण अहिंसा की राजाज्ञा जारी हो चुकी थी . लोग अपने में खोये हुए झाल -मजीरा बजाते चले ही जा रहे हैं. आगे स्थित मंदिर में उन्हें बलि देनी थी. उनकी मन्नत थी. आरक्षी उन्हें समझाते हैं. लोग मानते नहीं. अंततः बकरी को लिए -दिए लोग मंदिर के भीतर जाते हैं . अब राजाज्ञा अथवा कानून और आमजन के बीच आमना -सामना होता है. कानून ( राजाज्ञा ) की रक्षा तो हर हाल में करनी है. इसके लिए आरक्षी दल भी मंदिर में घुसता है. कुछ देर बाद साबूत बकरी लिए आरक्षी दल बाहर निकलता है. मंदिर से खून की एक मोटी धार भी निकलती है. कानून की रक्षा हो गई ,लोग मार दिए गए. सनक भरे कानूनों का यही हश्र होता है. नीतीश कुमार को इस पाठ से सबक लेना चाहिए था. लेकिन शायद सबक लेने की क्षमता ही उन्होंने खो दी है. अतियों के रास्ते पर चल कर इन्ही गतियों की प्राप्ति होती है.
शराबबंदी की इस मेराथन बैठक में इस बिंदु पर भी विमर्श होना चाहिए था कि इस कानून को लेकर जो राजबल लग रहा है उसका राज्य के विकास पर समग्र प्रभाव कैसा होगा. शराब की रोकथाम निश्चय ही महत्वपूर्ण है ,लेकिन कोई नहीं कहेगा कि इसी में राज्य की पूरी ताकत को झोंक दिया जाय. यह तत्परता यदि शिक्षा, कृषि या उद्यमिता के विस्तार पर हुआ होता तो उसके सफल नतीजे आते. नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट यह है कि बिहार विकास के हर मुद्दे पर फिसड्डी है. शराबबंदी कोई ऐसा मुद्दा नहीं है कि राज्य के पूरे शासकीय और पुलिस बल को उसके उन्मूलन पर लगा दिया जाय. अतिरिक्त सतर्कता ने इसे एक प्रहसन बना कर रख छोड़ा है.
मेरा आग्रह होगा कि नीतीश कुमार अपनी जिद वापस लें. शराबबंदी को लेकर ऐसा कानून और व्यवस्था लाएं ,जिससे शराबखोरी पर लगाम लगे. लेकिन सनक से बाज आएं. सम्पूर्णता की अवधारणा ही हिंदुत्व की पाखंडपूर्ण अवधारणा है. एक हिन्दू निर्वाण की बात नहीं करता ,मोक्ष की बात करता है . जेपी ने राजनीति में इसकी कॉपी सम्पूर्ण क्रांति नाम से की थी. इसकी कोई व्याख्या भी वह नहीं कर सके. कुरेदने पर कहा लोहिया की सप्त क्रांति ही मेरी सम्पूर्ण क्रांति है. सप्त को सम्पूर्ण बनाने की आखिर उन्हें क्यों पड़ी थी. प्रतीत होता है संघ की नागपुर कार्यशाला में यह कायाकल्प हुआ था. सम्पूर्ण क्रांति ने अंततः पूरे समाजवादी आंदोलन का गला घोंट दिया. नीतीश उसी तरह सम्पूर्णता के चक्कर में पड़ गए हैं. सम्पूर्णता दार्शनिक स्तर पर शून्यता होती है. नीतीश शायद ही इसे समझ पाएंगे. सरकार को हर हाल में शराब-निरपेक्ष होना चाहिए, लेकिन सम्पूर्ण निषेध की स्थिति केवल पाखण्ड ही विकसित कर सकती है.
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