फ़ज़ल इमाम मल्लिक
इस आलेख का शीर्षक कुछ और भी हो सकता था. हिंदू हवा, मुसलमान हवा या फिर हिंदू प्रदूषण, मुसलमान प्रदूषण या इसी तरह का मिलता जुलता कोई और शीर्षक. हिंदू-मुसलमान के साथ कुछ भी जोड़ दें. शीर्षक तैयार. देश में आजकल इसी तरह की पत्रकारिता हो रही है. चैनलों पर हर रोज हिंदू-मुसलमान को लेकर बहसें हो रहीं हैं. माहौल को भी हिंदू-मुसलमान बना डाला गया है और चैनलों के स्टूडियो भी हिंदू-मुसलमान में बदल गए हैं. वैसे अपनी-अपनी आस्था है. इसे अपनी-अपनी आस्था के मुताबिक हिंदू-मुसलमान पढ़ सकते हैं या मुसलमान-हिंदू भी. फलवाले, सब्जीवाले, रेहड़ीवाले, मजदूर-किसान तो हिंदू मुसलमान के खानों में पहले ही बांटे जा चुके हैं. हवा, पटाखे, फूल-खुश्बू, रंग बाकी रह गए थे. इस बार दीपावली ने पटाखों और हवाओं को भी हिंदू-मुसलमान में बांट दिया. दरअसल पिछले कुछ सालों से लोगों की भावनाएं बेतरह आहत होने लगी है.
कोई विज्ञापन आया, हिंदू-मुसलमानों की मोहब्बत को दिखाया, कुछ लोगों की भावनाएं फौरन आहत हो गईं. विराट कोहली ने पटाखे छोड़ने की अपील की भावनाएं आहत हो गईं. आमिर खान ने कोई विज्ञापन दिया, भाजपा वाले पीछे पड़ गए भावनाएं आहत हो गईं. यानी कुछ लोग बैठे रहते हैं, कुछ हुआ नहीं कि भावनाएं आहत. क्या कर लेंगे हम-आप. भावनाएं ठहरीं तो आहत भी होंगी. लेकिन पिछले कुछ सालों में यह भावनाएं जैसे आहत होने के लिए ही सड़कों पर टहलती रहतीं हैं. बस कुछ हुआ नहीं कि आहत हुईं और फिर सड़कों पर प्रदर्शन. जय श्रीराम, हो गया काम. भावनाएं हिंदुओं की भी आहत होतीं हैं और मुसलमानों की भी. अब इसमें हम आप कुछ कर भी नहीं सकते, बस इसके सिवा कि भावनाओं को आहत होते देखते रहें.
लेकिन बात तो पटाखों की हो रही थी. पटाखों को लेकर हर साल दिवाली के मौके पर बवाल होता रहा है. लेकिन इस बार कुछ ज्यादा ही हुआ. पटाखों को मजहब के चश्मे से जोड़ दिया गया. हिंदू आस्था की बात भी हुई और धर्म की दुहाई भी दी गई. विराट कोहली को भी ट्रोल किया गया और आमिर खान को भी. दोनों ने एक संदेश या कहें कि विज्ञापन के जरिए लोगों से पटाखे न छोड़ने की गुहार लगाई थी. कई और लोगों ने भी लगाई थी. यूं भी सुप्रीम कोर्ट पहले ही पटाखों पर पाबंदी लगा चुका है लेकिन इस पाबंदी के बावजूद राजधानी दिल्ली में ही लोग दिल खोल कर पटाखे छोड़ते हैं. हर साल की यही कहानी है. दिवाली के दूसरे दिन पटाखों का धुआं लोगों की सांसों में घुल कर लोगों को बेचैन करता है. लेकिन बात धर्म की हो और आस्था की भी तो कौन पाबंदी लगाता है. महीने-पंद्रह दिन खूब चर्चा होती है और फिर सब कुछ पहले जैसा. इस बार लोगों ने पटाखों को मजहब से जोड़ दिया.
दक्षिणपंथी संगठनों के साथ-साथ भाजपा के कई मंत्री-संतरी पूरे लाव-लशकर के साथ मैदान में उतरे और सवाल उठाया. उनका सवाल मासूम भी था और वाजिब भी. कइयों ने तो वीडियो संदेश तक जारी कर डाला और इसे हिंदुओं का अपमान बताते हुए खूब पटाखा छोड़ने की बात कही. लगातार हैशटैग के साथ पटाखा छोड़ने और हिंदू धर्म को अपमानित होने और खतरे से बचाने का अभियान चलाया गया. कहा यह गया कि हिंदू और हिंदू पर्व-त्यौहारों को निशाना बनाया जा रहा है. सारी बंदिश हिंदुओं पर लगाई जा रही है. इसलिए जम कर पटाखे फोड़ें. हुआ भी ऐसा ही. देशभक्तों का अभियान रंग लाया और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद जम कर पटाखे छोड़े गए. नतीजा यह निकला कि दूसरे दिन दिल्ली धुआं-धुआं थी.
धुएं में लिपटी दिल्ली ने बहुतों को परेशानी में डाला. फिर शुरू हुई सियासत. मेरी कमीज, तेरी कमीज की बात होने लगी. जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डालने की मुहिम शुरू हुई. वह तो सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया और कड़े शब्दों में उसने सरकारों को चेताया. सरकारों ने जो तर्क दिए अदालत उससे सहमत नहीं दिखी. प्रदूषण के बढ़ते खतरे की बात तो सरकारों ने की लेकिन जो सवाल मूल में हैं उन पर चर्चा करने से सरकारों ने गुरेज किया. बात तो उन पटाखों पर भी होनी चाहिए थी और जिन लोगों ने सोशल मीडिया पर अभियान चलाया था, उनके खिलाफ कार्वाई होनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
दिल्ली-एनसीआर की हवा में जहर इतना घुल गया है कि स्कूल-कॉलेजों को बंद करना पड़ा है. माना जा रहा है कि स्कूल और कॉलेजों में एक बार फिर ऑनलाइन कक्षाएं शुरू की जा सकती हैं. इसके अलावा भी कई और कदम उठाए गए हैं. सवाल यह है कि ऐसे हालात का जिम्मेदार कौन है. दिल्ली-एनसीआर में दिवाली के बाद प्रदूषण बढ़ गया है. दिवाली पर जमकर पटाखे फोड़े गए जबकि इस पर रोक लगाई गई थी. दिवाली के बाद से दिल्ली और एनसीआर के शहरों में जबरदस्त धुएं का गुबार दिख रहा है. मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा था कि हालात इतने ख़राब हैं. हम अपने घर के अंदर भी मास्क पहन रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कोई नई नहीं है. हर साल कमोबेश ऐसी ही कहानी देखने को मिलती है. अदालत सरकारों को फटकार लगाती है लेकिन सरकार पटाखे छोड़ने वालों को खुली छूट देती आई है. अदालत के आदेश को न सरकारें लागू करवा पाईं हैं और न पुलिस-प्रशासन. पूरा तंत्र अदालत के फैसले का मखौल उड़ता हर साल देखती रहती है. इस साल तो मामला मजहबी हो गया था तो किस की मजाल किसी को रोके, किसी को टोके. सरकार का तंत्र फेल है. पटाखों पर पाबंदी है तो क्या दिवाली, क्या ईद और क्या क्रिसमस, इसे रोकना सरकार की जिम्मेदारी है. तो सवाल यह है कि उसके हाथ किसने बांधे हैं.
होना तो यह चाहिए कि देश में पटाखों के निर्माण पर ही रोक लगा देनी चाहिए और कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाना चाहिए क्योंकि जहरीली हवा न हिंदू देखती है, न मुसलमान. आने वाली नस्लों को बचाने और साफ-सुथरा माहौल बनाने के लिए हिंदू पटाखा-मुसलमान पटाखा से आगे की सोचना होगा नहीं तो न हम बचेंगे न हमारी नस्लें. हर साल पटाखा, पराली और प्रदूषण को लेकर बहसें होतीं हैं. लेकिन उन बहसों का क्या नतीजा निकला, सामने है. धुआं-धुआं दिल्ली को देख कर भी आप नहीं चेते तो फिर सांसों में घुलते जहर से आपको कोई नहीं बचा सकता. आस्थाएं भी कहीं दूर खड़ी हम पर मर्सिया पढ़ रहीं होंगी. तब न हिंदू होना काम आएगा, न मुसलमान होना. गांठ बांध लें.
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