क्या मुख्यमंत्री बघेल की यह भाषा संतों का सम्मान है?

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क्या मुख्यमंत्री बघेल की यह भाषा संतों का सम्मान है?

अनिल पुरोहित 
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के उत्तरप्रदेश दौरे में हुई एक चुनावी सभा का ताज़ा वीडियो सोशल मीडिया में उपलब्ध हुआ है. इसमें वे छत्तीसगढ़ की अपनी सरकार के कामों का खूब कसीदा पढ़ रहे हैं. छत्तीसगढ़ सरकार के काम और दावों का ज़मीनी सच क्या है, यह तो प्रदेश जानता है, और भारतीय जनता पार्टी की छत्तीसगढ़ इकाई प्रदेश सरकार की विफलताओं को लेकर जनता के बीच जाकर उत्तरप्रदेश के चुनावों की दशा-दिशा तय करने की कैसी रणनीतिक तैयारी कर रही है, इसका अभी खाका सामने नहीं आया है पर भाजपा मुख्यमंत्री बघेल के चुनावी भाषणों पर हमला करने की तैयारी में लगी ही होगी. परंतु, यहाँ मुख्यमंत्री बघेल के इसी भाषण के शुरुआती अंश की चर्चा करके कांग्रेस के राजनीतिक चरित्र का चित्रण करना ज़रूरी प्रतीत हो रहा है. 

मुख्यमंत्री बघेल को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को खड़ा रखकर, ख़ुद पहले कार में बैठकर चले गए और मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ पैदल चलकर अपनी कार में बैठे. यह मुख्यमंत्री योगी के साथ-साथ उत्तरप्रदेश का अपमान है. दूसरी बात मुख्यमंत्री बघेल ने कही कि प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री के कंधे पर हाथ रखकर संत-परंपरा का अपमान किया है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के विरोध की इंतेहा तक जा चुके कांग्रेस के लोग अब बेहद विचलित हैं. मुख्यमंत्री के तौर पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कामों को आम तौर पर मिल रही सराहना और उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की ख़स्ता हालत भी कांग्रेस के लोगों को इतना विचलित कर रही है कि वे अपने कर्मों और अपने साथ हुए व्यवहार का हिसाब देना ही भूल जाते हैं. मुख्यमंत्री बघेल का सीधा-सपाट एजेंडा है कि किसी तरह प्रधानमंत्री मोदी को कोसें और मुख्यमंत्री के अपमान की चर्चा छेड़कर उसे उत्तरप्रदेश का अपमान बताकर कुछ वोट कबाड़ लिए जाएँ. अन्यथा मुख्यमंत्री बघेल इतने मासूम तो नहीं हैं कि वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के प्रोटोकॉल के बारे में नहीं जानते होंगे. बड़ी सीधी-सी बात है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री यदि किसी कार्यक्रम में एक साथ हैं तो प्रोटोकॉल में पहला स्थान राष्ट्रपति का होगा, राज्यपाल और मुख्यमंत्री की मौज़ूदग़ी में प्रोटोकॉल राज्यपाल को पहले स्थान पर रखेगा. इसी तरह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के प्रोटोकॉल में प्रधानमंत्री का स्थान पहले होगा. अब मुख्यमंत्री बघेल जिस राजनीतिक चरित्र के धनी हैं, उसमें वे इन पदों के प्रोटोकॉल का सम्मान न करें, तो हैरत नहीं होनी चाहिए. पर मुख्यमंत्री योगी के बहाने उत्तरप्रदेश के अपमान पर विचलित होने से पहले मुख्यमंत्री बघेल स्वयं अपने, छत्तीसगढ सरकार के मंत्रियों, कांग्रेस विधायकों के साथ दिल्ली में जो कुछ हुआ, छत्तीसगढ़ का अपमान बताकर उसका भी तो स्यापा कर लेते. इसी के साथ उन्होंने संत-सम्मान की बात कही है. कांग्रेस का इतिहास इस मामले में काफ़ी कुख्यात रहा है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. दरअसल मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के कंधे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हाथ रखे जाने पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कथन उनकी राजनीतिक कुंठा का परिचायक है. एक मुख्यमंत्री के कंधे पर प्रधानमंत्री का हाथ लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता के शक्ति-केंद्रों के मध्य परस्पर सम्मान और अगाध विश्वास का द्योतक है, यह बात कांग्रेस के लोगों के दिमाग़ में नहीं बैठती और इसलिए मुख्यमंत्री बघेल इसे संतों का अपमान बता रहे हैं! वस्तुत: राजनीतिक सत्ता के दो शक्ति केंद्रों में परस्पर सम्मान और विश्वास का अभिभूत कर देने वाला भाव कांग्रेस के डीएनए में है ही नहीं. जिस कांग्रेस में मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक हैसियत एक ख़ानदान के ज़रख़रीद ग़ुलाम की बनाकर रखी जाती हो, वहाँ कोई भी क्षत्रप मुख्यमंत्री बघेल जैसी कुंठित मानसिकता का प्रदर्शन करने के लिए ही विवश होता है. जिन मुख्यमंत्री बघेल को अपनी कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष से मिलने का समय नहीं मिलता, जिन मुख्यमंत्री बघेल को कांग्रेस अध्यक्ष के बंगले में वाहन समेत जाने नहीं दिया जाता और जिन मुख्यमंत्री बघेल को अपना वाहन कांग्रेस अध्यक्ष के बंगले के बाहर पार्क करके पैदल कांग्रेस अध्यक्ष तक मिलने के लिए जाना पड़ता है, आज वही मुख्यमंत्री बघेल मुख्यमंत्री के सम्मान, उत्तरप्रदेश के सम्मान और संत-सम्मान पर ज्ञान बघार रहे हैं! अल्पज्ञानियों-मंदबुद्धियों के सामने झुक-झुककर अपनी रीढ़ को 90 अंश के कोण की दी गई शक्ल जिनकी कुल जमा राजनीतिक हैसियत रह गई है, ऐसे लोगों का बड़बोलापन हास्यास्पद ही है. 

आज मुख्यमंत्री बघेल को संतों का अपमान इतना व्यथित कर रहा है, पर उत्तरप्रदेश में जाकर वह ख़ुद मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के लिए जिस निम्नस्तरीय भाषा का इस्तेमाल करके मुख्यमंत्री पद की गरिमा के साथ खिलवाड़ कर चुके हैं और अभी भी करते रहते हैं, क्या मुख्यमंत्री बघेल की यह भाषा संतों का सम्मान है? संघीय व्यवस्था के विपरीत जाकर अन्य प्रदेश में वहां की प्रदेश सरकार से चर्चा किए बिना अपने प्रदेश के ख़जाने का पैसा वोटों की फसल काटने के लिए लुटाने का कारनामा कर चुके मुख्यमंत्री बघेल को तब संतों का अपमान क्यों नहीं व्यथित करता है, जब एक ख़ानदान के प्रति स्वामीभक्ति की पराकाष्ठा करते हुए कांग्रेस के केंद्रीय से लेकर प्रादेशिक नेता तक सब मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को उनके पूर्व आश्रम के नाम ‘अजय सिंह बिष्ट’ से संबोधित करके राजनीतिक बेशर्मी की सारी हदें लांध जाते हैं. किसी संत-संन्यासी को उनके पूर्व आश्रम के नाम से संबोधित करना (यहां तक कि उनसे पूर्व आश्रम के बारे में चर्चा करना या पूर्व आश्रम का स्मरण तक कराना) तो संतों का न केवल अपमान है, अपितु संत-परम्परा के प्रति अक्षम्य अपराध भी है. तब मुख्यमंत्री बघेल का यह ‘आत्मज्ञान’ एक ख़ानदान के स्वामीभक्ति के बोझ तले क्यों दबा पड़ा रहता है? हिन्दुओं के आराध्य देवी-देवताओं, श्री राम और साधु-संतों को लेकर मुख्यमंत्री बघेल अपने पिता द्वारा घूम-घूमकर किए जाने वाले विष-वमन के वक़्त अपना मुँह क्यों सिल लेते हैं? क्या यह इस देश के कोटि-कोटि हिन्दुओं और संत-परम्परा के अपमान का अक्षम्य अपराध नहीं है? पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के शासनकाल में गौ-हत्या के ख़िलाफ़ संसद के समक्ष एकत्रित प्रदर्शनकारी साधु-संतों पर गोलियाँ बरसाई गई थीं, क्या मुख्यमंत्री बघेल इसे संतों का सम्मान मानते हैं? शंकराचार्यों के सम्मान की दुहाई देते समय मुख्यमंत्री बघेल को यह पीड़ा क्यों नहीं साल रही थी कि यूपीए के शासनकाल में एक शंकराचार्य को आधी रात को घसीटकर उनके मठ से निकाल ज़ेल में डाल दिया गया था? उन तमाम साधु-संतों को तरह-तरह की कहानियाँ गढ़कर ज़ेल में ठूँसा गया जो ईसाइयों के धर्मांतरण के एजेंडे को ध्वस्त करने में लगे थे. महाराष्ट्र, जहाँ कांग्रेस समर्थित प्रदेश सरकार सत्ता में है, के पालघर में बेदम पीट-पीटकर साधुओं को मार डालना संतों का कौन-सा सम्मान था? और, बताने की क़तई आवश्यकता नहीं कि साधु-संतों के साथ इस अमानवीय आचरण की पटकथा कहाँ और किसके इशारे पर लिखी जा रही थी और आज भी लिखी जा रही है? अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण में रोड़े अटकाती कांग्रेस राम के अस्तित्व को ही नकारकर संतों के सम्मान का कौन-सा राजनीतिक चरित्र प्रदर्शित कर रही थी? पहली बार देश में संत-परम्परा का सम्मान करने वाली राजनीतिक सत्ता के शक्ति केंद्रों ने छद्म धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के बेज़ा तुष्टिकरण के एजेंडे को ध्वस्त कर देश को आत्माभिमान की अनुभूति कराई है, और मुख्यमंत्री बघेल समेत तमाम कांग्रेस नेता अब अपनी राजनीतिक कुंठा जताकर ‘कालनेमि-परम्परा’ की नियति भोगने के लिए विवश हैं. 
 

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