डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह
सम्राट अशोक के माध्यम से दुनिया भर में भारत की नैतिक विजय का जो गौरव हासिल हुआ है, उसकी दीप्ति बाईस सौ साल के बाद भी धुँधली नहीं हुई है. दुखद है कि कुछेक लोग उस दीप्ति को धुँधली करने पर आमादा हैं. प्राचीन भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य अशोक - राज में स्थापित हुआ. एक भाषा और लिपि से जबरदस्त राष्ट्रीय एकता कायम हुई.
इसी काल में भारत की नैतिक विजय पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण - पूर्व यूरोप से लेकर दक्षिण के राज्यों तक पहुँच गई थी. विश्व - इतिहास में अशोक - राज इसकी मिसाल है कि राज्य भी अहिंसक हो सकता है.
बुद्ध और अशोक भारत की शांति - संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक हैं. इसीलिए स्वतंत्र भारत ने सारनाथ के सिंह- शीर्ष को अपने राजचिह्न के रूप में ग्रहण कर मानवता के इस महान नायक के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है.
99 भाइयों की हत्या की सचाई:
दीपवंस, महावंस और अशोकावदान जैसे परवर्ती ग्रंथों में अशोक से संबंधित अनेक गप्प हैं. हमें इनसे सजग रहने की जरूरत है. मिसाल के तौर पर, एक साहित्यिक गप्प है कि अशोक ने 99 भाइयों की हत्या की. हमें इस गप्प का अन्य स्रोतों से सत्यापन करना चाहिए. फिर कोई निष्कर्ष देना चाहिए.
आइए, इस गप्प का पुरातात्विक सत्यापन करते हैं. सम्राट अशोक ने पाँचवें शिलालेख में अपने और अपने भाइयों के रनिवासों का तथा अपनी बहनों के निवास कक्षों का उल्लेख किया है जो पाटलिपुत्र में भी थे और बाहर के नगरों में भी थे. उनके कुछ भाई विभिन्न प्रांतों के वायसराय थे. इसलिए यह गप्प ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अमान्य है.
चण्ड अशोक की कपोलकल्पित अवधारणा:
जैसा कि हम देख आए कि सम्राट अशोक द्वारा 99 भाइयों की हत्या की बात झूठी है. ऐसी ही झूठी बातों के आधार पर सम्राट अशोक की छवि धूमिल करने के लिए कुछेक परवर्ती ग्रंथों में "चण्ड अशोक " की कपोलकल्पित अवधारणा खड़ी की गई है. इनमें सबसे आगे संस्कृत ग्रंथ अशोकावदान है. पुरातत्त्व में "चण्ड अशोक " का जिक्र कहीं नहीं मिलता है. यहाँ तक कि भारत के बौद्धेतर राजाओं के अभिलेखों में भी इसका जिक्र नहीं है. रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख में अशोक का उल्लेख है. लेकिन वे वहाँ जन - कल्याणकारी राजा के रूप में उपस्थित हैं. " धम्म अशोक " का उल्लेख पुरातत्त्व में मिलता है.
सारनाथ के संग्रहालय में कुमार देवी का अभिलेख है. कुमार देवी गहड़वाल नरेश गोविंदचंद्र की पत्नी और काशीराज जयचंद्र की दादी थीं. 12 वीं सदी के इस अभिलेख में सम्राट अशोक को "धर्माशोक" कहा गया है. इस प्रकार हम देखते है कि पुरातत्व में कल्याणकारी अशोक और धम्म अशोक के पुख्ता सबूत मिलते हैं. किंतु पुरातात्विक सबूत चण्ड अशोक की कपोलकल्पित अवधारणा के खिलाफ हैं.
अशोक की कुरूपता के विरुद्ध सवाल:
अशोकावदान मूलत: दिव्यावदान नामक मिथक कथाओं के एक वृहद् संग्रह का अंग है. इसमें अशोक से जुड़ीं अनेक कपोलकल्पित कथाएँ हैं. अशोक के पूर्व जन्म की कथा भी इसमें है. इसी ग्रंथ में अशोक की कुरूपता की आड़ में अंतःपुर की स्त्रियों को जलाए जाने का जिक्र है, जबकि स्त्रियों के हित के लिए उन्होंने बकायदा विभाग स्थापित किया था.
जैसा कि हम जानते हैं कि अशोक को उनके अभिलेखों में "पियदस्सी " कहा गया है. पियदस्सी का मतलब है, जो देखने में सुंदर हो. ऐसे भी सम्राट अशोक की प्राचीन नक्काशी तथा मूर्तियाँ मिली हैं. कहीं भी कुरूप होने का चित्रण नहीं है. इसके विपरीत गुइमेत म्यूजियम (पेरिस) में अशोक की रखी नक्काशी अपनी कद - काठी में प्रभावशाली और मनोहारी है.
अशोक का राजपद के प्रतिमान:
अशोक का राजपद के प्रतिमान बड़े ऊँचे थे. वे हर समय और हर जगह जनता की आवाज सुनने के लिए तैयार थे. अशोक ने संपूर्ण प्रजा को अपनी संतान को बताया है. कारण कि अशोक प्रजावत्सल सम्राट थे. आज जो अत्यंत विकसित देश दुनिया के अल्प-विकसित और अविकसित देशों की सार्वजनिक कल्याण के लिए मदद करते हैं, वह अशोक की देन है. भारत ने पहले - पहल अशोक - राज में ही अंतरराष्ट्रीय जगत में सार्वजनिक जन - कल्याण के कार्यक्रम चलाए. यूनान के जिस सिकंदर ने हमारे पंजाब में खून की होली खेली थी, उसी यूनान में सम्राट अशोक ने बस दो ही पीढ़ी बाद दवाइयाँ बँटवाई थी.
अशोक ने न सिर्फ मानवाधिकार की बल्कि जीव - संरक्षण तक की बात चलाई थी. यहीं से जियो और जीने दो का सिद्धांत तैयार हुआ है. अशोक - राज में दंड - विधान समान था. व्यवहार की समानता थी और सभी पर बगैर भेदभाव के एक ही कानून लागू था. खुद सम्राट अशोक ने जन कल्याण के लिए बाग लगवाए, कुएँ खुदवाए और विश्राम गृह बनवाए. पशुओं के लिए चिकित्सालय बनवाने वाले वे विश्व के प्रथम सम्राट हैं.
अशोक का अपमान राष्ट्र के लिए घातक:
भारत में सम्राट अशोक को लेकर अनेक नाटक लिखे गए हैं. चंद्रराज भंडारी ने "सम्राट अशोक" (1923) नामक नाटक लिखा तो लक्ष्मीनारायण मिश्र ने "अशोक" (1926) नाम से नाटक की रचना की. दशरथ ओझा का विख्यात नाटक "प्रियदर्शी सम्राट अशोक " 1935 ई० में प्रकाशित हुआ था. जाहिर है कि गुलाम भारत के नाटककारों ने भी राष्ट्रनायक अशोक पर इतनी हल्की टिप्पणी नहीं की, जितनी हल्की टिप्पणी दया प्रकाश सिन्हा ने की है.
यदि मानव - कल्याण के लिए धम्म - कार्य पागलपन है तो फिर मानवता क्या है? दया प्रकाश सिन्हा हर हाल में अशोक की छवि धूमिल करने के लिए जिम्मेदार हैं. कारण कि वे अप्रामाणिक तथ्यों को अन्य स्रोतों से बगैर सत्यापित किए कूड़ा की भाँति बटोर लाए हैं और अशोक महान की छवि खराब कर रहे हैं.
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