वे कमाल के लिखे और कहे से नफ़रत करने लगे

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वे कमाल के लिखे और कहे से नफ़रत करने लगे

अनिल शुक्ल एनडीटीवी वाले कमाल ख़ान को मैं ख़ूब जानता था. उनकी इस तरह की अनकही जुदाई का इसीलिये मुझे बेहद रंज है. सन 2005 मैं, जब से मेरे गृह प्रदेश यूपी में मेरी वापसी हुई, तब से मेरी उनसे यारी थी. वह मुझसे उम्र में सिर्फ़ 2 बरस छोटे थे इसलिए 'एज डिफ़रेंस' जैसा कोई इश्यू हमारी यारी के बीच कभी नहीं उभरा. वह 'लुक' में मेरी तरह बुड्ढे-ठुड्डे नहीं, ख़ूबसूरत जवान थे इसलिए मेरे और उनके जवान विचारों में ख़ूब मेल था. अपनी जवानी से लेकर आज तक पत्रकारिता में अच्छी 'कॉपी' लिखने का मुझे शगल रहा और मैं हमेशा इस बात की कोशिश में जुटा रहा. अपने टीवी पत्रकार बेटे की यह मूर्खतापूर्ण बात मुझे कभी हज़म नहीं हुई 'कि टीवी न्यूज़ रिपोर्ट में अच्छी भाषा की कोई दरकार नहीं’, ‘कि यह सिर्फ़ विज़ुअल का माध्यम है.......' तब और तब मैं जवाब में बड़े ठसक़े के साथ कमाल ख़ान की अनगिनत रिपोर्टों का हवाला देकर टीवी जगत में व्याप्त इस बेतुकी उलटवासी को ख़ारिज कर डालता. लखनऊ को कमाल ख़ान पर बड़ा रश्क़ था. अपने इस 'छोकरे' को शहर ने पहले जवान फिर सयाना, अधेड़ और आगे चलकर सीनियर सिटिज़न में तब्दील होते देखा था. उनका शहर उनकी बड़ी इज़्ज़त करता था और वह अपने शहर की बड़ी इज़्ज़त किया करते थे. अपने लखनऊ में कमाल ख़ान की वैसी ही इज़्ज़त थी, पत्रकारिता के क्षेत्र में किसी भी क़ाबिल और ईमानदार पत्रकार की जैसी अपने शहर में होनी चाहिए. यह दीगर बात है कि हाल के सालों में इसी शहर ने अपने चहेते कमाल को बारम्बार बेइज़्ज़त होते देखा था. वह पेशे की ज़रुरत, अपने मन और अपनी ख़ुद की सत्ता के माफ़िक लिखते-बोलते थे. सत्ता और सत्ताधीश उनके लिखे को नापसंद करते. वे कमाल के लिखे और कहे से नफ़रत करने लगे. वे उन्हें बेइज़्ज़त करने लग गए. ऐसा तो पिछली सरकारो में भी बहुत बार हुआ कि जो कुछ उन्होंने लिखा या कहा, उसे नापसंद किया गया. तब लेकिन उनसे नफरत नही की गई. उन्हे बेइज़्ज़त करने की हिमाक़त तो शायद ही कोई कर सका हो. देर रात की गुफ़्तगू में वह इस बात की मुझसे चर्चा करते. तकलीफ में डूबती-उतराती आवाज़ में हर बार मैं एक जांबाज़ पत्रकार को किरिच-किरिच कर टूटते देखता. वह बताते कि उनके प्रबंधन पर उनके ट्रांसफर का दबाव डाला जा रहा है. फिर ठहाका लगाकर बोलते कि "प्रबंधन भी ससुरा कहाँ भेज कर मुझसे पिंड छुड़ाएगा? हर जगह तो वही हैं जो यूपी में हैं!" तमाम रातों की उनकी कॉल उनके बेइज़्ज़त होने के दर्द में डूबी होतीं. अक्सर मुझे डर लगता कि कमाल के अगले दिनों की रिपोर्ट में बेइज़्ज़त होने का यह दर्द ज़रूर कहीं न कहीं झलकेगा और यह उनकी पेशेवरी को कमज़ोर बनाएगा. ऐसा मगर कभी होता नहीं था. अगले सारे दिनों में भी वह एक बहादुर चैनल के आसमान में इज़्ज़तदार और बहादुर पत्रकार की हैसियत वाला बादल बनकर उमड़ते-घुमड़ते दिखते. उनके घुमड़ने पर जब तब उनकी पेशेवर बिजली तब भी वैसे ही कौंध जाया करती थी, जैसी वह पहले कौंधा करती थी. कमाल ख़ान राज्य के पत्रकारों की स्वाभाविक वरिष्ठता की सूची में शामिल थे. राज्य सरकार की उनकी मान्यया (एक्रेडिटेशन) में न जाने कितनी बार 'ऊँगल' करने की कोशिश की गई. सिलसिलेबार तरीक़े से मुख्यमंत्री या राज्य सरकार की उन प्रेस कॉनफ़रेन्स में उन्हें नहीं घुसने दिया जाता, मान्यता प्राप्त पत्रकार होने के नाते जहाँ दाख़िल होने के लिए वह अधिकृत थे. उन्होंने इसके लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की सोची लेकिन तब मैंने और उनके दूसरे दोस्तों ने उन्हें समझाया कि लोकतंत्र की यह लड़ाई सिर्फ़ काले कोट वालों के दम पर नहीं लड़ी जा सकती. इसका असल न्यायाधीश 'टाइम फ़ेक्टर' है, वही इसका फ़ैसला करेगा. वह मान गए. दूसरे असंख्य पत्रकारों की तरह कमाल ख़ान भी अपनी पेशवर ज़िंदगी में असंख्य बार बेहिचक रिपोर्ट करने अयोध्या गए. वह बताया करते थे कि बचपन में ही उनके अपने घर में 'राम दरबार' का एक शानदार कैलेंडर टंगा था. वह तभी से राम की मनमोहक तस्वीर के ज़बरदस्त फ़ैन हो गए थे. वह मुझसे कहते कि हमने राम की कभी पूजा-अर्चना नहीं की लेकिन राम हमारी संस्कृति के अंग थे. "बचपन से लेकर सयाना होने तक राम को मैंने इसी रूप में जाना और पहचाना है.“ अपने पूरे ख़ानदान के साथ लखनऊ की उस रामलीला को देखने वह भी नियमित जाया करते थे जो उनके इलाक़े में होती थी. उन्हें समूची रामकथा कंठस्थ थी. हाल के सालों में लेकिन उस अयोध्या रिपोर्टिंग पर जाना उन्हें किसी युद्ध पर जाने के सामान लगने लगा जिसके विरुद्ध बक़ौल कमाल, कभी युद्ध हुआ ही नहीं! ”इसी अयोध्या को लेकिन आज हर जगह युद्ध में झोंक दिए जाने की कोशिशों से मैं हैरान भी हूं और आहत भी." वह मुझसे कहते. उन्होंने न सिर्फ़ तुलसीकृत 'रामचरितमानस' का गहन अध्ययन किया बल्कि लखनऊ यूनिवर्सिटी के हिंदी साहित्य के कई प्राध्यापकों से लेकर बीएचयू के अपने जानकार शिक्षाविदों की मदद से 'रामचरितमानस' की जीवन पद्धति को समझने की कामयाब कोशिश भी कर डाली. तुलसी के पुरुषोत्तम उन्हें सदा लुभाते थे, 'मानस' के अध्ययन के बाद वह और भी आकर्षित करने लगे. कमाल ख़ान राम के शील और सौम्य रूप पर हमेशा से फ़िदा थे. प्रत्यंचा चढ़ाये आक्रामक और हमले को आतुर क्रोधित राम का 'विश्व हिन्दू परिषद' का जब कैलेंडर प्रकाशित हुआ तो कमाल बड़ा आहत हुए. उन्होंने फ़ोन करके मुझसे पूछा कि राम अपनी समूची ज़िंदगी में सिर्फ़ एक बार क्रोध में तब दिखते हैं जब पार करके लंका पहुँचने के उनके अनुनय को समुद्र स्वीकार नहीं करता? "ऐसा क्यों है भाई कि वीएचपी को राम के जीवन का सिर्फ यही रूप ही लोक लुभावन लगा? उनके पुरुषोत्तम जीवन की शेष लाखों-लाख पुण्य छवियों को वह भला भूल क्यों गयी?” मेरे पास कोई जवाब नहीं था. यह कोई सातेक साल पुरानी बात होगी जब अयोध्या रिपोर्ट करने में पहली बार उनका जी डांवांडोल हुआ. हर बार अयोध्या पहुँच कर गेरुआ वस्त्रधारी लंपट वॉलंटियरों के समक्ष उन्हें जैसे अपने ऊपर ज़बरदस्ती लादे गए ‘मुसलमान पत्रकार होने’ के अपराध बोध से बेमतलब दो-चार होना पड़ता. समय धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और आगे चलकर उन्हें अयोध्या-फैज़ाबाद के स्थानीय प्रशासन के समक्ष भी यही सफ़ाई देनी पड़ जाती. वह बार-बार टूटते. टूटने के इस क्रम में वह मुझे कॉल करते "मेरा जन्म बेशक़ मुस्लिम परिवार में हुआ हो भाई, लेकिन मैं ख़ालिस हिंदुस्तानी पत्रकार हूँ. फिर मेरे साथ यह ग़ैर बराबरी क्यों?" "रामराज बैठे त्रैलोका, हर्षित भये गए सब शोका.“ “बयरु न कर काउ सन कोई, रामराज विषमता खोई." कमाल अक्सर इस तरह की 'रामचरितमानस की सैकड़ों चौपाइयां गुनगुनाया करते थे. जैसे जैसे कमाल ख़ान अयोध्या का मुसलमान पत्रकार कह कर अपमानित किये जाते रहे, वैसे वैसे तुलसी बाबा और 'मानस' की सरस्वती उनकी जिभ्या पर विराजमान होती चली गयीं. वह अक्सर मुझ जैसे अपने उन हिंदू दोस्तों को तुलसी बाबा की चौपाइयां सुना-सुना कर उनका अर्थ पूछा करते जिनका 'मानस' ज्ञान अल्पतम था. वह अपनी रिपोर्टिंग के दौरान कभी-कभी 'संघ' परिवार से जुड़े विभिन्न शीर्ष नेताओं से 'रामचरितमानस' से जुड़े संदर्भों की बाबत कुछ मुश्किल राजनीतिक सवाल भी पूछ लिया करते थे जिसके बारे में ये मनीषी मेरी ही तरह अल्पज्ञानी थे. कई बार तो वे ज्ञान शून्य भी साबित होते. कमाल उन्हें लेकिन बेइज़्ज़त कभी नहीं करते और न उनका सौम्य पत्रकार, 'संघी' मनीषियों की इस ज्ञान शून्यता का उल्लेख अपनी रिपोर्टों में कभी करता. सदियों से तमाम मजहबों से प्रेम करने वाली अयोध्या का ज़िक्र वह हमेशा किया करते लेकिन कभी गाहे-बगाहे मुझसे पूछ बैठते कि ‘’ऐसा क्या हुआ कि इस पवित्र शहर का ज़िक्र आते ही हाथ में हथोड़े और हासिये लिए गुम्मदों पर चढ़ कर जयश्री राम कहते हिंसक कारसेवकों का हुजूम ही कल्पना के दृश्य पटल पर उभरता है?” बेशक़ ऐसा एक ही दिन हुआ था, मानकर तब वह जैसे इसे भूल जाने की कोशिश करते हुए प्रेम सुधा बरसाने वाली सरयू और उसकी अयोध्या को अपनी टीवी रिपोर्टों में तलाशने की कोशिश में जुट जाते. तलाशते-तलाशते लेकिन वह उदास हो जाया करते थे. उनकी यह उदासी कभी-कभी उनकी रिपोर्टों में झलक जाती. वस्तुतः उनकी यह उदासी किसी मुसलमान पत्रकार की उदासी नहीं, हिंदुस्तानी पत्रकारिता की वह उदासी है, दिसंबर 1992 के बाद से जो कभी मुस्करा न सकी. बहरहाल कमाल के इस तरह चले जाने पर मैं हैरान हूँ. मैं ही नहीं, पत्रकार के रूप में पसंद करने वाले लाखों-करोड़ों टीवी दर्शक भी हैरान हैं. मैं यूपी को प्यार करता हूं. मैं प्यार करने वाली यूपी की सैकड़ों साल पुरानी शानदार तहज़ीब को भी प्यार करता हूं. मैं कमाल ख़ान को इसीलिये प्यार करता था क्योंकि यूपी की इस शानदार तहज़ीब से उन्हें भी प्यार था. प्यार करने वाली यूपी की इस शानदार तहज़ीब की जड़ खोद डालने की कोशिशें हाल के सालों में तेज की गयीं हैं. मैं यूपी की प्यार करने वाली इस शानदार तहज़ीब की जड़ खोदने वालों और उनकी कोशिशों से नफ़रत करता हूँ. कमाल ख़ान भी ऐसी कोशिशों और उन्हें अंजाम देने वालों से नफ़रत किया करते थे. वह इन कोशिशों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने वाले हम जैसे लाखों-लाख लोगों की फौज की सबसे अगली क़तार में थे, मुझे इसीलिये कमाल ख़ान से मोहब्बत थी. मुझे यूपी की हर अच्छी चीज़ पर गर्व है, मुझे इसीलिये कमाल ख़ान पर भी गर्व था. स्वयं को गौरवान्वित करने वाली किसी भी चीज़ की जुदाई किसे नहीं खलती? कमाल का जाना सिर्फ़ उनके घर और ख़ानदान को नहीं खलेगा और न इसका ख़ामियाज़ा महज़ 'एनडीटीवी' झेलेगा. ‘खुली’नज़रों और बिना‘चश्में’ के टीवी न्यूज़ देखने के शौक़ीन यूपी और देश के लाखों-करोड़ों दर्शक भी इस ख़ामियाज़े के भागीदार होंगे. यह अकेला मेरा या आपका नहीं, ज़हर पीने को अभिशप्त भारतीय समाज को कांपते हाथों से शहद की बूँदें चटाने की कोशिशें करती हिंदुस्तानी पत्रकारिता का पर्सनल 'लॉस' भी है. कमाल ख़ान का यूं झटके से जुदा हो जाना वेंटिलेटर की टेबल पर बेहोश पड़ी यूपी की कोविडीय पत्रकारिता की ऑक्सीजन सप्लाई कट जाने जैसा तो है ही, उनकी जुदाई डायलिसिस की मेज़ पर ऊँघते किडनी फ़ेल भारतीय लोकतंत्र के हीमोग्लोबिन लेबल के अचानक नीचे गिर जाने की मानिंद भी है. सच्चाई यह है कि टीवी परदे से इतर मैंने कमाल को न कभी देखा, न सुना. कमाल लेकिन मेरी नज़रों के सामने हमेशा रूबरू रहे. ये उनकी टीवी स्टोरी की 'पीटूसी' और 'वॉइस ओवर' की लाइनें थीं जो सालों साल टेलीफोन कॉल बनकर मुझ तक पहुंचा करती थीं. कई दफ़ा उनके 'वॉइस ओवर' या 'पीटूसी' में आए बिना ही इधर-उधर से तैरती हुई ये लाइनें ग़फ़लत की हालत में मुझ तक पहुंच जाया करती थीं. उनकी इन्हीं लाइनों के दम पर मैंने कमाल से दोस्ती गढ़ी. हमारे तसव्वर के रिश्तों की बुनियाद में यही लाइनें थी जिन्हें मैंने हर दिन ख़ूब-ख़ूब सुना, बाँचा और यारी के अपने रिश्तों को मज़बूत किया. मेरे इस दावे के पीछे, कि मैं उन्हें उनसे ज़्यादा जानता हूँ जो दरअसल कमाल ख़ान को जानते थे, ये लाइनें नहीं तो भला और क्या है? अपने तमाम पेशेवर हमसफरों की तरह कमाल ख़ान भी ताउम्र ख़ुद की ज़िंदगी में हर दिन उठने वाले महाभारत में ख़ुद के दम पर तलवार लेकर जूझते रहे. वह हमेशा उन पांडवों के पक्ष में लड़ते जिनकी कमांड समाज और जनता के हाथ में होती थी. अफ़सोस कि वह एक ऐसी महाभारत का ख़ात्मा देखने से ठीक पहले चले गए जिसमें कौरवों का अंत सुनिश्चित है.

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