नेता जी सुभाषचंद्र बोस! रास्ते अलग हुए, मंजिल और मन नहीं

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नेता जी सुभाषचंद्र बोस! रास्ते अलग हुए, मंजिल और मन नहीं

कुमार कलानंद मणि

कल नेता जी का दिन था . वे सब नेता जी के बहुयामी व्यक्तित्व के गान में कल दिन भर मग्न रहे जिनके पुरखों के साथ 1938-39 में सुभाष बाबू की नहीं बनी और वे भी जिनके  विचार तथा इरादों के विरूद्ध सुभाष बाबू आजीवन बोलते, लिखते, जीते रहे . मेरे करीबन 50 साल के अतिसक्रिय समाज जीवन में मैंने दो तीन दृश्य हर दशक, हर समय में देखें हैं . जयप्रकाश से लेकर अण्णा हजारे तक के भारतीय युग को अत्यंत करीब से देखा है .‌पहली बात तो यह कि इंसानी दिमाग हवा पर तैरने में सुकून महसूस करता है जहां उसे सही जानकारी, सही सोच, सही समूह के लिए मिहनत न करनी पड़े लेकिन वह सब उसे बहुत आसानी से मिल जाए. वह खुद परिवर्तन का वाहन नहीं बनना चाहता है. ऐसे में किसी आदर्शमय समाज रचना का काम हमेशा जोखिम और चुनौतीपूर्ण रहा है .

दूसरा आंदोलन या समाजकार्य में ऐसे लोग जल्द शीर्ष पर पहुंचने में कामयाब हो जाते हैं जिनका परिवार साधन संपन्न होता है, या जिसकी जुबान या लेखनी प्रभावी, आकर्षक होती है या जो बेहद ही बेशर्म, बेहाया, बद्चरित्र होता है . सद्चरित्र, कठोर मिहनत, आदर्श जीने वाले अक्सर इस्तेमाल कर लिए जाते हैं और हाशिए पर ढकेल दिए जाते हैं. इसी कारण महान् इरादों से शुरू हुआ काम एक मुकाम पर हवा में लुप्त हो जाता है . 

महात्मा गांधी के युग में कांग्रेस के अंदर जिन तीन चार शख्सियत को  सबसे जल्दी तरक्की मिली उसमें सुभाष बाबू का नाम सबसे शीर्ष पर रहेगा. लोग उनके त्याग की बखान करते हैं . एक ICS का पदत्याग करना तो उच्च त्याग की श्रेणी में आता है . लेकिन ऐसा करने वाले सुभाष बाबू अकेले नहीं थे . उस युग की दास्तां ऐसे त्याग की दास्तां है . त्याग तो उन प्रतिभा संपन्न ने भी की, जिसका परिवार गरीब था, वह अमीर बन सकता था, लेकिन उसने देश और समाज की सेवा को ही अपना धर्म बनाया . लेकिन ऐसे त्याग की कभी चर्चा तक नहीं होती .  आर्थिक व सामाजिक विपन्नता के पार्श्वभूमी से आज सामाजिक कर्मी अक्सर यह दर्द बांटते हैं कि उनके त्याग का स्मरण क्यों नहीं होता ?


बहुत गति से अवसर मिलना या पा लेना, जिसमें संघर्ष का माद्दा कम हो वह इगो तथा आसपास स्पर्धा को भी बढ़ाता है . क्या ऐसा कुछ सुभाष बाबू के साथ भी हुआ ?? उनके साथ एक साल में ही तस्वीर बदल गयी थी . ऐसा मैंने अपने समाज जीवन में क ई बार अनुभव किया है कि जो कम संघर्ष के शीर्ष अवसर पाते हैं वे अन्य की अवहेलना तो करते ही हैं और खुद को सब मर्ज की दवा के रूप में पेश करते हैं . शीर्ष पर आने पर संयम, सहमति, सहयोग, संवाद और साथपना भूल वे निर्देशक या टास्क मास्टर की भूमिका में आ जाते हैं . सुभाष बाबू और जवाहरलाल जी चाहते थे कि कांग्रेस "संपूर्ण आजादी से कुछ भी कम नहीं" की मांग अब रख दे और उस दिशा में जंग-ए-एलान भी हो जाए . 1938 का मद्रास अधिवेशन इस दिशा में पानीपत साबित हुआ . बाकी तमाम नेता इस मत के थे कि ब्रिटेन के "स्वायत्त व्यवस्था' के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाए और ब्रितानियों को दो साल की मोहलत दी जाए . जवाहरलाल जी ने अपने वरिष्ठों की बात तो मान ली लेकिन सुभाष बाबू ने नहीं . कहते हैं कि सुभाष बाबू के इसी अक्खड़ स्वभाव ने उन्हें सबसे अलग कर दिया था और वे खुद होकर दूसरी बार अध्यक्षता में उतर पड़े . यहां की जीत में कोई जीत नहीं थी . वे अध्यक्ष तो बन गए थे लेकिन वे सबों को साथ लेकर चल सकें इस इरादे से 'पंत प्रस्ताव' जो लगभग बहुमत से पारित हुआ था . इस प्रस्ताव में उन्हें कार्यकारिणी का गठन गांधी जी के मार्गदर्शन में करना था . तब सुभाष बाबू ने वरिष्ठों पर मूर्ख होने के तीर दागे थे. बस क्या था पूर्व के 18 में से 15 ने कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया . यह असहयोग भी था . सहयोग के लिए विश्वास और सम्मान के संबंध बनाने होते हैं . इस विद्या में सुभाष बाबू खड़े नहीं उतरे . वे दूसरों की बहुत तीक्ष्ण आलोचना करते थे, लेकिन खुद की आलोचना झेलने की शक्ति उनमें नहीं थी . ऐसा व्यक्तित्व अपने तमाम गुणों के बाबजूद नेतृत्व कर सकने योग्य जमीन नहीं बना पाता है . गांधी जी स्वयं पंत प्रस्ताव से सहमत नहीं थे . वे चाहते थे कि सुभाष अब अपनी पसंद की कार्यकारिणी बनाएं और कांग्रेस का नेतृत्व करें . लेकिन सुभाष बाबू का नेतृत्व तो उनके बड़े भाई शरत बाबू करते थे . कहते हैं कि शरतबाबू का झुकाव दक्षिणपंथ की ओर था . तब के दक्षिण पंथी का आदर्श बुद्ध और गांधी नहीं, हिटलर और मुसोलिनी थे . कांग्रेस के वरिष्ठों का सुभाष बाबू से नाराजगी का एक बड़ा वजह यह भी था . आगे गांधी जी ने ही उन्हें गलत पंत प्रस्ताव को सुधारने का मार्ग बताया कि अधिवेशन में सही प्रस्ताव पास हों . गांधी जी के कहने पर ही उन्होंने कलकत्ता में अधिवेशन आयोजित किया . गांधीजी चाहते थे कि कलकत्ता अधिवेशन से पूर्व सुभाष बाबू के साथ असहमति के मुद्दे समाप्त हो जाएं . इसलिए गांधीजी के पहल पर ही दोनों खड़गपुर में डेढ़ दिन तक मिले . दूसरे दिन खड़गपुर से निकलते समय सुभाष बाबू अपने राष्ट्रपिता से असहमति खत्म होने की गवाही देते हैं तथा कलकत्ता लौटने की अनुमति चाहते हैं ताकि आज पधारने वाले नेताओं का वे स्वागत कर सकें . जाते जाते वे अपने राष्ट्रपिता से यह भी कह जाते हैं कि कल सुबह हावड़ा स्टेशन पर उनके स्वागत के लिए वे हाजिर रहेंगे . 

कल सुबह राष्ट्रपिता हावड़ा तो पहुंचते हैं लेकिन वहां सुभाष बाबू नहीं होते हैं . स्टेट्समैन अखबार से खबर मिलती है कि Subhash Babu Quits.... यह धक्कादायक खबर देने की हिम्मत तब स्टेशन पर हाजिर कार्यकर्ता नहीं कर पाए थे .उसके बाद तो सब अलग इतिहास है . लेकिन उस इतिहास में यह भी है कि उनके रास्ते अलग हुए थे, मंजिल और मन नहीं .

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