कमलापति त्रिपाठी धर्म के साथ ही राजनीति के भी पंडित

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कमलापति त्रिपाठी धर्म के साथ ही राजनीति के भी पंडित

हरजिंदर

 उनका नाम देश के स्वतंत्रता संग्राम और तुरंत बाद की उन राजनीतिक हस्तियों में आता है जिन्होंने 20वीं सदी में जन्म लिया और उत्तर प्रदेश की सियासत पर लगभग सदी के अंत तक असर डाला.  आज हम भले ही भारतीय राजनीति के केंद्र में एक बार फिर वाराणसी को देख रहे हों लेकिन कमलापति ने यह काम दशकों पहले ही कर दिया था.  इलाहाबाद में जो प्रतिष्ठा नेहरू के निवास और बाद में कांग्रेस मुख्यालय बन गए आनंद भवन की थी वाराणसी में वही प्रतिष्ठा त्रिपाठी के निवास औरंगाबाद हाउस की रही है.  कभी पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति के सूत्र यही से चलते थे.  वे सत्ता में रहे हों या न रहे हों लेकिन कमलापति त्रिपाठी को प्रदेश की राजनीति में कभी नजरंदाज नहीं किया जा सकता था.

बताया जाता है कि 1920 के असहयोग आंदोलन में जब उनकी उम्र महज 15 साल के थे उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था और उन पर जेल में कोड़े भी बरसाए गए थे.  इस आंदोलन में वे अपने दोस्त व सहपाठी और प्रसिद्ध साहित्यकार बेचेन शर्मा उग्र के साथ कूदे थे.  दोनों में पांच रुपये की शर्त लगी थी कि पहले कौन गिरफ्तार होता है.  कमलापति त्रिपाठी यह शर्त हार गए थे.  इसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान भी वे जेल में रहे और भारत छोड़ो के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो उन्हें तीन साल तक जेल में रहना पड़ा.  आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के साथ ही उन्होंनें पेशे के रूप में पत्रकारिता को अपनाया.  पहले उन्होंने वाराणसी के अखबार आज में काम किया और फिर एक दूसरे अखबार संसार में.  जब वे जेल में थे तो उन्होंने वहीं से एक हस्तलिखित अखबार कारागार भी निकाला.  विधायक तो वे आजादी से पहले 1937 में ही बन चुके थे.

जब संविधान सभा का गठन हुआ तो संयुक्त प्रांत के प्रतिनिधि के तौर पर वे इसके सदस्य बने.  संविधान अंग्रेजी में तैयार हो रहा था और इसकी प्रस्तावना में देश का नाम इंडिया बताया गया था.  त्रिपाठी उन लोगों में थे जो प्रस्तावना में भारत शब्द भी शामिल करवाना चाहते थे.  इस मुद्दे पर संविधान सभा में दिया गया उनका भाषण भी काफी चर्चित रहा था.  इन्हीं कोशिशों का नतीजा था कि संविधान की प्रस्तावना में इंडिया दैट इज़ भारत की शब्दावली का इस्तेमाल किया गया.  संविधान सभा में अपनी सक्रियता के कारण त्रिपाठी ने जो नाम कमाया उसके चलते वे चाहते तो वे केंद्र की राजनीति में ही सक्रिय हो सकते थे, लेकिन आजादी के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश में ही रहना बेहतर समझा.  जल्द ही उन्होंने अपनी छवि एक ऐसे नेता की बनाई जो अपने इलाके और अपने कार्यकर्ताओं की अच्छी जानकारी और उन पर अच्छी पकड़ रखता था.  चुनाव के दौरान वे अपने इलाके का सघन दौरा करते थे.  1971 के आम चुनाव में एक बार उन्हें एक ऐसे गांव में जाना था जहां का रास्ता बहुत खराब था.  शाम भी होने वाली थी इसलिए कार्यकर्ताओं ने उन्हें न जाने की सलाह दी.  लेकिन त्रिपाठी को लगा कि उस गांव में न जाना ठीक नहीं होगा, कार्यक्रम पहले से तय है इसलिए लोग नाराज होंगे.  उस उबड़-खबड़ रास्ते पर उनकी पुरानी इंपाला कार खराब हो गई.  अब समस्या हुई कि आगे कैसे जाया जाए.  तभी वहां से एक ट्रैक्टर गुजरा.  ट्रैक्टर वाले को किसी तरह राजी किया गया और वह ट्रैक्टर उनकी कार को पीछे बांध कर उन्हें आगे ले गया.  

कमलापति त्रिपाठी संगठन और प्रदेश के नेताओं पर भी अच्छी पकड़ रखते थे इसलिए जल्द ही उन्होंने अपनी इतनी बड़ी हैसियत बना ली थी कि उनका नाम मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में गिना जाने लगा था.  लेकिन इस राजनीति में सीबी गुप्ता उनसे बीस थे जो उन्हें सत्ता से दूर रखने की हर मुमकिन कोशिश करते थे.  गुप्ता ने त्रिपाठी को ही दूर रखने के लिए सुचेता कृपलानी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा दिया था.  लेकिन जब तीसरी बार सीबी गुप्ता मुख्यमंत्री बने तब तक प्रदेश की राजनीति में कमलापति त्रिपाठी ने अपना इतना बड़ा कर लिया था कि उन्हें उप-मुख्यमंत्री बनाना गुप्ता की मजबूरी बन गया.  अब वे प्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक पद से महज एक कदम दूर थे.  हालांकि इसके लिए भी उन्हें सीबी गुप्ता की विदाई के बाद एक साल तक इंतजार करना पड़ा.

जब यह मौका आया तो बहुत सारे समीकरण कमलापति त्रिपाठी के पक्ष में आ खड़े हुए थे.  कांग्रेस विभाजित हो गई थी और उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी सीबी गुप्ता सिंडीकेट कांग्रेस का हिस्सा बन चुके थे जो अब केंद्र और प्रदेश दोनों ही जगह दरकिनार थी.  केंद्र की बागडोर उन इंदिरा गांधी के हाथ आ चुकी थी जो त्रिपाठी के लिए पंडित जी का सम्मानजनक संबोधन इस्तेमाल करती थीं.  जब वे मुख्यमंत्री बने तो सारी स्थितियां नियंत्रण में थीं लेकिन कुछ ही समय में बाकी देश के साथ ही उत्तर प्रदेश में हालात बिगड़ने लगे और जगह-जगह कईं तरह के आंदोलन शुरू हो गए.  इन आंदोलनों का सामाना उन्हें राजधानी लखनउ में ही नहीं अपने शहर वाराणसी में भी करना पड़ रहा था.

मुख्यमंत्री जब वाराणसी पहंुचते तो समाजवादी नेता राजनारायण अपने लोगों के साथ औरंगाबाद हाउस के बाहर धरने पर बैठ जाते.  दिन भर नारे लगते रहते.  ऐसी ही एक शाम कमलापति त्रिपाठी ने राजनारायण के पास कुछ पैसे भेजकर कहा कि सब लोगों को खाना खिला देना ताकि कल फिर ये सब नई उर्जा के साथ धरने के लिए आ सकें.  राजनारायण ने पैसे तो नहीं लिए लेकिन अगले दिन फिर अपने लोगों के साथ वहां धरने के मौजूद थे.  इन्हीं राजनारायण ने वाराणसी से ही कमलापति त्रिपाठी के खिलाफ चुनाव भी लड़ा था.  एक बार चुनाव प्रचार के दौरान दोनों आमने सामने हुए तो त्रिपाठी ने राजनारायण को गले लगा लिया.  राजनारायण ने उनकी जेब में हाथ डालकर उसमें रखे सारे पैसे निकाले और एक कार्यकर्ता के हवाले करते हुए कहा- आज के भोजन का इंतजाम तो हो गया.  राजनारायण यह संदेश देना चाहते थे कि एक साधन संपन्न कांग्रेसी के सामने वे कितने साधनहीन हैं.

ऐसे आंदोलनों को छोड़ दें तो मुख्यमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल ठीक-ठाक ही चल रहा था.  उनके बच्चों के कार्यकलापों को लेकर कुछ कानाफूसियां जरूर चलती रहती थीं.  इस तरह की अफवाहें भी चलती थीं कि राजनीति के उनके बहुत सारे फैसले उनकी बहू लेती हैं, इसलिए कुछ लोग उनकी सरकार को बहू सरकार भी कहते थे.  उसी दौरान एक ऐसी घटना हो गई कि जिसने त्रिपाठी के लिए बहुत बड़ी परेशानी खड़ी कर दी.  लखनउ विश्वविद्यालय में उस समय एक काफी उग्र छात्र आंदोलन चल रहा था.  इस आंदोलन केा काबू करने के लिए उत्तर प्रदेश के अर्धसैनिक बल प्रोवेंश्यिल आम्र्ड कांस्टेबलरी यानी पीएसी को तैनात किया गया था.  उन दिनों पीएसी के काम करने की खराब स्थितियों की खबरें भी यदा कदा सुनाई दे जाती थीं लेकिन सरकार के कानों पर अक्सर ऐसे मामलों में आसानी से जूं नहीं रेंगती.  यह भी कहा जाता है कि पीएसी में कुछ ऐसे अफसरों की तैनाती कर दी गई थी जो जवानों से नौकरों की तरह अपना काम कराते थे.  छात्रों का आंदोलन चल ही रहा था कि एक दिन पता पड़ा कि विश्वविद्यालय के राजिस्ट्रार आॅफिस में आग लगा दी गई है.  थोड़ी देर में खबर आई कि टैगोर लाईब्रेरी को भी आग के हवाले कर दिया गया है.  आंदोलनकारी छात्र ऐसा करेंगे ऐसी किसी को उम्मीद नहीं थी.  जल्द ही साफ हो गया कि यह काम छात्रों का नहीं है, हालात से तंग आकर पीएसी के जवानों ने बगावत कर दी है.  पीएसी के ज्यादातर जवानों के पास उस समय सिर्फ लाठियां ही होती थीं, इसके अलावा इस अर्धसैनिक बल का एक छोटा सा शस्त्रागार भी था, जिसे बगावत करने वाले जवानों ने लूट लिया था.  शाम होते-होते बरेली, मेरठ और आगरा से भी इसी तरह के विद्रोह की खबरें आने लगीं.  खतरा इतना बढ़ गया कि सेना को बुलाना पड़ा.  बागियों को नियंत्रित करने के लिए सेना को गोलियां चलानी पड़ी, गोलीबारी दूसरी तरफ से भी हो रही थी.  पीएसी के 35 जवानों की जान इस गोलीबारी में गई जबकि सेना के भी 13 लोग मारे गए.  लेकिन सेना किसी तरह से इस बगावत को नियंत्रित करने में कामयाब रही.  

यह ऐसी खबर थी जिसकी चर्चा पूरी दुनिया में हुई.  ऐसे में इंदिरा गांधी के पास त्रिपाठी सरकार को बर्खास्त करने के अलावा कोई और चारा नहीं था.  उत्तर प्रदेेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और उसके बाद जब वहां कांग्रेस की अगली सरकार बनीं तो हेमवती नंदन बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया.  लेकिन सिर्फ इतने से ही प्रदेश की राजनीति में त्रिपाठी का प्रभाव कम नहीं हुआ, फिर उनकी गिनती इंदिरा गांधी के सबसे बफादारों में भी होती थी, इसलिए उन्हें राजनीतिक वनवास पर भेजने का भी सवाल नहीं था.  जल्द ही वे राज्यसभा के रास्ते से केंद्र में पहंुच गए जहां उन्हें रेलमंत्री बनाया गया.  रेलमंत्री के रूप में उन्होंने वाराणसी के लिए काफी कुछ किया.  अपने शहर का रेल इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारा और काशी-विश्वनाथ एक्सप्रेस, गंगा कावेरी एक्सप्रेस और वाराणसी एक्सपे्रस जैसे ट्रेने चलाईं.  तब विरोधी यह आरोप लगाते थे कि आजकल देश की सारी ट्रेने वाराणसी होकर ही गुजरती हैं.  

कमलापति त्रिपाठी बहुत से मौकों पर इंदिरा गांधी के काफी काम भी आए.  एक बार इंदिरा गांधी मध्य प्रदेश के दतिया गईं.  वहां बंग्लामुखी शक्तिपीठ के अलावा धूमादेवी का मंदिर भी है.  शक्तिपीठ के बाद जब वे इस मंदिर पहंुची तो वहां के पुजारी ने प्रधानमंत्री को यह कह कर वहां पूजा नहीं करने दी कि वे हिंदू नहीं पारसी हैं इसलिए उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती.  इंदिरा ने त्रिपाठी को फोन किया.  त्रिपाठी वहां पहंुचे और अपना संस्कृत व शास्त्रों का सारा ज्ञान लेकर पंडितों पर पिल पड़े.  आखिर पंडितों ने इंदिरा को वहां पूजा करने की इजाजत दी.  अपनी पंडिताई हनक के चलते त्रिपाठी लोगों से यह उम्मीद रखते थे कि वे सबसे पहले उनके पैर छुएंगे.  शरद पवार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने पैर नहीं छुए तो त्रिपाठी ने उन्हें कोई भाव ही नहीं दिया था, जबकि पवार उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे.  

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त किया तो उस समय लगा था कि सुप्रीम कोर्ट से कोई फैसला आने तक किसी और को प्रधानमंत्री बनाना पड़ सकता है.  कुलदीप नैयर की किताब एमरजेंसी रीटोल्ड के अनुसार तब जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनना चाहते थे पर इंदिरा और उनके सहयोगियों को इसमें खतरा दिख रहा था.  पार्टी में कुछ लोगों ने उस समय स्वर्ण सिंह का नाम सुझाया, लेकिन इंदिरा ने कहा कि वे कमलापति त्रिपाठी को प्रधानमंत्री बनाना चाहेंगी.  हालांेिक इसकी नौबत नहीं आई और इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया.  

आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो त्रिपाठी राज्यसभा में विपक्ष के नेता बने.  बाद में जब इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं तो कमलापति त्रिपाठी फिर से रेलमंत्री के पद पर पहंुच गए.  हालांकि इस बार वे सिर्फ 11 महीने तक ही इस पर रहे जिसके बाद उन्हें पार्टी के उपाध्यक्ष का कार्यभार सौंप दिया गया.  इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारतीय राजनीति के हालात बहुत तेजी से बदलने लगे.  राजीव गांधी नई पीढ़ी के साथ एक नए तरह की पार्टी बनाना चाहते थे.  पुराने लोगों की एक एक करके विदाई शुरू हो गई.  जल्द ही कमलापति त्रिपाठी का भी नंबर आ गया.  उन्हें हटाकर उनकी जगह अर्जुन सिंह को पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया गया.  इस सबसे नाराज त्रिपाठी ने राजीव गांधी को चार पेज लंबी एक चिट्ठी लिखी जिसमें राजीव के नेतृत्व पर सवाल उठाए गए थे.  यह चिट्ठी मीडिया को भी लीक कर दी गई.  बाद में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में त्रिपाठी की मौजूदगी में इस चिट्ठी का मजाक बनाया गया और उनकी निंदा भी की गई.  उन्हें वहां माफी भी मांगनी पड़ी; गनीमत यही थी कि उन्हें कार्यसमिति से निकाला नहीं गया.  कभी उत्तर प्रदेश के महारथी रहे कमलापति त्रिपाठी अब एक ऐसे असहाय बुजुर्ग में बदल गए थे जिनसे पार्टी का कोई नेता मिलने भी नहीं आता था.  

बहुत सारी किताबें लिख चुके कमलापति त्रिपाठी ने इस मौके पर फिर से एक किताब लिखने की ठानी.  इस बार उन्होंने कांग्रेस पर किताब लिखी.  हालांकि उस समय तक वे खुद लिख पाने की स्थिति में नहीं थी और आंखों की रोशनी भी पहले की तरह साथ नहीं दे रही थी.  इसलिए शायद यह किताब उन्होंने बोलकर लिखवाई.  जब यह किताब सामने आई तो उसमें कईं तरह की ढेर सारी गलतियां थीं.  लेकिन राजनीतिक महत्व के चलते किताब की थोड़ी बहुत चर्चा भी हुई, और फिर वह उसी तरह भुला दी गई जिस तरह उसके लेखक को बिसरा दिया गया था. हिन्दुस्तान से साभार     

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