किस जार्ज की बात करते हो ?

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किस जार्ज की बात करते हो ?

चंचल 

29. जनवरी  2019 को वक्त  ने अपना एक हिस्सा पलट दिया , शोर हुआ - जार्ज नही  रहे .   वक्त हँस पड़ा , किस जार्ज की बात करते हो ? उसके अनगिनत हिस्से हैं और हर हिस्सा इतना अहम है कि वह  जार्ज को जाने ही नही देगा .   उसकी आदत थी , बनाने की और मिटाने की , बाज दफे दोनो एक साथ करता था , जो बना रहा है , उसे मिटा भी रहा है , बेख़ौफ़ , बे लौस .  क्यों क़ि वह  मुतमइन रहा , भूलना या याद रखना इंसानी फ़ितरत के खाँचे में नही है , इसका हिसाब तो वक्त रखता है और वक्त मरता  नही , चुप भी नही रहता चलता रहता है .  तवारीख पीछा करती है - कुछ हमे भी दे दो .  तारीख़ की यह ख्वाहिश पीढ़ियों तक , अपने  हिस्से में आए हुए “ कुछ “ को बाँटती चलती है .  

  3. जून 1930 को मंगलूर में रह रहे एक पुरातनपंथी ई ईसाई परिवार में  एक बच्चा पैदा हुआ जिसका नाम रखा गया जार्ज फ़र्नांडिस .  

     ज़ार्ज़ ? 

     “ नाम में क्या रखा है “ कहा होगा सेक्सपियर ने लेकिन यहाँ तो है दूसरा समाज है ,  नाम को लेकर अनगिनत मुहावरों का ढेर पड़ा है .   “नाम लखनदेइया , मुह कुकरि क “ .  जथा नामे तथा गुणे , .  यह ज़ार्ज़ अपना नाम पा रहा था इतिहास में खड़े एक क़द्दावर शख़्सियत ज़ार्ज़ पंचम के नाम के साथ क्यों क़ि 3 जून को ज़ार्ज़ पंचम भी पैदा हुआ  है .  तय हुआ इस ज़ार्ज़ को पादरी बनाया जाय .  एक चर्च में भेज दिया गया जहाँ पादरी ऊँची टेबुल पर बैठ कर और प्रशिक्षु ज़मीन पर बैठ कर खाना खाते थे . यह दूरी ज़ार्ज़ को  अखर गयी  .  यह ग़ैर बराबरी है .  ग़ैर बराबरी मिटाने का जज़्बा ज़ार्ज़ के खीसे में आ गया और ताउम्र बना रहा .  

     हमारी मुलाक़ात तो तब हुई जब ज़ार्ज़  मंगलूर से भाग कर बम्बई आ गये थे और सड़क के किनारे खुले  आसमान के नीचे करवट बेलते वो मशहूर “ डायलाग” याद कर चुके थे , बेरोज़गारी का पसंदीदा फ़लसफ़ा बताता है .  डायलाग है - 

 -  “सांब ! कोई काम है ? 

       “ इसका जवाब आपको मालूम है .  ज़ार्ज़ की  फुटपाथ से चलकर , यस के पाटिल जैसे धुरंधर को हराकर  “ जाइंट किल्लर  ज़ार्ज़ “  बनने की बांबे यात्रा मुकम्मिल हो चुकी थी , उसके बाद हम ज़ार्ज़ से मिले . 67 आम चनाव में ज़ार्ज़ की इस जीत ने ज़ार्ज़ को  बांबे म्यूनिसिपल कारपोरेटर से उठा कर देश के कोने कोने में पहुँचा दिया था .  इसी देश के एक सुदूर कोने में , उत्तर प्रदेश के एक ठेठ गाँव में  “कुतिया छाप “ मारकीन की क़मीज़ और धारीदार चड्ढी पहने यह ख़ादिम भी सुन  रहा था , कथा बंबई का , परदेस कमा के लौटे सीरी तिवारी से जिसे सुनने के लिए पूरा गाँव पहुँचा था , बरगद बाबा के नीचे . 

फन्नाडीज नाम  है , ज़ार्ज़ फन्नाडीज फाड़ के रख दिया पाटिल की .  घर के नौकरों तक ने फन्नाडीज को भोट दिया .  पाटिल बोला था - हम्मे भगवान भी नही हरा सकता , बुजरोके मनई से हार ग्य पूरे चालीस हज़ार से .  परदेस की खबर मुलुक तक पहुँची .  न रेडियो था न अख़बार लेकिन मुह तो था .  कौन सा “ परदेस “ होगा , जहाँ मुलुक वाले कमाई करने न जाते हों .  वापसी में खबरें भी  आती रहीं .  और हम ज़ार्ज़ से वाक़िफ़ हो गये पर अब तक मुलाक़ात नही हुई रही .  

      ज़ार्ज़ से मुलाक़ात हुई 72 में .  बिल्थरारोड बलिया में .  

     जारी .        चित्र -ज़ार्ज़ के साथ 1972 

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