एक मुख्यमंत्री जिसे अपनी छत नसीब नहीं हुई !

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एक मुख्यमंत्री जिसे अपनी छत नसीब नहीं हुई !

मनमोहन शर्मा 

सुचेता कृपलानी और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष आचार्य कृपलानी को जीवन भर अपनी छत नसीब नहीं हुई.  आज की पीढ़ी को यह जानकर वास्तव में हैरानी होगी कि केन्द्र में मंत्री और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के पद को दशकों तक सुशोभित करने वाली श्रीमती सुचेता कृपलानी और उनके पति आचार्य कृपलानी को जीवन भर अपना सिर छिपाने के लिए कोई अपनी छत नसीब नहीं हुई और उन्होंने सारा जीवन किराए के मकान में ही काट दिया.  

कई दशक पहले की बात है कि मेरे एक मित्र और अमर उजाला के तत्कालीन दिल्ली के ब्यूरो प्रमुख के.सी. निगम मुझे कृपलानी दंपत्ति से मिलाने के लिए दिल्ली की एक काॅलोनी ग्रीन पार्क ले गए.  उन दिनों श्रीमती सुचेता कृपलानी और उनके पति एक बंगले के गैराज पर बने एक कमरे में जीवन के अंतिम क्षण काट रहे थे.  उन दिनों ग्रीन पार्क आज की तरह महंगा इलाका नहीं था.  आचार्य कृपलानी अपनी पत्नी सुचेता कृपलानी सहित उन दिनों तंगदस्ती का शिकार थे और वे 850 रुपये मासिक किराया देने में भी कठिनाई महसूस कर रहे थे.  उन दिनों पूर्व सांसदों को पेंशन देने की व्यवस्था शुरू नहीं हुई थी.  यह दंपत्ति बेहद इमानदार और सच्चे गांधीवादी थे.  इसलिए इन्होंने सारा जीवन अपना कोई भी मकान बनाने का प्रयास नहीं किया.  यही कारण है कि जीवन के आखिरी दिनों में वे एक कमरे में किराएदार के रूप में काटने पर मजबूर थे.  


जब हम सुचेता जी से मिलने उनके कमरे मंे गए तो मेरे मित्र ने देखा कि श्रीमती सुचेता कृपलानी का एक हाथ जला हुआ था.  निगम जी ने श्रीमती सुचेता कृपलानी से पूछा दीदी यह क्या हुआ? तो आचार्य कृपलानी फोरन बोल उठे “यह गांधीवाद की सजा भुगत रही है.  नौकरानी को देने के लिए पैसे नहीं हैं.  इसलिए वह काम छोड़कर चली गई.  यह सारी उम्र राजनीति और गांधीवाद में उलझी रही.  घर का काम-काज इसको आता नहीं.  नौकर रखने केलिए पैसेनहीं.  कल जब वह चाय बनाने का प्रयास कर रही थी तो उसके हाथ पर उबलती चाय गिर गई.  जिससे उसका हाथ जल गया. ” श्रीमती सुचेता कृपलानी ने स्थिति को संभालते हुए कहा, आप बैठिए मैं चाय के लिए बाजार से दूध ले आती हूं.  दादा कृपलानी जैसे फट पड़े.  तेरे को बाजार में उधार दूध कौन देगा? निगम जी ने स्थिति को संभालते हुए कहा कि अरे हम चाय पी कर आए हैं आप पानी पिला दीजिए.  सुचेता ने पानी का गलास हमारे सामने लाकर रखा.  निगम जी उनसे पूर्व परिचित थे इसलिए वे उनसे बातचीत में खो गए.  इस घटना के कुछ महीनों बाद आचार्य कृपलानी का निधन हो गया और बाद में सुचेता कृपलानी भी चल बसी.  दोनों इतने आत्मस्वाभिमानी थे  कि उन्होंने किसी से कोई भी आर्थिक सहायता नहीं मांगी.  आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस छोड़ दी थी और वे प्रजा समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए थे.  आचार्य जी भी लोकसभा के सांसद रह चुके थे.  मगर क्योंकिउन दिनों सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था नहीं थी इसलिए उन्हें अपने जीवन के अंतिम दिन गरीबी में ही गुजारने पड़े.  इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि देश के एक अन्य प्रमुख नेता गुलजारीलाल नंदा का भी सामान मकान मालिक ने किराया अदा न कर पाने के कारण इसी दिल्ली की सड़क पर फेंक दिया था.   


आज देश की राजनीति में ईमानदार नेता ढूंढने से भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं.  एक व्यक्ति यदि किसी नगर निगम का पार्षद या विधायक बन जाता है तो वह अपनी आने वाली अनेक पीढि़यों के लिए रोजी रोटी की व्यवस्था कर जाता है जिससे उन्हें खाने-कमाने की जरूरत नहीं रहती.  इन दिनों पूर्व सांसदों और पूर्व विधायकों केलिए भी पेंशन की जो व्यवस्था की गई है उससे भी पुरानी पीढ़ी के ईमानदार नेताओं को भी काफी राहत मिली है. साभार फ़ेसबुक वाल से 

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