कुसूर स्मृति ईरानी का नहीं है

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कुसूर स्मृति ईरानी का नहीं है

 प्रो राज कुमार जैन  

 कल संसद में स्मृति ईरानी के नथुने फुलाकर चिंघाड़ते हुए भयानक आक्रमक अंदाज पर भाजपा के संसद सदस्यो  जो हर्ष निनाद मे मेजे थपथपा कर बाजी जीतने का जश्न मना रहे थे, उसमें स्मृति ईरानी के गोवा कांड की भड़ास को तो समझा जा सकता है.परंतु भाजपा के इस कार्य से देश को फिर से हिंदी भाषी बनाम गैरहिंदी भाषी आग मे फिर से धकेल दिया है,तथा 74 वर्ष पुरानी गलती को फि से दोहरा दिया. आजादी मिलने के बाद हिंदुस्तान के लिए जब आईन की तामीर करने के लिए जो कांस्टीट्यूएंट असेंबली बैठी थी उसमें सबसे ज्यादा विवादास्पद मसला भाषा का सवाल था. इस विषय पर जब भी बहस शुरूकरने का प्रयास हुआ माहौल बहुत गर्म और तनावपूर्ण हो गया.

 सभा को लगा कि इसके कारण ऐसे सभी मसले  जो बहुत खुलूस, रजामंदी, एक राय से पास होते हैं उन्हें पहले ले लिया जाए. अगर आप  कांस्टीट्यूएंट असेंबली की  डिबेट पढ़ें तो पता चल जाएगा कि सबसे अंत में इस पर विचार हुआ.सभा मे तीन तरह की राय के सदस्य थे एक, सेठ गोविंद दास जी जैसे कट्टर हिंदी समर्थक,जो देवनागरी लिपि तथा देवनागरी अंकों सहित चाहते थे. दूसरे फ्रैंक एंथोनी जैसे अंग्रेजी समर्थक तथा तीसरा  वर्ग गांधीजी कि हिंदुस्तानी भाषा नीति समर्थक था. जिसमें जवाहरलाल नेहरू डॉ राजेंद्र प्रसाद सरदार पटेल इत्यादि थे. गांधी जी द्वारा आजादी के साथ स्वदेशी, स्वदेशी भाषा को एक महत्वपूर्ण अंग मानकर  अहिंदी भाषी लोगों में हिंदी को एक राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए सुदूर दक्षिण भारत मैं "हिंदी प्रचार समिति"का निर्माण किया जिसमें अहिंदी  भाषी लोगों ने  राष्ट्रीयता की भावना से से हिंदी सीखी.

 संविधान सभा में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की रजामंदी अधिकतर सदस्य में थी परंतु हिंदी नेताओं के ने कहा की हिंदी देवनागरी अंक सहित ही हमें स्वीकार है रोमन के अंकों को हम हरगिज बर्दाश्त नहीं करेंगे.

यहीं से पासा पलट गया अहिंदी भाषी सदस्य बेचैन हो गए उन्होंने महसूस किया कि यह उत्तर के हिंदी, हिंदू  के साम्राज्यवाद की शुरुआत है क्योंकि हिंदी आग्रही हर बार कहते थे कि मत विभाजन कराले क्योंकि वह बहुमत में थे.जो अहिंदी भाषी सदस्य पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थक थे वह इसके घोर विरोधी हो गए. भाषा पर हुई बहस को पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाएंगे.मद्रास के तात्कालिक शिक्षा मंत्री अलगेसन ने कहा कि मेरे विद्यार्थी जीवन में मेरे सामने दो विकल्प थे क्या तो मैं अपनी मातृभाषा तमिल को चुनु या हिंदी को.  मैंने गांधी जी की सीख पर पर हिंदी विषय को चुना हमारे खिलाफ मद्रास की गलियों मे द्रविड़ पार्टी वाले मुर्दाबाद के नारे लगाते थे परंतु आज अंकों जैसे मामूली बात पर हिंदी भाषी बहुमत की धौंस दिखा रहे हैं अब मैं कदापि तमिल के मुकाबले हिंदी का समर्थन नहीं कर सकता. आखिर में हिंदी को  राजभाषा का दर्जा देकर मामले को रफा-दफा किया गया.

मैंने  दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते पढ़ाते हुए  43 साल यूनिवर्सिटी मैं गुजारे हैं,

पहले हॉस्टल और  बाद में क्वार्टर में रहा हूं. बड़ी तादाद में वहां गैर हिंदी भाषी विद्यार्थी पढ़ने आते थे टूटी फूटी हिंदी में बात करने का प्रयास करते थे कभी कोई हिंदी भाषी भूलकर भी उनका मजाक नहीं उड़ाता था बल्कि खुश होते थे कि वह अंग्रेजी में ना बोलकर हमारी जबान में बोल रहा है.आज भी गैर हिंदी भाषी प्रोफेसर तथा विद्यार्थी हिंदी बोलते हैं स्वाभाविक रूप से व्याकरण के हिसाब से गलत उच्चारण तथा स्त्रीलिंग पुलिंग में भेद नहीं कर पाते.

 कुसूर स्मृति ईरानी का नहीं उसकी न तो कोई शैक्षणिक अथवा राजनीतिक कार्यकर्ता की बैकग्राउंड है,मोदी जी और भाजपा की निजी पसंद है.वह कुछ भी अंट संट  बोल सकती है .परंतु एक गैर हिंदी भाषी के पूर्लिंग लगाने की जगह स्त्रीलिंग लगाने पर जो प्रधानमंत्री भाजपा वाले तालियां बजा रहे हैं , आगे आने वाले वक्त में यह सवाल इनको रसातल में पहुंचा देगा.लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और समाजवादी चिंतक हैं 

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